गोस्वामी तुलसीदास की सभी रचनाओं में यूँ तो ‘रामचरितमानस’ सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ है जिसने शेष कृतियों को इक्लिप्स-सा कर दिया है और सामान्य-जन के बीच उनके नाम का पर्याय बन गया है, लेकिन रामचरितमानस के बाद लोकप्रियता की अगली पायदान पर ‘विनय-पत्रिका’ को ही स्थान दिया जाता है ।
विनय-पत्रिका तुलसीदास के 279
स्तोत्र गीतों का संग्रह है जो हिन्दुस्तानी संगीत के 23 रागों में निबद्ध हैं । इन गीतों में गणेश, सूर्य, शिव, पार्वती, गंगा, यमुना, काशी, चित्रकूट, हनुमान, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता और विष्णु के एक विग्रह विन्दु माधव के गुणगान के साथ राम की स्तुतियाँ हैं । अपने पदों एवं स्तोत्रों में इन सभी का गुणगान करके तुलसीदास जी ने उनसे याचना की है कि वे प्रभु श्री राम की उन पर कृपा करवाने में उनकी सहायता करें, उनकी ओर से सिफारिश करें । संभवतः तुलसीदास का इन देवी-देवताओं में विश्वास रखने का कारण राम भक्ति की प्राप्ति में उनकी उपयोगिता रही हो । विनय-पत्रिका में लोक-मंगल चाहने वाले गोस्वामी जी ने भक्त की दीनता और प्रभु का महत्त्व, जीव की अक्षमता, आत्मग्लानि, मनोराज्य के साथ-साथ अत्याचार-पीड़ित युग-जीवन का बार-बार उल्लेख किया है । भक्तिपूर्ण आत्मनिवेदन के अतिरिक्त विनय-पत्रिका में ज्ञान, वैराग्य, अद्वैतवाद, विशिष्ट अद्वैतवाद तथा शुद्ध अद्वैतवाद आदि का भी निरूपण मिलता है । कवि ने इन दार्शनिक तथ्यों को काव्य की भाषा में ग्रहण किया है ।
रचनाकाल
तुलसीदास के द्वारा रचना तिथि का का निर्देश न होने से अन्य ग्रंथों की भाँति विनय-पत्रिका का रचनाकाल भी संदिग्ध है । कुछ विद्वान इसे संवत्
1636 से
1668 के बीच अलग-अलग समय पर रचित स्फुट रचनाओं का संकलित किया हुआ संग्रह-ग्रंथ मानते हैं तो कई इसमें मंगलाचरण तथा विष्णु, शिव, देवी, सूर्य, गणेश आदि पंच देवों की प्रार्थना का प्रारंभ में ही आयोजन के आधार पर इसे योजनाबद्ध तरीके से रचित एक सम्यक ग्रंथ मानते हैं जो संवत्
1666 में पूर्ण की गई । तथापि, विनय-पत्रिका की निम्न पंक्तियों से इतना तो स्पष्ट है कि इसके कई पद और स्तोत्र तुलसीदास के 126
वर्षों के जीवन-काल (मृत्यु- संवत् 1680)
के अंतिम चरण में लिखे गये होंगे –
तुम्ह तजि हौं कासों कहौं और को हितु मेरे ?
दीनबन्धु ! सेवक-सखा, आरत अनाथ पर सहज छोह केहि केरे ।।1।।
बहुत पतित भवनिधि तरे बिनु तरि, बिनु बेरे ।
कृपा-कोप-सति भायहू, धोखेहु-तिरछेहू, राम तिहारेहि हेरे ।।2।।
जो चितवनि सौधी लगै, चितइये सवेरे ।
तुलसिदास अपनाइये, कीजै न ढील, अब जीवन अवधि अति नेरे ।।3।।
(विनय-पत्रिका
273)
भाषा और शिल्प
विनय-पत्रिका की भाषा ब्रज की है, पर तुलसीदास की मातृभाषा अवधी की भी छाप इसमें जगह-जगह मौजूद है । भाषा, शैली और व्यंजना के दृष्टिकोण से विनय-पत्रिका के दो भाग किये जा सकते हैं - पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध । पूर्वार्द्ध के 64 पदों तक यह स्तोत्र काव्य है जिसमें देवताओं के ऐश्वर्यपूर्ण गुण और रूप का वर्णन है । इनमें भावपक्ष की कमी के कारण प्रगीतात्मक तत्त्वों का सर्वथा अभाव दीखता है । इन रचनाओं में ब्रज, अवधी या हिन्दीपन से दूर संस्कृत पदावली के प्रयोग का प्रयत्न किया गया है । परिणामस्वरूप, ये न तो संस्कृत ही हो पाईं और न ब्रज, अवधी या हिन्दी,
वरन् सबका मिलाजुला रूप हैं । इसके कारण स्तुति के नाम पर इन पदों के प्रति शुद्ध भावना का संयोजन भले ही मान लिया जाय किन्तु रागात्मक प्रवृत्तियों को रमाने के लिए इनमें स्थान का अभाव दीखता है । उदाहरण के लिए हनुमान जी की एक स्तुति इस प्रकार है -
जयति मर्कटाधीस, मृगराज-विक्रम,
महादेव, मुद-मंगलालय कपाली ।
मोह-मद-कोह-कामादि-खल-संकुला,
घोर संसार-निसि किरनमाली ।। 1।।
जयति लसदञ्जनाsदितिज, कपि-केसरी-
कश्यप-प्रभाव, जगदार्तिहर्त्ता ।
लोक-लोकप-कोक कोकनद- सोकहर,
हंस हनुमान कल्यान कर्त्ता ।। 2 ।।
(विनय-पत्रिका 26)
शिव की स्तुति का एक रूप इसी से मिलता-जुलता है
-
संकरं सम्प्रदं सञ्जनानन्ददं, सैल-कन्या-वरं परम रम्यं ।
काम-मद-मोचनं तामरस-लोचनं, वामदेवं भजे भाव गम्यं ।। 1 ।।
कम्यु-कुन्देन्दु-कर्पूर गौरं शिवं, सुन्दरं सच्चिदानन्द कन्दं ।
सिद्ध-सनकादि योगीन्द्र-वृन्दारका, विष्णु-विधि-वन्द्य चरनारविंदं ।। 2 ।।
(विनय-पत्रिका 12)
इन पदावलियों की रचना-प्रक्रिया में कवि उपमा और उत्प्रेक्षा के जाल में फंसता हुआ-सा लगता है, यहाँ तक कि एक स्थान पर अपने इष्टदेव राम की उपमा राहु से दे दी है –
देहि अवलंब करकमल, कमलारमन,
दमन-दुख, समन-संतापभारी ।
अज्ञान-राकेस-ग्रासन विधुंतुद गर्व-
काम-करिमत्त-हरि, दूषनारी ।।1 ।।
(विनय-पत्रिका 58)
विनय-पत्रिका के उत्तरार्द्ध में यानि 65 वें पद से आगे राम नाम की महिमा प्रारंभ होती है और फिर तुलसीदास भक्ति के आवेश में भाव विह्वल होते जाते हैं । अपने हृदय की बात कहने के लिए कवि सहसा संस्कृत के सौध से उतरकर लोकभाषा की जानी-पहचानी प्राकृतिक परंपरा की भावभूमि पर आ खड़ा होता है । एक उदाहरण है-
राम को गुलाम, नाम ‘रामबोला’ राख्यो राम,
काम इहै, नाम द्वै हौं कबहूँ कहत हौं ।
रोटी-लूगा नीके राखे, आगे हू की वेद भाखे,
भलो ह्वै है तेरो, ताते आनँद लहत हौं ।। 1 ।।
(विनय-पत्रिका 76)
विनय-पत्रिका में भावना का परिवेश प्रधान होने के कारण विदेशी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है, जैसे –
अरबी - लायक, गरीब, गुलाम, कुबूल, मुकाम, मालूम, खलल, मंशा, ख्याल, खास आदि
फारसी
- निशानी, इयार, शरम, दाद, बाजिगर, दरबान, जहान, जोर, बुलन्द, गुल आदि
विशेषता यह है कि तुलसी ने इन शब्दों को हिन्दी की प्रकृति के अनुकूल ढाल लिया है । छोटे पदों में भावान्विति अवश्य है जिसके कारण वे प्रगीतात्मक हो गये हैं किन्तु लम्बे पदों में भावना की एकरूपता बिखर गई है । फिर भी, तुलसी का आत्मनिवेदन लौकिक भावभूमि पर आधारित है इसलिए उसमें बड़ी हृदयग्राहिकता है ।
विनय-पत्रिका के आरम्भिक और परवर्त्ती पदों में भाषा का प्रयोग अलग-अलग रूपों में बेशक हुआ हो, पर कुल परिवेश गीतिकाव्य के ही रूप में निर्मित किया गया है । इसमें राम कथा का आग्रह बिल्कुल नहीं है और प्रत्येक पद एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं । संगीत की योजना भी प्रसंगानुकूल है, साथ ही इसके छंदों में जितना वैचित्र्य है उतना तुलसी के किसी अन्य ग्रंथ में नहीं । भावों की सघनता के कारण इसमें छंद भावों का अनुसरण करता है, भाव छंद का नहीं । छन्दों के क्षेत्र में तो विनय-पत्रिका में इतने अधिक नवीन रूपों का प्रयोग किया गया है कि छन्दशास्त्र के अनुसार उनका वर्गीकरण भी कठिन लगता है । मर्यादा के बन्धन को छोड़कर विनय-पत्रिका की भाषा, छन्द और शैली सभी में पूर्ण स्वच्छन्दता बरती गई है, इसलिए मध्ययुग के गीतिकाव्य के क्षेत्र में वह सर्वथा अनूठी है । टेकयुक्त गीत शैली के पदों में राग और ताल के सधाव के कारण मनोहारी संगीत का विधान किया गया है । काव्य और संगीत का यह समन्वय विनय-पत्रिका को भावुक भक्तों का कंठहार बना देता है ।
भक्ति की चरम स्थिति
भक्ति-रस का पूर्ण परिपाक जैसा विनय-पत्रिका में देखा जा सकता है, वैसा अन्यत्र नहीं । भक्ति में प्रेम के अतिरिक्त आलंबन के महत्त्व और अपने दैन्य का अनुभव परमावश्यक है । तुलसी के हृदय से इन दोनों अनुभवों के ऐसे मिर्मल शब्द-स्रोत निकले हैं, जिसमें अवगाहन करने से मन की मैल कटती है और अत्यंत पवित्र प्रफुल्लता आती है ।
विनय-पत्रिका में शरणागत भक्त का उच्चतम आदर्श निहित है जो इसके पृष्ठों पर मूर्त्तिमान हो उठा है । इस भक्ति के आदर्श का मूल स्वर है –
या जग में जहँ लगि या तनु की प्रीति प्रतीति सगाई ।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिट इक ठाई ।। 4 ।। (विनय-पत्रिका
103)
तुलसीदास सर्वात्मभाव से अपने आराध्य और स्वामी के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं । अपने पदों में प्रारम्भ से ही वे आराध्य की महानता और अपनी लघुता का आधार लेकर चलते हैं –
राम सों बड़ो है कौन, मो सों कौन छोटो ।
राम सों खरो है कौन, मो सों कौन खोटो ।। 2 ।।
(विनय-पत्रिका 72)
इसी के बल पर कवि अपनी मोहग्रस्त आत्मा को जगाना चाहता है और राम की ओर उन्मुख होने की साधना में तन्मय हो जाता है । विनय-पत्रिका में इस दैन्य वर्णन के अन्तर्गत ही अनेकों आत्मकथात्मक प्रसंग आये हैं –
राम को गुलाम, नाम ‘रामबोला’ राख्यो राम,
काम इहै, नाम द्वै हों कबहूँ कहत हों ।
लोग कहैं पोचू, सो न सोच न संकोच मेरे
ब्याह न बरेखी, जाति-पाँति न चहत हौ ।
तुलसी अकाज-काज राम ही के रीझे-खीझे,
प्रीति की प्रतीति मन मुदित रहत हौं ।। 4 ।।
(विनय-पत्रिका 76
)
अथवा
दियो सुकुल जनम, सरीर सुंदर, हेतु जो फल चारिको ।
जो पाई पंडित परम पद, पावत पुरारि-मुरारि को ।।
(विनय-पत्रिका
135)
कवि राम के व्यक्तित्व में ऐश्वर्य, सर्वशक्तिमत्ता, शरणागतवत्सलता तथा शील का समावेश करके अपने दैन्य का क्रमशः विकास प्रस्तुत करता जाता है –
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हों भिखारी ।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी ।। 1 ।।
नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोसों ?
मो समान आरत नहिं, आरतहर तोसों ।। 2 ।।
ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो ।
तात-मात, गुरू-सखा तू सब बिधि हितु मेरो ।। 3 ।।
तोहि मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै ।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु ! चरन-सरन पावै ।। 4 ।।
(विनय-पत्रिका 79)
इस दीनता की जितनी भी मानसिक दशाएं हो सकती हैं, तुलसी की कल्पना ने सबको घेर लिया है । वे पूर्णतया निस्साधन भक्त हैं, इसीलिए तो –
खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु ,
रीझिबे लायक तुलसी की निलजई ।। 5 ।।
(विनय-पत्रिका
252)
तुलसीदास ने इस आत्मनिवेदन में तर्क और भावना का अद्भुत सम्मिश्रण किया है, किन्तु उनका तर्क भी भावात्मक ही है । वे पहले तो राम को ऐसे सब काम गिना देते हैं जिनमें उन्होंने बड़े-बड़े पातकियों को तारा है फिर उनके शील स्वभाव की प्रशंसा करते हैं । यह भी पर्याप्त न होने पर उनके विरद की याद दिलाकर यश में बट्टा लगने का, बदनामी का डर दिखाते हैं । ऐसे पदों में कहीं-कहीं निवेदन बड़ा ही स्वाभाविक और मार्मिक हो गया है –
कहे बिनु रह्यो न परत, कहे राम ! रस न रहत ।
तुमसे सुसाहिब की ओट जन खोटो-खरो,
काल की, करम की कुसाँसति सहत ।। 1 ।।
करत विचार सार पैयत न कहूँ कछु
सकल बड़ाई सब कहाँ ते लहत ?
नाथ की महिमा सुनि, समुझी आपनी ओर,
हेरि हारि कै हहरि हृदय दहत ।। 2 ।।
सखा न, सुसेवक न, सुतिय न, प्रभु आप
माय-बाप तुहि साँचो तुलसी कहत ।
मेरी तो थोरी है, सुधरैगी बिगरियौ बलि
राम ! रावरी सौं रही रावरी चहत ।। 3 ।।
(विनय-पत्रिका
256)
उसकी तो विशेषता यह है कि-
जो पै दूसरो कोउ होइ ।
तौ हौं बारहि बार प्रभु कत दुख सुनावौं रोई ।। 1 ।।
(विनय-पत्रिका
217)
वह कभी निराश हो उठता है, कभी प्रभु के अनुग्रह का साक्षात्कार करने लगता है और कभी यह कह उठता है कि -
तुम अपनायो तब जानिहौं, जब मन फिरि परिहै ।
जेहि सुभाव विषयनि लग्यो तेहिं सहज
नाथ सों नेह छाँड़ि छल करिहै ।। 1 ।।
(विनय-पत्रिका
268)
प्रभु से निरन्तर विनय करते-करते वह यह भी अनुभव करता है कि उनका आराध्य मन ही में उसे अपना समझता है । अतएव प्रेमजनित धृष्टता तथा उपालम्भ का स्वरूप भी कहीं प्रस्फुटित हो उठा है । सान्निध्य की यह भावना भक्त के पूर्ण आत्मविश्वास की द्योतक है ।
पूरी विनय-पत्रिका में दास्य भाव की भक्ति का प्रसार दिखाई पड़ता है । एक दो स्थानों पर कहीं-कहीं उपमा के माधुर्य भाव की मनहर व्यंजना प्राप्त हो जाती है ।
दैन्य के साथ जहाँ कहीं आत्मकथा का अंश मिल गया वहाँ आत्मनिवेदन अधिक तीव्र और मार्मिक बन गया है-
द्वार द्वार दीनता कही, काढ़ि रद, परि पाहूँ ।
हैं दयालु दुनी दस दिसा, दुख-दोष-दलन-छम,
कियो न सँभाषन काहूँ ।। 1 ।।
तनु जन्यो कुटिल कीट ज्यों, तज्यों मातु पिता हूँ ।
काहे को रोष, दोष काहि धौं, मेरे ही अभाग
मोसों सकुचत छुइ सब छाहूँ ।। 2 ।।
(विनय-पत्रिका
275)
अन्त में, हनुमान जी की सिफारिश और भरत की इच्छा से लक्ष्मण तुलसी की अरजी पेश कर देते हैं कि-
कलिकालहु नाथ ! नाम सों परतीति-
प्रीति एक किंकर की निबही है ।। 1 ।।
(विनय-पत्रिका
279)
फिर क्या है, सारी सभा समर्थन में चिल्ला उठती है और
बिहँसि राम कह्यो ‘सत्य है, सुधि मैं हूँ लही है’ । (विनय-पत्रिका
279)
कहकर प्रभु श्री राम तुलसी की पत्रिका पर सही कर देते हैं । दास के रूप में राम के ऐश्वर्य की जो कल्पना तुलसी ने की है उसकी परिणति इसी पद में जाकर होती है । अपने और राम के बीच के इसी अन्तर को पाटने के लिए तुलसी ने आजीवन साधना की है । यही उनका मर्यादावाद है और इसी मर्यादावाद के सूत्र में विनय-पत्रिका के पदों का लालित्य बँधा हुआ है । यद्यपि तुलसी के पदों में उनकी चरम आसक्ति और पूर्ण तन्मयता के दर्शन होते हैं किन्तु दास्यभाव का यह स्वरूप उनकी आँखों से कभी ओझल नहीं हो पाता । इसलिए पूर्ण आत्मोसर्ग करके भी तुलसी मर्यादा के बंधन में बँधे हैं ।
वास्तव में, विनय-पत्रिका तुलसीदास की भक्तिभावना की चरम परिणति है । अतएव भक्तजन इसे तुलसी के भक्तिसिद्धांत का ‘ब्रह्मसूत्र’ मानते हैं ।
दार्शनिक आयाम
विनय-पत्रिका में गोस्वामी जी की दार्शनिक प्रौढ़ता का निदर्शन भी मिलता है, किन्तु यह भक्तिदर्शन का अंग होकर ही प्रायः अभिव्यक्त हुआ है । उदाहरण के लिए -
केसव ! कहि न जाइ का कहिये ।
देखत तब रचना विचित्र हरि ! समुझि मनहिं मन रहिये ।। 1 ।।
सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे ।
धोये मिटै न मरे भीति दुख, पाइय इहि तनु हेरे ।। 2 ।।
कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै ।
तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ।। 4 ।।
(विनय-पत्रिका 111)
इसमें मायावाद आदि सभी दार्शनिक मतों को अपूर्ण कहकर केवल उनके द्वारा आत्मानुभूति असम्भव कही गई है । ऐसा प्रतीत होता है कि गोस्वामी जी किसी भी मत को बिल्कुल असत्य नहीं मानते हैं लेकिन उन्हें पूर्ण सत्य भी नहीं मानते हैं । उनके अनुसार, किसी एक को पूर्ण सत्य मानकर दूसरे मतों की उपेक्षा करने से सच्ची तत्वदृष्टि नहीं प्राप्त हो सकती । वास्तव में, इन भ्रमों से वही छुटकारा पा सकता है, वही वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है जो सब कुछ श्री हरि की लीला ही मानता है ।
तुलसीदास ने यथावसर भिन्न-भिन्न मतों से वैराग्य की पुष्ट के लिए सहारा लिया है । जैसे, निम्न पद में स्कार्यवाद और अद्वैतवाद का मिश्रण-सा दिखाई पड़ता है –
जौ निज मन परिहो बिकारा ।
तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख, संसय, सोक अपारा ।। 1 ।।
बिटप मध्य पुतरिका, सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये ।
मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये ।। 4 ।। (विनय-पत्रिका
124)
इसी प्रकार संसार की असारता के सम्बन्ध में वे कहते हैं –
मैं तोहिं अब जान्यो संसार ।
बाँधि न सकहि मोहि हरिके बल, प्रगट कपट-आगार ।। 1 ।।
देखत ही कमनीय, कछु नाहिंन पुनि किए बिचार ।
ज्यों कदलीतरू-मध्य निहारत, कबहुँ न निकसत सार ।। 2 ।। (विनय-पत्रिका
188)
कुल मिलाकर, मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के अन्तिम दौर के कवि गोस्वामी तुलसीदास की विनय-पत्रिका भक्तिरस और ज्ञान के नाना रसों से भरी हुई है और हिन्दी के भक्ति साहित्य का एक अनमोल रत्न है ।
अवधेश कुमार सिन्हा
हैदराबाद