कादम्बिनी क्लब, हैदराबाद

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Friday 1 July 2016

महान रचनाकार दुष्यंत कुमार को मेरी श्रद्धांजलि – प्रवीण प्रणव


कहते हैं “होनहार बिरवान के होत  चिकने पात”। दुष्यंत कुमार के संदर्भ में ये कहावत अक्षरशः चरितार्थ होती है। इनका जन्म 27 सितंबर 1931 को उतार प्रदेश में बिजनौर जिले में राजपुर नवादा ग्राम में एक जमींदार परिवार में हुआ। पिता शायरी के शौकीन थे और माँ बात-चीत में अलंकारों का प्रयोग किया करती थीं। दुष्यंत कुमार की साहित्यिक सफर की शुरुआत इसी परिवेश से हुई। यूं तो इनका जन्म एक जमींदार परिवार में हुआ पर बाल अवस्था में ही इन्हें अपने दो भाइयों के मौत का दंश झेलना पड़ा। मात्र 16 वर्ष की अवस्था में दुष्यंत के बड़े भाई महेंद्र की मृत्यु रेल सिगनल से टकरा कर हो गई। इस घटना का दुष्यंत के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा।  सौतेले बड़े भाई प्रकाश नारायण की मौत भी जवानी में ही हो गई। भाई महेंद्र ही मृत्यु वाली घटना पर दुष्यंत ने “आघात” शीर्षक से कहानी लिखी। कहानी पेंसिल से लिखी गई है और शायद तब वे सातवी-आठवि के छात्र थे।



दुष्यंत कुमार से संबन्धित जो जानकारी उपलब्ध है, उनके आधार पर ये पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि कहानी और कविता में उनकी सृजनशीलता सातवीं कक्षा से आरंभ हो गई थी। पहले इन्होंने दुष्यंत कुमार त्यागी के नाम से रचनाएँ लिखीं, बाद में अपने नाम के आगे इन्होंने “विकल” उपनाम जोड़ लिया। किसी भी अन्य किशोर की तरह, दुष्यंत भी प्रेम के आकर्षण से अछूते नहीं रहे। इस काल में इन्होंने कई प्रेम कवितायें और गीत लिखे पर ऐसा नहीं था कि दुष्यंत सिर्फ प्रेम पाश में ही बंधे थे, अपने आस पास कि हर घटना पर उनकी सजग दृष्टि थी. जहां एक तरफ उन्होंने प्रेम से बेरुखी पा कर लिखा “ढक लेती अपना सुंदर मुख/ मैं “विकल” व्यथित हो कर ही तब/ गीतों में लिखता अपना दुख। अपने जीवन के दुखों से दुखी उन्होंने लिखा “जीवन की चिंता दो विशेष/ एक प्रेम तेरा था मुझको घेरे/ दूजा था मम  जीवन का दुख”। इसी काल में उन्होंने ये भी लिखा “रोने में भी बड़ा मज़ा है/ अरे कभी तो रो कर देखो।



अपने स्कूल जीवन में अपने सहपाठी हेमलता त्यागी में मुहब्बत में ऐसे घिरे कि इसकी खबर पूरे कस्बे को ही गई। अंततः लड़की के परिवार वालों ने शादी आ प्रस्ताव रखा जिसे दुष्यंत तो सहर्ष मान गए पर अपने पिताजी को मनाने में असमर्थ रहे। उन्हें अपने पिता के सामने हार माननी पड़ी और उस लड़की तो एक पत्र लिख कर उन्होंने इस प्रेम का अंत किया। पर शायद इस प्रेम विफलता का ही प्रभाव था कि उन्होंने बहुत सारी रचनाएँ लिख डालीं और उन्हें नहटौर में एक रचनाकार के रूप में पहचान मिली। इस काल में उन्होंने अपना उपनाम “विकल” से बदल कर “परदेशी” रख लिया।



हाई स्कूल के बाद दुष्यंत कालेज में पढ़ने के लिए चंदौसी आ गए। अब तक उनमें बहुत आत्मविश्वास आ चुका था, लोग उन्हें उनकी रचनाओं के लिए जानने लगे थे। इंटर करते हुए ही 30 नवंबर 1949 को उनका विवाह राजेश्वरी कौशिक के साथ सम्पन्न हुआ। विवाह के अगले ही दिन उन्होंने पत्नी के लिए लिखा था – वह चपल बालिका भोली थी/ कर रही लाज का भार वहन/ झीने घूँघट पट से चमके/ दो लाज भरे सुरमई नयन/ निर्माल्य अछूता अधरों पर/ गंगा यमुना सा बहता था/ सुंदर वन का कौमार्य/ सुघर यौवन की घातें सहता था/ परिचयविहीन हो कर भी हम/ लगते थे ज्यों चीर परिचित हों।



चंदौली में उनकी ख्याति फैल चुकी थी। इसी समय उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिल कर मासिक पत्रिका “पुकार” निकाली। पत्रिका डेढ़ साल तक चली, दुष्यंत के इलाहाबाद चले जाने के बाद इसका प्रकाशन बंद हो गया। छात्र जीवन से ही दुष्यंत, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा से बहुत प्रभावित थे। चंदौली में ही इन्होंने अपनी पहली पाण्डुलिपि लिखी और उसे ये कहते हुए सुमित्रानंदन पंत को समर्पित किया कि



कि जिनके पदचिन्हों को देख

हुआ है चलने का अभ्यास

उन्हीं के चरणों में सस्नेह

समर्पित मेरा प्रथम प्रयास





आगे की पढ़ाई के लिए दुष्यंत, चंदौली से इलाहाबाद आ गए और यहीं उनकी प्रतिभा का सर्वांगीण निखार हुआ। इलाहाबाद रहते हुए कवि सम्मेलनों में उन्हें बहुत प्रसिद्धि मिली, उनकी रचनाएँ कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई, आकाशवाणी के कई कवि सम्मेलनों में उन्होंने भाग लिया और अपनी एक विस्तृत पहचान बनाई। साहित्य में डूब चुके दुष्यंत ने 1954 में एम0 ए0 की पढ़ाई पूरी की। इस समय तक पारिवारिक जिम्मेदारियाँ बढ़ चुकी थीं और आमदनी का कुछ प्रबंध नहीं था। अध्यापन में नौकरी के लिए उन्होंने मुरादाबाद में बी0 टी0 जॉइन किया और 1958 में उन्होंने इसे उतिर्ण किया। इस बीच वो सतत नौकरी के लिए प्रयत्नशील रहे और अंततः उन्हें कुछ वरिष्ठ कवियों की सिफ़ारिश पर आकाशवाणी दिल्ली में स्टाफ आर्टिस्ट की नौकरी मिली। इस नौकरी में उन्हें साहित्यिक संतुष्टि नहीं मिली पर सृजन का क्रम चलता रहा। डेढ़ साल के अंदर ही उनका तबादला दिल्ली से भोपाल हुआ और फिर भोपाल ही आखिर तक उनकी कर्म स्थली रहा।  भोपाल रहते हुए ही उन्होंने आवाजों के घेरे में (1962-63), एक कंठ विषपायी (1963-64), छोटे -छोटे सवाल (1964), आँगन में एक वृक्ष (1967-69), जलते हुए वन का वसंत (1973), साये में धूप (1975) की रचना की। काल के कठोर हाथों साहित्य का ये चमकता सितारा मात्र 44 वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कह गया पर छोड़ गया इतनी समृद्ध विरासत की कई पीढ़ियाँ रश्क और गर्व दोनों की अनुभूति करेंगी उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए।





कविताएं



दुष्यंत कुमार को प्रसिद्धि दिलाई उनकी गज़लों ने पर उन्हे पहचान उनकी कविताओं से मिली । प्रेम, विरह, बाल कविता, व्यंग, राजनीति, समाज – शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो उनकी कविताओं में अछूता हो।  उनकी भाषा हमेशा सहज और सरल रही जिसकी वजह से पाठक उनकी रचनाओं से खुद तो जोड़ पाने सक्षम हुए। उनकी रचनाओं में न सिर्फ विषय की विविधता रही अपितु उन्होने कविता के विभिन्न शिल्प रुबाइयाँ, मुक्तक, छन्द सभी लिखे और इन सबमे अपनी विशिष्ट शैली को बरकरार रखा।



एक कंठ विषपायी



ये दुष्यंत कुमार का पहला काव्य – नाटक है। हमारे लिए गौरव की बात है की इसका प्रकाशन हैदराबाद की प्रतिष्ठित पत्रिका कल्पना ने किया था और इसके बारे में लिखते हुए कल्पना के संपादक ने लिखा था कि यह अंधायुग  के बाद हिन्दी की सशक्त काव्य-कृति है। 



कहानियाँ



यद्यपि दुष्यंत कुमार की पहचान एक कवि और गजलकार के रूप में ज्यादा है पर सत्य ये है कि वो  जितने  अच्छे कवि थे, गद्ध लिखने में भी उतने ही सिद्धहस्त थे। उनकी कहानियाँ आघात, कलियुग, मिस पीटर, छिमिया, मड़वा उर्फ माड़े, हाथी का प्रतिशोध, वह मुसाफिर आदि इस बात का प्रमाण है कि दुष्यंत कुमार को सिर्फ उनकी कविताओं और गजलों के पैमाने पे परखना उनके साथ अन्याय होगा।



उपन्यास



छोटे छोटे सवाल, आँगन में एक वृक्ष, एक अंश (अप्रकाशित), एक अधूरी कवि व्यथा, अन्ना केरेनिना (अनुवादित)





साये में धूप (1975)



दुष्यंत कुमार का लोहा समकालीन सारे साहित्यकार मान चुके थे, उन्हे अपार प्रतिष्ठा और पहचान मिली लेकिन जिस एक संग्रह ने उन्हे हीरा से कोहिनूर बनाया वो था “साये में धूप “।  इस संग्रह की हर गजल आम आदमी की व्यथा उजागर करती हुई सी लगी। सियासत और व्यवस्था से आक्रोश हर अक्षर में झलक रहा था। दुष्यंत कुमार में गजल में उर्दू के कठिन शब्दों के प्रयोग के बदले साधारण बोल चाल के शब्दों का चयन किस और नतीजा ये रहा की हर गजल लोगों की ज़बान पर आ बसी।



कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए

कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढ़क  लेंगे

ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए

वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता

मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए







कैसे मंजर सामने आने लगे हैं

गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

ये कंवल के फूल कुंभलाने लगे हैं





ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा

मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा

यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियां

मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा



इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है

नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है

एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों

इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है



देख दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली

ये खतरनाक सच्चाई नहीं जाने वाली

चीख निकली तो है होठों से मगर मद्धिम है

बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली





खंडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही

अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही

हमको पता नहीं था हमे अब पता चला

इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही



भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दया

गिड़गिड़ाने का यहाँ कोई असर होता नहीं

पेट भर कर गालियां दो आह भर कर बददुआ

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो

जब तलक खिलते नहीं, ये कोयले देंगे धुआँ



मत कहो आकाश में कुहरा बना है

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है

हर किसी का पाँव घुटनो तक सना  है



आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख

घर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ

आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख

राख़, कितनी राख़ है चारो तरफ बिखरी हुई

राख़ में चिंगारियाँ ही देख अंगारे न देख

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार

घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार

मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं

बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार

इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं

आदमी या तो जमानत पर रिहा है या फरार





पक  गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं

कोई हंगामा करो, ऐसे गुज़र होगी नहीं

आज मेरा साथ दो वैसे मुझे मालूम है

पत्थरों में चीख हरगिज़ कारगर होगी नहीं



बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं

और नदियों के किनारे घर बने हैं

आपके कालीन देखेंगे किसी दिन

इस समय तो पाँव कीचड़ में सने  हैं

जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में

हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं









ज़िंदगानी का कोई मकसद नहीं है

एक भी कद आज आदमक़द नहीं है

राम जाने किस जगह होंगे कबूतर

इस इमारत में कोई गुंबद नहीं है

पेड़ पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे

रास्तों में एक भी बरगद नहीं है





हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।


आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर
, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
,
हो कहीं भी आग
, लेकिन आग जलनी चाहिए।







इनके अलावा दुष्यंत कुमार ने अनेकानेक समीक्षाएं लिखीं। जिस स्पष्टवादिता से उन्होने उस जमाने  के कई साहित्यकारों की खिचाई की है, वो  सिर्फ उनके वश की ही बात थी। उन्होने कई व्यक्ति विशेष संस्मरण लिखे, उनके पत्राचार (उनके मित्रों, पत्नी और संपादकों के साथ) आज की पीढ़ी के लिए शोध का विषय हैं।



दुष्यंत कुमार कभी पुरस्कारों की अभिलाषा में नहीं रहे और न ही उन्हें किसी महत्वपूर्ण पुरस्कार से नवाजा गया और साहित्य के लिए शायद अच्छा ही रहा कि अंत तक वो किसी के भी किसी तरह के उपकार के बोझ तले दब  कर समझौता वादी साहित्यकार नहीं बने।  30 वर्षों से भी कम की साहित्यिक यात्रा में उन्होने जितने कीर्तिमान स्थापित किए हैं उन्हे समझने को एक उम्र निःसन्देह ही कम पड़ेगी। दुष्यंत कुमार को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि ।  

प्रवीण प्रणव    














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