कादम्बिनी क्लब, हैदराबाद

दक्षिण भारत के हिन्दीतर क्षेत्र में विगत २ दशक से हिन्दी साहित्य के संरक्षण व संवर्धन में जुटी संस्था. विगत २२ वर्षों से निरन्तर मासिक गोष्ठियों का आयोजन. ३०० से अधिक मासिक गोष्ठियाँ संपन्न एवं क्रम निरन्तर जारी...
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Thursday 22 December 2016

अदम गोंडवी - आकाश को चुनौती देता ज़मीन का आदमी


धरती की सतह परपैर जमाकर समय से मुठभेड़ करने वाले जिस शख़्स ने दुष्यन्त की हिन्दी ग़ज़लों की परम्परा को एक ऐसे मुकाम तक पहुँचाने की कोशिश की जहाँ से एक-एक चीज ब़गैर किसी धुंधलके के पहचानी जा सके, उनका नाम रामनाथ सिंह है । मुशायरों में, घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान जिसकी ओर किसी का ध्यान ही न गया हो, अचानक माइक पर आ जाए और ऐसी रचनाएं पढ़े कि आपका ध्यान और कहीं जाए ही नहीं, तो समझिए, वो इंसान कोई और नहीं, रामनाथ सिंह है । इन्हीं रामनाथ सिंह को साहित्य जगत अदम गोंडवी के नाम से जानता है । उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के आटा गाँव में 22 अक्टूबर, 1947 को एक ठाकुर किसान परिवार में जन्मे और 18 दिसम्बर, 2011 को दुनिया को अलविदा कह गये । गोंडवी जी की तीन ग़ज़ल संग्रह धरती की सतह पर (1987), गर्म रोटी की महक (2000) और समय से मुठभेड़ (2010) प्रकाशित हैं लेकिन मात्र ये तीन कृतियां ही आज हिन्दी ग़ज़लों के आकाश में उन्हें एक चमकता हुआ नक्षत्र की तरह स्थापित करने के लिए पर्याप्त है ।


          अदम जी कबीर परम्परा के कवि हैं, यानि औपचारिक शिक्षा की बड़ी-बड़ी डिग्रियां नहीं होते हुए भी वे देश, काल, मिट्टी की बातों को बिना किसी लाग-लपेट के जीवन के अपने अकृत्रिम अनुभवों से सीधे, सच्चे शब्दों में व्यक्त करने की अद्भुत योग्यता रखते हैं । अपने एहसास को पका कर उसे कविता में ढालने की विलक्षण क्षमता रखते हैं -


                             याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार

                             होती है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की

पर, कबीर और अदम में थोड़ा अंतर यह है कि जहां कबीर ने कागज-कलम नहीं पकड़ा, अदम ने कागज-कलम छुआ पर उतना ही जितना किसान ठाकुर के लिए जरूरी था ।  


          माना जाता है कि दुष्यन्त ने अपनी ग़ज़लों से शायरी की जिस राजनीति की शुरूआत की थी, अदम गोंडवी ने उसे एक नई ऊँचाई तक ले जाने की कोशिश की –


                             जो  उलझ  कर  रह  गयी  है  फाइलों के जाल में

                             गाँव  तक  वह  रोशनी  आएगी  कितने  साल में

                            

                             जिनके चेहरे पर लिखी थी जेल की ऊँची फ़सील

                             रामनामी  ओढ़कर  संसद  के   अन्दर      गये

                            

देखना,  सुनना    सच  कहना  जिन्हें भाता नहीं

                             कुर्सियों  पर  फिर  वही  बापू के बन्दर के आ गए


लेकिन अदम नई पीढ़ी से धूमिल की विरासत को बचाये रखने की गुज़ारिश करते हैं –

                             अदीबों  की  नई  पीढ़ी  से  मेरी  ये  गुज़ारिश    है

                             सँजो कर रक्खें धूमिल की विरासत को क़रीने से


          गोंडवी शहरी शायर के शालीन और सुसंस्कृत लहजे में बोलने के बजाय, महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई से हटकर ठेठ गंवई अंदाज में दो टूकपन और बेतकल्लुफ़ी से काम लाते हैं । उनके कथन में प्रत्यक्षता, आक्रामकता और तड़प से भरी हुई व्यंग्मयता है । वस्तुतः उनकी ग़ज़लें अपने ज़माने के लोगों से ठोस धरती की सतह पर लौट आने का आग्रह करती हैं –

                             ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में

                             मुसल्सल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में



                            

अदीबों  ठोस  धरती  की सतह पर लौट भी आओ

                             मुलम्मे  के  सिवा  क्या  है  फ़लक  के चाँद तारों में



इसी क्रम में आजकल के बूर्जुआ एवं तथाकथित बुद्धिजीवी साहित्कारों पर तंज कसते हुए अदम कहते हैं –

                             गंगाजल  अब  बूर्जुआ तहज़ीब की पहचान है

                             तिश्नगी को वोदका के आचमन तक ले चलो



                             प्रेमचन्द की रचनाओं को एक सिरे से ख़ारिज करके

                             ये ओशो के अनुयायी हैं, कामसूत्र पर भाष लिखेंगे



                             एक अलग ही छवि बनती है परम्परा भंजक होने से

                             तुलसी इनके लिए विधर्मी, देरिदा को खास लिखेंगे


ऐसे साहित्यकारों से इतर गोंडवी मानवता का, अपने कालखंड का एक नया इतिहास लिखने की बात करते हैं –

                             मानवता  का  दर्द  लिखेंगे, माटी  की  बू-बास लिखेंगे

                             हम अपने इस कालखंड का एक नया इतिहास लिखेंगे

                            

                             सदियों  से  जो  रहे  उपेक्षित श्रीमन्तों के हरम सजाकर

                             उन  दलितों  की  करूण  कहानी मुद्रा से रैदास लिखेंगे


          दरअसल, अदम की शायरी में अवाम बसता है, उसके सुख दुःख बसते हैं, शोषित और शोषण करने वाले बसते हैं । उनकी शायरी न तो हमें वाह करने का अवसर देती है और न आह भरने की मजबूरी परोसती है । सीधे, सच्चे दिल से कही उनकी शायरी सीधे सादे लोगों के दिलों में बस जाती है –

                             बेचता  यूँ  ही  नहीं  है  आदमी  इंसान  को

                             भूख  ले  जाती  है  ऐसे  मोड़  पर इंसान को



                             सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए

                             गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़ान को



                             शबनमी  होठों  की  गर्मी  दे न पाएगी सुकून

                             पेट  के  भूगोल  में  उलझे  हुए  इंसान    को


          गोंडवी जी की शायरी में आम जनता की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य, धार लगा व्यंग्य मिसरे-मिसरे में मौजूद है -

                             काजू  भुने  प्लेट  में  व्हिस्की गिलास में

                             उतरा  है  रामराज  विधायक  निवास  में



                             पक्के  समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत

                             इतना असर है खादी के उजले लिवास में



नेताओं द्वारा जनता के शोषण, व्यवस्था की विसंगतियों की इंतहा को ख़त्म करने का एकमात्र विकल्प बताते हुए गोंडवी कहते हैं –

                             जनता के पास एक ही चारा है बग़ावत

                             यह बात कह रहा हूँ मैं होशो हवास में


          अदम अपनी सांस्कृतिक विरासत को स्वर्णिम मानने से इन्कार करते हैं क्योंकि इसमें निम्न जातियों, वंचितों के शोषण का इतिहास मिलता है –

                   आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत

                   वो  कहानी  है  महज़  प्रतिरोध  की, संत्रास की

                            

वेद  में  जिनका  हवाला  हाशिये  पर  भी  नहीं

                             वे  अभागे  आस्था  विश्वास  लेकर  क्या   करें



                             लोकरंजन  हो  जहां  शम्बूक-वध  की  आड़ में

                             उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें



                             कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास

                             त्रासदी,  कुंठा,  घुटन,  संत्रास  लेकर  क्या   करें


          सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पक्षधर यह मानते हैं कि भारत हिन्दुओं का देश है और मुस्लिम समुदाय के लोग बाहर से आकर यहाँ बस गये । लेकिन अदम का मानना है कि बहुसंख्यक हिन्दू भी पूरी तरह से इसी धरती के नहीं हैं वरन् सदियों पूर्व बाहर से आये विदेशी आक्रन्ताओं की मिली-जुली कौम है -

                             हममें  कोई  हूण,  कोई  शक,  कोई मंगोल है

                             दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये


इसलिए गोंडवी दोनों कौमों के बीच नफरत फैलाने वाले नेताओं को कहते हैं –

                             हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये

                             अपनी कुरसी के लिए जज़्बात को मत   छेड़िये



                             ग़र गलतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले

                             ऐसे  नाजुक  वक्त  में  हालात  को  मत  छेड़िये

अदम चाहते हैं –

                             छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़

                             दोस्त,  मेरे  मज़हबी  नग्मात  को  मत    छेड़िये


          ग्रामीण परिवेश में पले बढ़े सीधे सच्चे अदम गोंडवी महानगरीय तथाकथित बुद्धिजीवियों के खोखलेपन से अलग एक नये अंदाज़ में अपने अकलुष दिल की गहराइयों से बेलौस दोटूक शब्दों में सदियों से शोषितों, उपेक्षितों के प्रति हो रहे अन्याय के ख़िलाफ लगातार आवाज़ उठाते रहे, नेताओं के दोहरे चरित्र को बेनक़ाब करते रहे, भूखे, मुफ़लिसों की रहनुमाई करते हुए उनके एहसासों को अपनी ग़ज़लों में महसूस करते रहे –


                             भूख  के  एहसास  को  शेरो-सुख़न  तक ले चलो

                             या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

और अंत में कहते गये -

                            

अवधेश कुमार सिन्हा

हैदराबाद


Wednesday 21 December 2016

कादम्बिनी क्लब की संगोष्ठी एवं पुस्तक लोकार्पण आयोजित


कादम्बिनी क्लब हैदराबाद के तत्वावधान में रविवार दि० 18 दिसम्बर मध्यान्ह 12 बजे से राजा कृष्ण देव राय सभागार में क्लब की 293वी मासिक गोष्ठी के अंतर्गत स्व० अदम गोंडवी (सुप्रसिद्ध कवि-गज़लकार) की पुण्यतिथि पर चर्चा सत्र एवं साहित्यकार सुनंदा जमदग्नी कृत उपन्यास ‘स्वयंसिद्धा’ का लोकार्पण समारोह डा० सी० वसंता की अध्यक्षता में संपन्न हुआ.


प्रेस विज्ञप्ति में डा० अहिल्या मिश्र (क्लब अध्यक्षा एवं संयोजिका)  एवं मीना मुथा (कार्यकारी संयोजिका) ने बताया कि इस अवसर पर रमेश अग्रवाल (समाजसेवी) मुख्य अतिथि, सुरेश जैन (साहित्यकार कवि) सम्माननीय अतिथि, डा० रमा द्विवेदी (पुस्तक परिचय प्रस्तोता), लेखिका सुनंदा जमदग्नी, डा० अहिल्या मिश्र मंचासीन हुए. शुभ्रा महन्तो द्वारा सुमधुर स्वर में सरस्वती वंदना से सत्र का आरम्भ हुआ. मंचासीन महानुभावों के करकमलों से दीप प्रज्वलन किया गया. डा० मिश्र ने स्वागत भाषण में कहा कि संस्था की नियमित गोष्ठी में सदस्यों की नियमित उपस्थिति ही हमारी प्रेरणा है. नवांकुरों के लिए मंच प्रदान करना एवं साहित्यकारों से नई पीढ़ी को परिचित कराने के लिए संस्था संकल्पित है.


संगोष्ठी संयोजक अवधेश कुमार सिन्हा ने अदम गोंडवी एवं उनके साहित्य पर अपनी बात रखते हुए कहा कि अदम गोंडवी का मूल नाम रामनाथ सिंह था, वे उ० प्र० के गोंडा जिले के आटा गाँव के निवासी थे. अदम का जन्म 22 अक्तूबर 1947 को ठाकुर किसान परिवार में हुआ तथा 18 दिसम्बर 2011 को उनकी जीवनयात्रा में पूर्ण विराम आ गया. स्कूली शिक्षा अधिक न होते हुआ भी जीवन के अनुभवों को सीधे सच्चे शब्दों में व्यक्त करने की अद्भुत योग्यता वो रखते थे. उनके कथन में विद्रोह, आक्रामकता और व्यंग प्रमुख रहा. “जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में, गाँव तक वो रौशनी आएगी कितने साल में”, “मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे, हम अपने इस कालखंड का, एक नया इतिहास लिखेंगे”. इन जैसी कई अनेक रचनाओं में उन्होंने वंचित और शोषित ग्रामीणों की पीड़ा को आवाज़ दी.


मंत्री प्रवीण प्रणव ने अदमजी के सन्दर्भ में कहा कि उन्हें छन्द या बहर की जानकारी नहीं थी, पुस्तकालय से मांग कर उन्होंने पुस्तकें पढ़ी और आस पास के परिवेश ने उन्हें लिखना सिखाया. आरंभ में कुछ कविताएँ लिखने के बाद उन्होंने ग़ज़ल को अपनी लेखन शैली के लिए चुना. “चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें, चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को” ऐसी रचना गरीबों के प्रति उनके दर्द को प्रदर्शित करती है. उनकी रचनाओं में असहमति का स्वर सबसे प्रमुख है. जहाँ कहीं भी उन्हें वंचितों के खिलाफ कुछ लगा उन्होंने आवाज़ उठाई. उनके ही शब्दों में “’इसी असहमति को स्वर देने के लिए तो मैं मंच पर आया, अन्यथा स्वान्तः सुखाय ही क्यों न रह जाता ?


डा० अहिल्या मिश्र में अपने वक्तव्य में कहा कि स्पष्टवादिता के लिए जाने जाते अदम ने हमेशा ज़मीनी हालातों का चित्रण अपनी ग़ज़लों में किया जो आम आदमी के दिल को छू जाता है. सर्वधर्म समभाव में विश्वास रखते हुए वे कहते हैं “हिन्दू या मुस्लिम के एहसासात को मत छेड़िए,  अपनी कुर्सी के लिए ज़ज्बात को मत छेड़िए.” आज यह चर्चा सत्र सार्थक श्रद्धांजलि है अदम गोंडवी को कादम्बिनी क्लब हैदराबाद की ओर से.

तत्पश्चात मंचासीन अतिथियों का संयोजिका सुनंदा जमदग्नी व परिवार की ओर से सम्मान किया गया. इसी कड़ी में क्लब की ओर से तथा सी० वसंता की ओर से सुनन्दाजी का सम्मान किया गया. व्यवस्था में सरिता सुराणा, मंगला अभ्यंकर ने सहयोग दिया. सुनंदा जमदग्नी कृत उपन्यास ‘स्वयंसिद्धा’ का परिचय देते हुए डा० रमा द्विवेदी ने कहा कि इस किताब को लघु उपन्यास कह सकते हैं. बाल विवाह एवं बाल विधवा इस ज्वलंत प्रश्न के इर्द गिर्द कहानी का ताना बाना बुना गया है. लड़की के विधवा होते ही उसका मुंडन कर दिया जाता है, सफ़ेद साड़ी उसकी ज़िंदगी बन जाती है, खाना भी एक वक्त का दिया जाता है और वह भी रूखा सूखा. लेखिका ने हिन्दू, मुस्लिम, इसाई धर्म का पारिवारिक परिवेश चित्रित किया है जो दर्शाता है कि मनुष्य की संवेदना है तो वह किसी की भी मदद कर सकता है. कहानी चलचित्र की भांति है. स्त्री का जीवन अपने घर में भी सुरक्षित नहीं है, ऐसे हालात में बाल विधवा का मुंडन कर उसे विद्रूप दशा में रहने के लिए बाध्य कर दिया जाता है. समाज को ऐसी सोच से मुक्ति पानी होगी यह संकल्प नायिका मालती लेती है. लेखिका ने स्त्री प्रश्नों पर चिंतन किया है, उन्हें साधुवाद. डा० अहिल्या मिश्र ने कहा कि यह त्रासदी सदैव नारी के साथ बनी रही. जो स्त्री मातृत्व का भार वहन कर पूरे परिवार की गृह स्वामिनी बनती है उसके वैधव्य के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहराया जाता है. पुरुष प्रधान समाज, नियमों की आड़ में स्त्री की प्रगति और उत्थान को सहजता से स्वीकार नहीं करता. नारी आज भी प्रताड़ित हो रही है. सुनन्दाजी इसी तरह नारी समस्याओं पर चिंतन मंथन कर लेखन को आगे बढाएं यही शुभकामना है. सुरेश जैन, रमेश अग्रवाल ने भी उन्हें बधाई दी. रमेश अग्रवाल व मंचासीन अतिथियों के करकमलों से ‘स्वयंसिद्धा’ का लोकार्पण हुआ. डा० सी० वसंता ने पुस्तक समीक्षा में कहा कि ‘स्वयंसिद्धा’ में क्रांतिपथ पर चलने वाले पात्रों का सृजन हुआ है. स्त्री केवल लता बन कर न रहे, वह पेड़ बने, कुप्रथाओं का समूल नष्ट करे, यही इस उपन्यास का सन्देश है. लेखिका सुनंदा जमदग्नी ने अपने विचार रखते हुए कहा कि वाचनालय चलाते समय कई महिला पाठकों ने अपनी समस्याएँ मुझसे साझा की. भारतीय संस्कृति में नारी को सर्वोच्च स्थान दिया गया है पर हकीकत में नारी की दशा-दिशा कुछ और ही है. उसी पीड़ा को ‘स्वयंसिद्धा’ में आपके समक्ष रखा है. प्रथम सत्र का आभार सचिव देवाप्रसाद मायला ने व्यक्त किया एवं संचालन मीना मुथा ने किया.


दूसरे सत्र में भंवरलाल उपाध्याय के संचालन में कविगोष्ठी संपन्न हुई. लक्ष्मीकांत जोशी, के. एस. जैन, आर. जी. बरडिया, नीरज कुमार मंचासीन हुए. नोटबंदी, भ्रष्टाचार, नारी समस्याओं आदि विषयों पर शशि राय, सुषमा पाण्डेय, दर्शन सिंह, डा० सीता मिश्र, डा० रमा द्विवेदी, मंगला अभ्यंकर, सरिता सुराणा, जी. परमेश्वर, सुरेश जैन, सत्यनारायण काकड़ा, उमा सोनी, सूरजप्रसाद सोनी, शिवकुमार तिवारी कोहिर, प्रवीण प्रणव, मल्लिकार्जुन, सुनीता लुल्ला, सी. जयश्री, सुषमा वैद्य, जुगल बंग जुगल, के. एस. जैन आदि ने काव्य पाठ किया. नीरज कुमार ने दोनों सत्रों की सफलता पर हर्ष व्यक्त किया. मधुकर, भूपेन्द्र मिश्र, संतोष जमदग्नी, आनंद डी., डा० कुलकर्णी आदि की उपस्थिति रही. कार्यक्रम संयोजिका सुनंदा जमदग्नी ने सभी की उपस्थिति के प्रति आभार जताया. डा० मिश्र ने कहा कि अगले माह साहित्यकारों की श्रेणी में महाश्वेता जी पर चर्चा सत्र रहेगा. मीना मुथा के धन्यवाद ज्ञापन से गोष्ठी का समापन हुआ.                                          

Friday 23 September 2016

पत्रों के आईने में दिनकर - प्रवीण प्रणव

23 सितंबर 1908 को बिहार के मुंगेर ज़िले के सिमरिया गाँव में जन्मे रामधारी सिंह ‘दिनकर’ उस दौर के कवि हैं जब हिन्दी काव्य जगत् से छायावाद का युग समाप्त हो रहा था। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।
पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये। १९३४ से १९४७ तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। १९५० से १९५२ तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने।

स्वतंत्रता से पहले  दिनकर सरकारी मुलाज़िम थे. पर उनकी रचनाओं में राष्ट्र भक्ति कूट कूट कर भरी थी. उन दिनों रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया।
उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी  के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार  प्रदान किया गया।

द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि दिनकरजी गैर-हिंदीभाषियों के बीच हिन्दी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे और अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे।

हरिवंश राय बच्चन ने कहा कि दिनकरजी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिये अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये।

रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा कि दिनकरजी ने देश में क्रान्तिकारी आन्दोलन को स्वर दिया।

नामवर सिंह ने कहा कि दिनकरजी अपने युग के सचमुच सूर्य थे।

प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने कहा कि दिनकरजी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया।

मिट्टी की ओर’, ‘अर्ध्दनारीश्वर’, ‘रेती के फूल’, ‘वेणुवन’, ‘साहित्यमुखी’, ‘काव्य की भूमिका’, ‘प्रसाद, पंत और मैथिलीशरण गुप्त’ तथा ‘संस्कृति के चार अध्याय’ आपके गद्य ग्रंथ हैं।

रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘रसवंती’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘रश्मिरथी’, ‘परशुराम की प्रतिज्ञा’, ‘हारे को हरिनाम’ और ‘उर्वशी’ दिनकर जी के काव्य संकलन हैं।


4 अप्रेल सन् 1974 को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ये नश्वर देह छोड़कर चले गए।अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे।

पत्रों के आईने में दिनकर

पुस्तक या लेख ये सोच कर ही लिखे जाते हैं कि ये लोगों तक पहुंचेंगे और लोग उस पर अपनी प्रतिक्रियाएं देंगे. अतः लेखक इन्हें लिखते समय सावधान रहता है. कोशिश होती है कि अपने मन के भाव खासकर वैसे भाव, जो जनप्रिय न हों, न लिखे जाएँ. डायरी में भी संतुलित बातें ही लिखी जाती हैं क्यूंकि कहीं न कहीं जेहन में ये बात रहती है कि कोई इन्हें पढ़ेगा और फिर क्या सोचेगा. पत्रों के बारे में ऐसी कोई समस्या नहीं है. पत्रों की अमूनन कोई प्रति बना कर नहीं रखी जाती, अगर सरकारी पत्राचार न हों तो. तो दिनकर को परखने के लिए उनके पत्रों से बेहतर विकल्प और क्या होगा.
दिनकरजी के द्वारा लिखे गए पत्रों तो कई श्रेणियों में बांटा जा सकता है. पत्र जहां उन्होंने अपने परिवार और व्यक्तिगत जीवन की बात की, या पत्र जो उन्होंने अपने मित्रों तो लिखे, या पत्र जिसमे उनके यात्रा विवरण हैं पर यहाँ हम उन कुछ चुनिन्दा पत्रों की बात करेंगे जो उन्होंने साहित्य से सम्बंधित बातों पर लिखा.

डा० शिवमंगल सिंह सुमन को लिखा गया पत्र – 27-10-53
हिंदी कविता की प्रगति अवरुद्ध है. हर 12 साल के बाद नए क्षितिज का निर्माण होना चाहिए, आशा के विरुद्ध दिशा से किसी कवि को उतरना चाहिए. मैं चाहता हूं कि तुम अपने आप से एक प्रश्न करो कि तुमने अपने हिस्से के नए क्षितिज का निर्माण कर लिया या वह काम अभी बाकी है. मेरे ख्याल से तुम्हारा क्षितिज अभी तक पूर्ण रूप से उभर कर सामने नहीं आया है.
और कवि की संकीर्णता की वृद्धि कवि सम्मेलनों में होती है, यह तुम जान लो. हम सभी लोगों को भागना चाहिए इन सम्मेलनों से. मैं तो कोशिश करके हार गया मगर कवि सम्मेलनों से छुटकारा नहीं मिलता. बेबसी है. फिर भी जिस सत्य को अनुभव करता हूं वह तुम्हे बता रहा हूं. मैं तुम्हारा गुरु नहीं, अग्रज नहीं, एक पीठ का भाई हूं, इसलिए हर बात कह सकता हूं और तुम्हें भी यही अधिकार देता हूं.
बक गया हूं जुनूं में क्या क्या कुछ, कुछ न समझे खुदा करे कोई  
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उन्होंने कई रचनाओं पर अपनी बेबाक राय रखी और बेहतरी के सुझाव भी दिए. 
श्री लक्ष्मीकांत शर्मा  ‘मुकुर’ को पत्र – 11-11-41

प्रिय  मुकुर
तुमने जो कविताएं मुझे दिखलाई थी उनमे छंदो भंग और यतिभंग  के दोष हैं.  यह दोष ऐसे होते हैं जिन्हें  रचयिता को स्वमेव  दूर करना चाहिए. तुम जिस छन्द  में कविता लिखना चाहते हो उसी छंद की कोई कविता कई बार पढ़ो और उसकी लय अपने कंठ में उतार लो. इसके बाद गा गा कर कविता लिखो और अपनी हर पंक्ति को कंठाग्र छंद की लय से मिलाते चलो. जहां छंद की लय का साम्य न  होगा वहां यतिभंग होगा. छंद का अभ्यस्त कर्ण कह देगा कि अमुक स्थल पर यति भंग है.

खूब पढ़ो. कवि के लिए कोई भी विषय वर्जनीय नहीं है. वह यदि गणितज्ञ हो तो सोने में सुगंध होगी.

जहां रचनाएं उन्हें पसंद आईं, वहां जी भर के तारीफ़ भी की 

श्री रामसिंहासन सहाय ‘मधुर’ तो पत्र – 10-9-48

मैं तो आपकी हाल की कविताओं पर दंग हूं. सच पूछिए तो यह कविताएं मेरी अपनी मनोदशा को ही व्यंजित करती हैं और जी चाहता है कि काश इनमें से कई के नीचे रचयिता की जगह मेरा नाम होता. इन्हें कई मित्रों को सुना चुका हूं. कल शाम को पूरी कॉपी जयप्रकाश जी के यहां ले गया था और उन्हें तथा अन्य मित्रों को कोई 15 कविताएं सुनाई. सभी लोग बड़े ही चमत्कृत हुए.

डा० कृष्णबिहारी सहल को पत्र – 22-1-70

‘अहं और आत्मबोध’ की कवितायेँ एक बार में पढ़ गया. कविता वह, जिसे ख़त्म करके जी करे कि फिर पढूं और कहानी वह, जिसे ख़त्म करके जिज्ञासा हो कि आगे क्या हुआ. आपकी कवितायेँ पढ़ कर जी चाहता है उन्हें फिर से पढूं. यह आपकी सफलता है.


दिनकर अपनी आलोचनाओं से कभी विचलित नहीं हुए, उन्होंने इसे सराहा ही और ये उनके विभिन्न पत्रों से साबित होता है.

आचार्य कपिल को पत्र - 31-8 -51

अभी-अभी हुंकार आया है. उसमें प्रभात जी ने बड़ी उल-जुलूल बातें लिखी हैं. अब आपके शत्रु और भी बढ़ेंगे.  निराला जी ने कहा है

यह हिंदी का स्नेहोपहार 

तो ये सारे उपहार लेने पड़ेंगे. बंधुओं की दलील है ग्रुप में रहो नहीं तो चैन से लिखने नहीं देंगे. दुर्भाग्यवश 2, 3 आदमी भी ऐसे नहीं हैं जिन्हें मैं  अपनी गुट का कह सकूं. अगर मेरी कोई गुट है तो उसका एकमात्र सदस्य मैं ही हूँ.

आचार्य कपिल को पत्र - 29 – 1 – 51

कामेश्वर फूले फले और बढ़ें यह मेरी कामना पहले भी थी और अब भी है .उन्हें मैं यह भी छूट देता हूं कि वह दिनकर काव्य के विरोधी के रूप में अपना विकास करें और उन्हें बुरा ना लगे तो मेरे साथ एक थाली में बैठकर भोजन भी करें, मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी. किंतु उन्हें और प्रत्येक लेखक को चाहिए कि वस्तुस्थिति को देख कर बोले और लिखें, जिससे किसी की पद मर्यादा को अनुचित जर्ब नहीं पहुंचे. पटना में एक साहित्यिक षड्यंत्र चल रहा है जिसका केंद्र यह कल्पित बात है कि दिनकर बिहार के सभी साहित्यकों का बाधक है और कुछ लोगों के खिलाफ तो उसकी फौज खड़ी रहती है. जब उमा मुझ पर आक्रमण करें, बेनीपुरी मुझ पर चोट करें, प्रदीप मेरे विरुद्ध लेख छापे और कामेश्वर मेरे विरुद्ध लिखे तब लोग न जाने किसे मेरी फौज का आदमी समझते हैं. मुझे लगता है रामेश्वर जी इस भ्रम में है कि दिनकर का विरोध करने से निष्पक्ष आलोचक के रूप में वे पूजे जायेंगे. इसे तो मैं घोर भ्रम समझता हूं और जिस निर्णय पर मैं 15 वर्षों के बाद पहुंचा हूं उस पर वह भी कभी ना कभी आएंगे. कुरुक्षेत्र के विरुद्ध चाहे तो वो एक लेखमाला आरम्भ कर दें, जिसके लिए स्थान में ‘राष्ट्रवाणी’ में ही दिलवा दूंगा. मगर ईश्वर के नाम पर वे भाषा में शिष्टता लाएं और कोई ऐसा काम ना करें जिससे उन्हें बाद को चलकर लज्जित होना पड़े.

मैंने उन्हें आत्मीय समझा है इसीलिए ये बातें लिख रहा हूँ. प्रेमी भी परस्पर एक दूसरे की आलोचना कर सकते हैं किन्तु ऐसी भाषा में नहीं जिससे जग हंसाई हो. मैंने जीवन भर में किसी आलोचक के लिए कोई पत्र नहीं लिखा था, यह पहला पत्र है. साहित्य में विचार स्वातंत्र्य रहना चाहिए मगर गाली-गलौज या मुंह चिढ़ाना विचार स्वातंत्र्य नहीं है.

श्री बनारसीदास चतुर्वेदी को पत्र – 6-1-36
अपने मित्रों में मैं जरा इमोशनल कहलाता हूं इसीलिए लोग मुझे ऐसी बात कहने या ऐसी चीज दिखाने से डरते हैं जिससे मुझे दुख होने की संभावना हो. अभी हाल ही में मैं शिवपूजन जी से मिला था. तब तक साप्ताहिक विश्वमित्र में निर्झरिणी की निंदा छप चुकी थी. शिवपूजन जी ने मुझे वह लेख देखने नहीं दिया. कहने लगे जब लोग तुम्हारी निंदा खुलकर करने लगे तब तुम समझो कि तुम्हारी लेखनी सफल हुई. इसे तो मैं अपना सौभाग्य ही समझता हूं कि भाव, कुभाव, अनख, आलसहूँ ‘रेणुका’ का नाम दस भले लोगों के मुंह पर आ जाता है.

आप विश्वास रखें आप पूज्यों की कृपा से मुझ में इतनी ताकत जरूर है कि अखबारों में रोज निकलने वाली पंक्तियां मुझे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती. कोई प्रशंसा ऐसी नहीं जो मुझे याद रहे, कोई निंदा ऐसी नहीं जो मुझे उभार दे.  नास्ति का परिणाम नास्ति है. कुछ नहीं से कुछ की उत्पत्ति नहीं हो सकती.

मैं रेणुका के दोषों को भली भांति जानता हूं. उसमें कलाविदों को पद पद पर अनुभवहीनता, इमैच्युरीटी  और कहीं-कहीं भाषा संबंधी कमजोरियां मिलेंगी. कीट्स के शब्दों में It is a foolish attempt, rather than a deed accomplished.

मैं जो कुछ चाहता हूं जो कुछ सोचता हूं उसे ठीक मनचाहे रूप में अब तक उभार नहीं सका हूं. इस चेष्टा का एक अस्पष्ट रुप मेरी आंखों के सामने बराबर टंगा रहता है. इधर मुझे ऐसा जान पड़ता है की शुद्ध भाषा लिखने की ट्रेनिंग मुझे और लेनी चाहिए. भरसक कोशिश कर रहा हूं. कविताएं शिवपूजन जी से दिखाकर छपाया करूंगा. आप इस विचार को कैसा समझते हैं ? मेरे विचार से शिवपूजन जी की जैसी चार्टर्ड हिंदी लिखने वाला विरला ही होगा.

लेखक के रूप में दिनकरजी सदा पाठकों की तरफ से सोचते रहे. उनके कुछ पत्र इशारा करते हैं की किस तरह उन्होंने छोटी छोटी बातों का ख्याल रखा.

आचार्य शिवपूजन सहाय को पत्र – 15-8-38

छपाई के विषय में आप और महारथी जी हैं ही, मुझे कुछ करना नहीं रह जाता.  तो भी आवरण पर का चित्र कुछ स्थूल है. उजले या हल्के रंग के आवरण पर रेखाचित्र रहता तो अधिक सुंदर होता. क्या इसका आकार छोटा नहीं किया जा सकता? दाम दो रुपए रख रहे हैं तो पृष्ठ संख्या कम से कम 150 होनी चाहिए और कागज भी ऐसा होना चाहिए कि ₹2 के लायक हो. आकार भी भारी भरकम हो. छपाई को घनी रखना अच्छा नहीं लगता उसे अधिक पतली कर दीजिएगा 

आचार्य कपिल को उनकी पत्रिका ‘प्राची’ के सम्बन्ध में पत्र – 24-4-51

आवरण पर से आप मिट्टी के छोटे माधव को हटा ही दें. भीतर संकलन और संपादन में जो गांभीर्य है उसके अनुरूप ऊपर का आवरण सादा ही रहना चाहिए अथवा हल्की रेखाओं में कोई छोटा स्केच रहे तो ठीक है. आपका उद्देश्य कदाचित यह है कि शिक्षण संस्थाओं में जो प्रश्न और समस्याएं हैं डटकर उन्हीं पर प्रकाश डाला जाए. यह एक उपयोगी काम है मगर स्टैंडर्ड को जरा ऊपर ले जाइए तथा इस प्रकार की समस्याओं पर भी लेख लिखवाईए जैसे
१.     छायावाद का जन्म कब हुआ तथा उसके आदि कवि कौन है?
२.      नई कविता हिंदी की परंपरा में आई है अथवा आकस्मिक रुप से?
३.      हिंदी गद्य के क्षेत्र में उस नेतृत्व को प्रधानता मिलनी चाहिए जो बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त तथा गुलेरी जी के द्वारा दिया गया अथवा उसे जो रामचंद्र शुक्ल एवं प्रसाद की देन है.
४.      यह बात कहां तक ठीक है कि उर्दू में से फारसी और अरबी शब्दों को हटा कर हिंदी बना दी गई है?
५.      रसवादी आलोचना पद्धति में क्या संशोधन किया जाए की वह आधुनिक साहित्य की व्याख्या में सफल हो?
६.      रीतिकालीन साहित्य का मूल्यांकन, नई समीक्षा की कसौटी पर
७.     भाषा सम्बन्धी दुष्प्रयोगों पर रोक लगाने के लिए आंदोलन       

साहित्य जगत में इतना बड़ा नाम होने के बाद भी, दिनकरजी स्वभाव से सरल रहे.

संपादक – धर्मयुग 1972 

सेक्सपियर ने तीन तरह के बड़ों का उल्लेख किया है. एक वह जो बड़ा पैदा होता है, दूसरा वह जो बड़प्पन हासिल करता है और तीसरा वह जिसपर बड़प्पन  थोप दिया जाता है. एक चौथा व्यक्ति भी हो सकता है जो बड़े वंश का होने के कारण  या साधन संपन्न होने के कारण बड़प्पन को दबोच लेता है.  अपने जानते मैं इनमें से किसी भी कोटि में नहीं आता हूं असल में मैं महान-टहान  हूं ही नहीं. मैं तो मामूली गृहस्त हूं जो नौकरियां करके अपना और अपने परिवार का पेट पालता रहा है और वंश में जन्मी कन्याओं का विवाह रचवाता  रहा है. कुरुक्षेत्र और उर्वशी की रचना मेरी असली उपलब्धि नहीं है. मेरी वास्तविक उपलब्धि यह है कि परिवार के शकट को हाँफ- हाँफ कर खींचते हुए मैंने 9 लड़कियों के ब्याह रचवाएं हैं, अगर यह मेरी महत्ता है तो मैं उसे स्वीकार करता हूं.

श्री राजेन्द्र प्रसाद सिंह को पत्र – 10-2-70

1964 में जब मुझे सब रजिस्ट्रार का ऑफर आया, बेनीपुरी ने सलाह दी कि कुबूल मत करो. सरकारी नौकरी में जाकर अपने कवि की हत्या ही करोगे. यह बहुत ही नेक सलाह थी. लेकिन मैं उस पर चल नहीं सका.  सारी जिंदगी परिवार की गरीबी से जूझने में बीत गई. जिस समय लोग ताश और बैडमिंटन खेलते हैं, उस समय को भी मैंने साहित्य में लगाया. बस इतना ही काम  मुझसे हो सका और कृति मुझे क्षमता से अधिक मिल गई. कारण शायद यह था कि मैंने अपने आप को अमरता के अयोग्य पाकर उन कामों को खूब मनोयोग से किया जिनकी मुझ में योग्यता थी. अमर बनने का मंसूबा पालता तो वह काम भी नहीं हो पाता जिसे ईश्वर ने मुझसे करवा लिया है. जिस युग में पैदा हुआ उसकी योग्यता और सम्मान को समझने में मैंने गलती नहीं की है, इसका मुझे विश्वास है. मुश्किल यह है कि निराला के आए बिना साहित्य की परिधि विस्तृत नहीं हो पाती, किंतु हर आदमी निराला बनने की कोशिश में फस जाए तो साहित्य ठिठक जाएगा. बस इतना ही आत्मज्ञान हम सबको हासिल करना है

डा० विवेकीराय को पत्र – 1 – 1 -  58 

शासन की छाया मेरे लिए नहीं है. हां मेरे आलोचकों को यह बुरा अवश्य लगा कि मैं संसद का सदस्य क्यों हो गया. मैं स्कूल का शिक्षक था, सब रजिस्ट्रार था, युद्ध के समय प्रचार अफसर था, कांग्रेसी सरकार का प्रचार अफसर था और सबके बाद में प्रोफेसर. क्या यह सभी पद रचनात्मक प्रतिभा के उपयुक्त हैं?  और तो और आपने प्रोफेसरी करते हुए कितने कवियों को अच्छी कविताएं लिखते देखा है? मगर जब मैं इन पदों पर था लोग समझते थे मैं ठीक जगह पर हूं. केवल उन्हें लगता है कि मैं खतरों के बीच हूं. ठीक जगह कवि को कहां मिलती है? कविता का मेल किसी भी पद से नहीं बैठता और साहस तथा शक्ति हो तो सभी पदों से बैठता है. कम से कम मेरा तो यही अनुभव है, नौकरी (और उसके साथ लक्ष्य मूल पेंशन) का मोह मैंने 1952 में छोड़ी, तब से मेरी पुस्तकें कौन कौन सी निकली हैं -  नील कुसुम, संस्कृति के चार अध्याय, नीम के पत्ते, दिल्ली, रेती के फूल, चक्रवाल, उजली आग, .... 5 साल में 14 पुस्तकें क्या कम होती हैं? मगर अब हिंदी में पढ़ता कौन है?

बिहार में जाति प्रथा और उसके दुष्प्रभाव से भी वे चिंतित रहे 

श्री रामसागर चौधरी को  पत्र – 4-3-61

अपनी जाति का आदमी अच्छा और दूसरी जाति का बुरा होता है यह सिद्धांत मानकर चलने वाला आदमी, छोटे मिजाज का आदमी होता है. आप लोग, यानी सभी जातियों के नौजवान, इस छोटे पन से बचिए.  प्रजातंत्र का नियम है कि जो नेता चुना जाता है सभी वर्गों के लोग उससे न्याय की आशा करते हैं. कुख्यात प्रांत बिहार को सुधारने का सबसे अच्छा रास्ता यह है कि लोग जातियों को भूलकर गुणवान के आदर में एक हों.  याद रखिए कि एक या दो जातियों के समर्थन से राज नहीं चलता. वह बहुतों के समर्थन से चलता है. यदि जातिवाद से हम ऊपर नहीं उठे, तो बिहार का सार्वजनिक जीवन गल जाएगा.

वीर रस का कवि होते हुए भी गांधीजी के प्रति उनका बहुत आदर रहा. भारत पाकिस्तान के बंटवारे से उन्हें दंश पहुंचा था. पाकिस्तान से बांग्लादेश के अलग हो जाने के बाद उन्होंने आचार्य कपिल को पत्र लिखा था

आचार्य कपिल को पत्र - 21-12-71

स्थान का अखाड़ा छोटा, काल का अखाड़ा बड़ा होता है. बड़े अखाड़े के पहलवान, छोटे अखाड़े में लड़े तो उनके हारने का डर रहता है. गांधीजी जिन्ना से स्थान के अखाड़े में लड़े थे इसलिए वे हार गए. नगर बांग्लादेश का अखाड़ा काल का अखाड़ा है. मुक्ति वाहिनी काल के उदर से जन्मी हुई फौज है. इस अखाड़े में जीत गांधी की हुई है, जिन्ना हार गए हैं. आपको मेरा एक पद याद है?
 स्थान में संघर्ष हो तो क्षुद्रता भी जीतती है
पर संयम के युद्ध में वह हार जाती है
जीत ले दिक् में जिन्ना
, पर अंत में बापू, तुम्हारी
जीत होगी काल के चौड़े अखाड़े में

संतोष की बात है कि मैंने जीते जी अपनी भविष्यवाणी को सच होते देख लिया.

हिंदी को कठिन संस्कृत के शब्दों से बाहर निकाल कर उसे जन मानस में व्यापक स्वीकार्यता दिलाने पर उनका सदैव प्रयास रहा. धर्मयुग के संपादक तो लिखे उनके पत्र में ये विषय समाहित है.

संपादक – धर्मयुग 1972 
मुख्य विषय यह है कि हिंदी को संस्कृत निष्ठ होना चाहिए या नहीं. पूज्य पंडित मदन मोहन मालवीय के चरणों तक पहुंचने का सुयोग मुझे नहीं मिला था, किंतु पूजनीय टंडन जी की संगति मुझे थोड़ी मिली थी. टंडन जी आसान हिंदी के पक्ष पाती थे मैं भी आसान हिंदी चाहता हूं और मानता हूं यह आदर्श हिंदी अमृतलाल नागर लिख रहे हैं, कमलेश्वर लिख रहे हैं, हरिशंकर परसाई लिख रहे हैं और सबसे बढ़कर अमृतराय लिख रहे हैं. किंतु हुआ क्या? संसदीय कार्यों के लिए जब-जब हिंदी शब्दों की जरूरत पड़ी, स्पीकर महोदय ने विद्वानों की एक बड़ी समिति का निर्माण किया और टंडन जी को उसका अध्यक्ष बना दिया. इस समिति में भारत के सभी भाषाओं के विद्वान रखे गए थे और समिति की कोशिश यह थी कि शब्द जहां तक संभव हो आसान रखे जाएं. किंतु हिंदी के प्रतिनिधियों की समिति में चली नहीं. अहिंदी भाषी विद्वान कदम कदम पर अड़ते रहे कि शब्द संस्कृत के ही होने चाहिए नहीं तो उन्हें सार्वदेशिक स्वीकृति नहीं मिलेगी और अंततः समिति ने जो शब्दकोश तैयार किया उसमे बहुलता संस्कृत शब्दों की ही रही.
इतने दिनों का मेरा अनुभव यह बतलाता है कि या तो हिंदी राजभाषा के रुप में सफल ही नहीं होगी या होगी तो संस्कृतनिष्ठ  होकर ही होगी

दिनकरजी, अपनी प्रशंसा से सदैव बचते रहे पर एक पत्र में उन्होंने अपनी ख़ुशी जाहिर की है. पर यहाँ भी उनकी ख़ुशी एक कवि के रूप में उनको मिले सम्मान से है न की व्यक्तिगत प्रशंसा से.

ब्रज किशोर नारायण को पत्र पोलैंड से – 29-11-55

रात जब मैं कविता पढ़ने को उठा तो मुझ पर नशा छा गया. न जाने संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रभाव था या उस छंद का चमत्कार या मेरे स्वर में सरस्वती प्रविष्ट हो गई थी. जब तक मैं कविता पढ़ता रहा लोग आनंद से झूमते रहे और ज्यों ही  पढ़ना खत्म किया कि तालियों की भयानक गड़गड़ाहट शुरू हो गई जो देर तक चलती रही. 
जो कुछ देख रहा हूं उससे विचारों की नींव पर बुरा असर पड़ रहा है. शक्ति के बिना अनुशासन नहीं, अनुशासन के बिना काम नहीं और काम के बिना प्रगति नहीं. यहां के कवि और कलाकार देश के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं. वहां भारत में हम मिनिस्टर से भी सस्ते और आलू गोभी से भी हीन माने जाते हैं .
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उनके लिखे हजार से भी ऊपर पत्र, आज की पीढ़ी के लिए उतने ही अमूल्य धरोहर हैं जितने की उनके द्वारा लिखे गए साहित्य.   










प्रवीण प्रणव