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Monday 4 December 2017

किस को आती है मसिहाई किसे आवाज़ दूँ


जोश मलीहाबादी जिनका जन्म नाम शब्बीर हसन खां था, का जन्म 5  दिसम्बर 1898 को मलीहाबाद में जो कि उत्तर प्रदेश में लखनऊ ज़िले की एक पंचायत है, में हुआ था. ये ग़ज़ल और नज़्मे तखल्लुस 'जोश' नाम से लिखते थे और अपने जन्म स्थान का नाम भी आपने अपने तखल्लुस में जोड़ दिया और इस तरह इनका नाम जोश मलीहाबादी हो गया ।

जोश मलीहाबादी सेंट पीटर्स कॉलेज आगरा में पढ़े और वरिष्ठ कैम्ब्रिज परीक्षा 1914 में उत्तीर्ण की। और साथ ही साथ अरबी और फ़ारसी का अध्ययन भी करते रहे। 6 माह रविंद्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन में भी रहे। परन्तु 1916 में पिता बशीर अहमद खान की मृत्यु होने के कारण कॉलेज की आगे पढ़ाई जारी नहीं रख सके।

जोश और हैदराबाद से जुड़ा एक मज़ेदार वाकया ये है कि 1925 में जोश ने 'उस्मानिया विश्वविद्यालय' हैदराबाद रियासत में अनुवाद की निगरानी का कार्य शुरू किया। परन्तु उनका यह प्रवास हैदराबाद में ज्यादा दिन न रह सका। अपनी एक नज़्म जो कि रियासत के शासक के ख़िलाफ़ थी जिस कारण से इन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया गया। इसके तुरंत बाद जोश ने पत्रिका, कलीम (उर्दू में "वार्ताकार") की स्थापना की, जिसमें उन्होंने खुले तौर पर भारत में ब्रिटिश शासन से आज़ादी के पक्ष में लेख लिखा था, जिससे उनकी ख्याति चहुं ओर फैल गयी और उन्हें शायर-ए-इन्कलाब कहा जाने लगा और इस कारण से इनके रिश्ते कांग्रेस विशेषकर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मजबूत हुए। भारत में ब्रिटिश शासन के समाप्त होने के बाद जोश आज-कल प्रकाशन के संपादक बन गए।

जोश उर्दू साहित्य में उर्दू पर अधिपत्य और उर्दू व्याकरण के सर्वोत्तम उपयोग के लिए जाने जाते हैं। इनका पहला शायरी संग्रह सन 1921 में प्रकाशित हुआ जिसमें शोला-ओ-शबनम, जुनून-ओ-हिकमत, फ़िक्र-ओ-निशात, सुंबल-ओ-सलासल, हर्फ़-ओ-हिकायत, सरोद-ओ-खरोश और इरफ़ानियत-ए-जोश शामिल है। फ़िल्म निर्देशक डब्ल्यू. ज़ी. अहमद की राय पर इन्होंने शालीमार पिक्चर्स के लिए गीत भी लिखे।

उर्दू लिखने और बोलने के तरीके को लेकर वो बड़े पाबंद थे, उर्दू शब्दों का ग़लत उच्चारण करने पर उन्होंने बड़े-बड़ों को नहीं बख़्शा । जोश के पोते फ़र्रुख़ जमाल लिखते हैं कि एक बार पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खाँ ने उन्हें ख़ुश करने के लिए कहा कि आप बहुत बड़े आलम हैं. जोश ने फ़ौरन जवाब दिया सही लफ़्ज़ आलिम है न कि आलम. इस पर अयूब नाराज़ हो गए और उन्होंने आदेश दिया कि जोश को दी गई सीमेंट एजेंसी उनसे वापस ले ली जाए और ऐसा ही हुआ.

भाषा को लेकर उनकी सनक इस हद तक थी कि एक बार उन्होंने सरेआम साहिर लुधियानवी को उनकी मशहूर नज़्म 'ताजमहल' में एक शब्द ग़लत उच्चारित करने के लिए टोका था.

जवाहरलाल नेहरू को जब उन्होंने अपनी एक किताब दी तो उन्होंने कहा,"मैं आपका मशकूर हूँ." जोश ने उन्हें फ़ौरन टोका, "आपको कहना चाहिए था शाकिर हूँ."

जोश फ़िराक़ गोरखपुरी से एक साल छोटे थे, लेकिन तब भी फ़िराक उन्हें अपना गुरु मानते थे. फ़िराक़ ने एक बार एक टेलिविजन इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि उन्हें अपनी ग़ज़ल पूरी करने के लिए एक शब्द नहीं मिल रहा था. वो बहुत झिझकते हुए जोश के पास गए थे. जोश के मुंह से वो शब्द एक रत्न की तरह बाहर आया था.

1956 में जोश बिना किसी को बताए पाकिस्तान चले गए. जाने से पहले वो नेहरू से सलाह मांगने गए. नेहरू ने कहा कि ये आपका निजी मामला है, लेकिन आप फिर भी मौलाना आज़ाद से सलाह ले लीजिए. उनका सोचना था कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है जहाँ हिंदी भाषा को ज्यादा तवज्जो दी जायगी न की उर्दू को, जिससे उर्दू का भारत में कोई भविष्य नहीं है। पकिस्तान जाने के बाद ये कराची में बस गए और आपने मौलवी अब्दुल हक के साथ में "अंजुमन-ए-तरक़्क़ी-ए-उर्दू" के लिए काम किया।

मौलाना ने कहा कि यूँ तो देशप्रेम की कोई क़ीमत नहीं होती, लेकिन अगर होती भी है तो भी आपको उसकी क़ीमत से कहीं ज़्यादा मिल चुका है. बहरहाल जोश माने नहीं और पाकिस्तान चले गए. वो कहते हैं, "दरअसल जोश पर उनके बेटों का बहुत दबाव था. नेहरू ने उन्हें सलाह दी थी कि वो अपने बेटों को पाकिस्तान भेज दें और ख़ुद यहीं रहें, लेकिन उनकी पत्नी ने कहा कि वो अपने बेटों और पोतों के बिना यहाँ नहीं रह पाएंगी."

देहलवी के अनुसार, "फिर पाकिस्तान के लोगों ने भी उन्हें सब्ज़बाग दिखाए कि उनके पाकिस्तान पहुंचते ही उन्हें एक हवेली दे दी जाएगी. मौलाना आज़ाद इससे इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने कहा मेरे ज़िंदा रहते तुम भारत में क़दम नहीं रखना और ऐसा ही हुआ. मौलाना आज़ाद की मौत के बाद ही जोश पहली बार भारत वापस आए."

भारत से पाकिस्तान जा बसने के बाद जोश मलीहाबादी तीन बार भारत आए थे. एक बार मौलाना आज़ाद की मौत पर, दूसरी बार जवाहरलाल नेहरू के मरने पर और तीसरी बार 1967 में.

जोश बहुत ही हाज़िर जबाब भी थे. एक बार जोश मलीहाबादी पाकिस्तान में मशहूर आर्टिस्ट ज़िया मोहिउद्दीन और कराची के जल विभाग के प्रमुख के साथ एक टीवी शो कर रहे थे. ज़िया ने उनसे सवाल किया, "जोश साहब, आपके इलाक़े में पानी की तो कोई समस्या नहीं है?

जोश बोले, "भाई पानी तो कभी-कभी आता है, लेकिन बिल बाक़ाएदगी से हर माह की पहली को आ जाता है. उस्मान साहब (बिजली विभाग के प्रमुख) का बस चले तो करबला में इमाम हुसैन को भी पानी का बिल दे देते."

दिल्ली के मशहूर यूनाइटेड कॉफ़ी हाउस के मालिक प्रेम मोहन कालरा एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाते हैं. एक बार उनके दोस्तों ने उन्हें यूनाइटेड कॉफ़ी हाउस कॉफ़ी पीने के लिए बुलाया. कॉफ़ी और सैंडविच खाने के बाद जोश शौचालय चले गए. जब वो वापस आए तो उनके सारे दोस्त नदारत हो चुके थे. बैरे ने बिल जोश के सामने पेश किया. जोश के पास बिल देने लायक पैसे नहीं थे. मैनेजर ने कहा कि इसके एवज़ में आपको अपनी शेरवानी गिरवी रखनी पड़ेगी. जोश ने बहुत कहा, लेकिन मैनेजर नहीं माना. जोश को अपनी शेरवानी उतारनी पड़ी. इत्तेफ़ाक से उस दिन उन्होंने शेरवानी के नीचे कुछ नहीं पहना था. वो सिर्फ़ बनियान और पायजामा पहने कॉफ़ी हाउस से बाहर निकल रहे थे कि उसके मालिक किशनलाल कालरा अंदर घुस रहे थे. उन्होंने जोश को पहचाना और पूछा हुज़ूर आप यहाँ कैसे? उन्होंने किशनलाल को पूरी कहानी सुनाई. उन्होंने उनकी शेरवानी वापस दिलवाई और मैनेजर को बहुत डांटा.वो उन्हें अपने घर ले गए और उनसे कहा कि वो जब तक चाहें वहाँ रह सकते हैं.

हर दिसंबर को किशनलाल एक मुशायरे का आयोजन करते थे. उसमें जोश के अलावा फ़िराक़, साहिर लुधियानवी, महेंदर सिंह बेदी और कैफ़ी आज़मी जैसे शायर आते थे. पंडित नेहरू उस मुशायरे में ज़रूर आते थे. मुशायरे के बाद चुनिंदा स्कॉच, शामी क़बाब और लज़ीज़ खाना खिलाया जाता था.

जगजीत सिंह ने जोश मलीहाबादी के कई ग़ज़ल और नज़्मों को अपनी आवाज़ दी. 1954 में उन्हें भारत सरकार की तरफ से पद्म भूषण दिया गया. 22 फरवरी 1982 को पाकिस्तान में उनका देहांत हो गया.



दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया
जब चली सर्द हवा मैं ने तुझे याद किया

इस का रोना नहीं क्यूँ तुम ने किया दिल बर्बाद
इस का ग़म है कि बहुत देर में बर्बाद किया

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किस को आती है मसिहाई किसे आवाज़ दूँ
बोल ऐ ख़ूं ख़ार तनहाई किसे आवाज़ दूँ

चुप रहूँ तो हर नफ़स डसता है नागन की तरह
आह भरने में है रुसवाई किसे आवाज़ दूँ

उफ़्फ़ ख़ामोशी की ये आहें दिल को बरमाती हुई
उफ़्फ़ ये सन्नाटे की शेहनाई किसे आवाज़ दूँ


- प्रवीण प्रणव