‘पुष्पक’ का 31 वां अंक, प्रधान संपादक डा. अहिल्या मिश्र के इस संपादकीय चर्चा के साथ आरम्भ होता है कि आज चारों ओर धधकते लावा के कारणों एवं परिणामों का साहित्यकारों को निरपेक्ष रहकर विश्वसनीय विश्लेषण करने की जरूरत है । साथ ही, सत्य तथा शान्ति की अलख जगाने की भावना से इनके निवारण हेतु सामयिक सच के लेखन के साथ उपकरणों एवं माध्यमों का चुनाव करने की आवश्यकता है ।
इस अंक में पाँच लघु कथाओं सहित कुल 10 कहानियां हैं । 19 कविताएं, गीत, ग़ज़ल, दोहे तथा हाइकु हैं । 03 शोध-परक आलेख हैं । 07 समीक्षाएं हैं । 01 साक्षात्कार है । स्थायी स्तम्भों में कादम्बिनी क्लब की गतिविधियां, ऑथर्स गिल्ड ऑफ इन्डिया के 41 वें अधिवेशन का हैदराबाद में आयोजन, सातवां साहित्य गरिमा पुरस्कार प्रदान किए जाने की बातें, ऑथर्स गिल्ड ऑफ इन्डिया का हैदराबाद चैप्टर के तत्वावधान में आयोजित राष्ट्रीय बहुभाषी कवि-सम्मेलन की चर्चा के साथ कई अन्य सामग्रियां हैं ।
आम धारणा है कि बेटी बेटे से अधिक संवेदनशील होती है और अपने माँ-बाप से उसका लगाव ज़्यादा होता है । शान्ति अग्रवाल अपनी कहानी ‘बेटी-बहु’ में इस धारणा की पड़ताल करती हैं और कहती हैं कि यह सर्वथा सत्य नहीं है, बहु भी बेटी से अत्यधिक संवेदनशील हो सकती है और वह भी, एक विदेशी बहु । डा. रमा द्विवेदी की कहानी ‘दुर्भाग्य से सौभाग्य’ बलात्कार के बाद पैदा हुई एक बच्ची को उसकी माँ के द्वारा अनाथाश्रम में छोड़ दिये जाने के दुर्भाग्य को एक विदेशी दम्पति द्वारा उस बच्ची को गोद लेकर सम्पूर्ण ममत्व उड़ेलने के सौभाग्य में बदल जाने की कहानी है । पवित्रा अग्रवाल ने अपनी कहानी ‘बदला’ में दो ठाकुर परिवारों के बीच पीढ़ी-दर-पीढ़ी पल रही बदला लेने की आग में झुलसते, उजड़ते परिवारों और बाद में बचे परिवार के साथ जीवन भर पश्चाताप में एक-दूसरे को कोसने को बख़ुबी चित्रित किया है । जिन बच्चों के सुख के लिए मां-बाप ने अपनी ज़िन्दगी होम कर दी, बुढ़ापे में उन्हीं बच्चों के द्वारा तिरस्कृत किया जाना अब आम बात हो गई है । लेकिन अब बूढ़े मां-बाप ने भी उन बच्चों को यह एहसास दिलाना की कल उनकी बारी है शुरू कर दिया है एवं ख़ुद से हार नहीं मानने की ठान ली है । लक्ष्मी रानी लाल इसी मुद्दे को अपनी कहानी ‘मन के हारे हार है’ में उठाती हैं । मां-बेटों के बीच संवादात्मक शैली में लिखी गई कहानी ‘संवेदना के सुनहरे पल’ में डा. टी. सी. वसंता हिन्दुस्तान में भारतीय भाषाओं के लेखकों की दयनीय अवस्था की तुलना विदेशी लेखकों को उनकी सरकारों द्वारा दी जा रही अनेकों सुविधाओं के साथ करते हुए बदलते हुए सामाजिक परिदृश्य में पैसे की होड़ में भारतीय कला, साहित्य एवं संस्कृति के क्षरण पर चिन्ता जताती हैं । लेकिन वह सुनहरी किरण भी देखती हैं जब कहानी में बेटा कहता है कि वह अपनी विरासत को बचाये रखने की पहल करेगा और अपने उन मित्रों को, जो होटलों में हजारों खर्च कर देते हैं, इस मुहिम से जोड़ने का हर संभव प्रयत्न करेगा । पाँचों लघु कथाएं ‘भगवान रो रहा था’, ‘मेरा बच्चा’, ‘चुनावी मुद्दा’, ‘कारण’ एवं ‘संगीत की शक्ति’ भी काफी रोचक हैं ।
कविताएं, गीत, ग़ज़ल, दोहे तथा हाइकु भी जीवन्त हैं, मन को झकझोरते हैं और वर्तमान सामाजिक, नैतिक, राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक संक्रमण को तोड़कर सबके जीने लायक एक नयी खुशहाल दुनिया बनाने के लिए उद्वेलित करते हैं ।
सरला माहेश्वरी की कविता ‘तुम्हें सोने नहीं देगी ये आवाज़’ की ये पंक्तियां देखिए –
जीने के लिए
तेल, बारूद और घृणा नहीं
रोटी, पानी, हवा
और प्रेम चाहिये
सुनो! हमारी आवाज़ !
ये ज़िन्दगी की आवाज़ है,
हर जगह से उठेगी ये आवाज़,
तुम्हें सोने नहीं देगी ये आवाज़ ।
लक्ष्मी नारायण अग्रवाल अपनी कविता ‘यही सच है’ में मानवीय रिश्तों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं –
मिलकर ज्ञान और उनके साथियों ने
कर दिया है बलात्कार
प्रेम का
रिश्ते ज़िंदा तो हैं
पर
कुछ बोलते नहीं
बलात्कार पीड़ितों का तरह ।
प्रवीण प्रणव की कविता ‘मैं देखना चाहता हूँ’ में आँखों से विकलांग एक बच्चे का अपनी स्नेह भरी माँ को देखने का मासूम दर्द बयान किया गया है -
माँ के आँचल तले सब कुछ भूल जाता हूँ मैं
माँ मुझे लोरी सुनाती है
और झट से सो जाता हूँ मैं,
मुझे रोशनी से ज़्यादा मेरी माँ का ये प्यार चाहिए
मैं मेरी माँ के स्नेहिल आँचल को देखना चाहता हूँ
मैं मेरी माँ को देखना चाहता हूँ ।
आचार्य भगवत दुबे की ग़ज़ल के चन्द शेर देखिए –
जिन्हें अपने परिश्रम पर भरोसा गर नहीं होगा
भविष्यत ऐसे लोगों का कभी बेहतर नहीं होगा
ख़बर सुनते ही तूफां की, जो ढह जाता है घबराकर
समझिये उस भवन में नींव का पत्थर नहीं होगा
समय के घूमते पहिये को घड़ी की घूमती सुइयों में बाँधने का प्रयास मीना मूथा ने अपने हाइकू में किया है –
घड़ी की चाल
टिक-टिक करती
बताती काल
धरोहर के रूप में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ये कालजयी पंक्तियां भी ‘पुष्पक’ के इस अंक में संजो कर रखी गई हैं –
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो.
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।
इस अंक में जितेन्द्र ‘जौहर’ का आलेख ‘मुक्तक कुछ विचार, कुछ प्रकार’, प्रो. शुभदा वांजपे का शोध-परक लेख ‘आधुनिक हिन्दी कविता में नारी अधिकार’ एवं डा. के. संगीता का आलेख ‘हिन्दी कहानियों में नारी की विभिन्न भूमिका – घर और बाह्य क्षेत्र’ शामिल हैं ।
डा. अहिल्या मिश्र की कविताओं का संग्रह ‘श्वास से शब्द तक’, डा. जी. नीरजा के निबन्ध संग्रह ‘तेलुगु साहित्य- एक अवलोकन’, प्रो. मसना चेन्नप्पा की कविताओं का संग्रह ‘वह संदूक’ (मूल नाम - आ संदूक), डा. राकेश कुमार सिंह के काव्य संकलन ‘अबकी शाम बहुत बतियाये’, साहित्य व पत्रकारिता के द्वय पक्षों पर आधारित आशा मिश्र ‘मुक्ता’ की पुस्तक ‘साहित्यिक पत्रकारिता’, डा. एस. कृष्णा बाबू द्वारा अनुदित ‘तेलुगु की प्रतिनिधि कहानियों का संकलन’ एवं रामबाबू नीरव के उपन्यास ‘पश्यंती’ पर विद्वान लेखकों द्वारा काफी सटीक समीक्षाएं भी इस अंक में शामिल हैं ।
‘पुष्पक’ के इस 31 वें अंक में डा. एस. कृष्णा बाबू द्वारा डा. अहिल्या मिश्र के साथ किये गये साक्षात्कार के माध्यम से वर्तमान वैश्विक एवं उत्तर आधुनिक परिदृश्य में साहित्य की उभरती हुई विभिन्न प्रवृत्तियों एवं लेखन पर गंभीर चर्चा की गई है । साथ ही, डा. मिश्र की लेखकीय दृष्टि, उनकी रचनाधर्मिता के विभिन्न आयामों पर भी विस्तार से बातें की गई हैं ।
इसके अतिरिक्त इस अंक में प्रधान संपादक डा. अहिल्या मिश्र का कई राष्ट्रीय मंचों पर ख्याति लब्ध साहित्यकारों, पत्रकारों एवं सामाजसेवियों के साथ विगत दिनों हुए मुलाकातों एवं उन्हें ‘पुष्पक’ का 30 वाँ अंक भेंट किए जाने की तस्वीरें भी हैं जो कादम्बिना क्लब की साहित्यिक पत्रिका ‘पुष्पक’ की राष्ट्रीय पहचान को उजागर करती हैं ।
कुल 100 पृष्ठों में साहित्य की सारी विधाओं यथा कहानियां, कविताएं, आलेख, समीक्षा, साक्षात्कार के साथ-साथ अनेकों साहित्यिक गतिविधियों के ब्योरे को ‘पुष्पक’ के इस अंक में समेटने का प्रयास सचमुच गागर में सागर समेटने जैसा है; और वह भी, रचनाओं की सारगर्भिता, उनकी सार्थकता को बनाये रखते हुए । निश्चित तौर पर यह अंक पठनीय है और रचनाओं की कालजयिता को देखते हुए संग्रहनीय भी है ।
अवधेश कुमार सिन्हा
हैदराबाद
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