कादम्बिनी क्लब, हैदराबाद

दक्षिण भारत के हिन्दीतर क्षेत्र में विगत २ दशक से हिन्दी साहित्य के संरक्षण व संवर्धन में जुटी संस्था. विगत २२ वर्षों से निरन्तर मासिक गोष्ठियों का आयोजन. ३०० से अधिक मासिक गोष्ठियाँ संपन्न एवं क्रम निरन्तर जारी...
जय हिन्दी ! जय हिन्दुस्तान !!

Thursday 22 December 2016

अदम गोंडवी - आकाश को चुनौती देता ज़मीन का आदमी


धरती की सतह परपैर जमाकर समय से मुठभेड़ करने वाले जिस शख़्स ने दुष्यन्त की हिन्दी ग़ज़लों की परम्परा को एक ऐसे मुकाम तक पहुँचाने की कोशिश की जहाँ से एक-एक चीज ब़गैर किसी धुंधलके के पहचानी जा सके, उनका नाम रामनाथ सिंह है । मुशायरों में, घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान जिसकी ओर किसी का ध्यान ही न गया हो, अचानक माइक पर आ जाए और ऐसी रचनाएं पढ़े कि आपका ध्यान और कहीं जाए ही नहीं, तो समझिए, वो इंसान कोई और नहीं, रामनाथ सिंह है । इन्हीं रामनाथ सिंह को साहित्य जगत अदम गोंडवी के नाम से जानता है । उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के आटा गाँव में 22 अक्टूबर, 1947 को एक ठाकुर किसान परिवार में जन्मे और 18 दिसम्बर, 2011 को दुनिया को अलविदा कह गये । गोंडवी जी की तीन ग़ज़ल संग्रह धरती की सतह पर (1987), गर्म रोटी की महक (2000) और समय से मुठभेड़ (2010) प्रकाशित हैं लेकिन मात्र ये तीन कृतियां ही आज हिन्दी ग़ज़लों के आकाश में उन्हें एक चमकता हुआ नक्षत्र की तरह स्थापित करने के लिए पर्याप्त है ।


          अदम जी कबीर परम्परा के कवि हैं, यानि औपचारिक शिक्षा की बड़ी-बड़ी डिग्रियां नहीं होते हुए भी वे देश, काल, मिट्टी की बातों को बिना किसी लाग-लपेट के जीवन के अपने अकृत्रिम अनुभवों से सीधे, सच्चे शब्दों में व्यक्त करने की अद्भुत योग्यता रखते हैं । अपने एहसास को पका कर उसे कविता में ढालने की विलक्षण क्षमता रखते हैं -


                             याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार

                             होती है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की

पर, कबीर और अदम में थोड़ा अंतर यह है कि जहां कबीर ने कागज-कलम नहीं पकड़ा, अदम ने कागज-कलम छुआ पर उतना ही जितना किसान ठाकुर के लिए जरूरी था ।  


          माना जाता है कि दुष्यन्त ने अपनी ग़ज़लों से शायरी की जिस राजनीति की शुरूआत की थी, अदम गोंडवी ने उसे एक नई ऊँचाई तक ले जाने की कोशिश की –


                             जो  उलझ  कर  रह  गयी  है  फाइलों के जाल में

                             गाँव  तक  वह  रोशनी  आएगी  कितने  साल में

                            

                             जिनके चेहरे पर लिखी थी जेल की ऊँची फ़सील

                             रामनामी  ओढ़कर  संसद  के   अन्दर      गये

                            

देखना,  सुनना    सच  कहना  जिन्हें भाता नहीं

                             कुर्सियों  पर  फिर  वही  बापू के बन्दर के आ गए


लेकिन अदम नई पीढ़ी से धूमिल की विरासत को बचाये रखने की गुज़ारिश करते हैं –

                             अदीबों  की  नई  पीढ़ी  से  मेरी  ये  गुज़ारिश    है

                             सँजो कर रक्खें धूमिल की विरासत को क़रीने से


          गोंडवी शहरी शायर के शालीन और सुसंस्कृत लहजे में बोलने के बजाय, महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई से हटकर ठेठ गंवई अंदाज में दो टूकपन और बेतकल्लुफ़ी से काम लाते हैं । उनके कथन में प्रत्यक्षता, आक्रामकता और तड़प से भरी हुई व्यंग्मयता है । वस्तुतः उनकी ग़ज़लें अपने ज़माने के लोगों से ठोस धरती की सतह पर लौट आने का आग्रह करती हैं –

                             ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में

                             मुसल्सल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में



                            

अदीबों  ठोस  धरती  की सतह पर लौट भी आओ

                             मुलम्मे  के  सिवा  क्या  है  फ़लक  के चाँद तारों में



इसी क्रम में आजकल के बूर्जुआ एवं तथाकथित बुद्धिजीवी साहित्कारों पर तंज कसते हुए अदम कहते हैं –

                             गंगाजल  अब  बूर्जुआ तहज़ीब की पहचान है

                             तिश्नगी को वोदका के आचमन तक ले चलो



                             प्रेमचन्द की रचनाओं को एक सिरे से ख़ारिज करके

                             ये ओशो के अनुयायी हैं, कामसूत्र पर भाष लिखेंगे



                             एक अलग ही छवि बनती है परम्परा भंजक होने से

                             तुलसी इनके लिए विधर्मी, देरिदा को खास लिखेंगे


ऐसे साहित्यकारों से इतर गोंडवी मानवता का, अपने कालखंड का एक नया इतिहास लिखने की बात करते हैं –

                             मानवता  का  दर्द  लिखेंगे, माटी  की  बू-बास लिखेंगे

                             हम अपने इस कालखंड का एक नया इतिहास लिखेंगे

                            

                             सदियों  से  जो  रहे  उपेक्षित श्रीमन्तों के हरम सजाकर

                             उन  दलितों  की  करूण  कहानी मुद्रा से रैदास लिखेंगे


          दरअसल, अदम की शायरी में अवाम बसता है, उसके सुख दुःख बसते हैं, शोषित और शोषण करने वाले बसते हैं । उनकी शायरी न तो हमें वाह करने का अवसर देती है और न आह भरने की मजबूरी परोसती है । सीधे, सच्चे दिल से कही उनकी शायरी सीधे सादे लोगों के दिलों में बस जाती है –

                             बेचता  यूँ  ही  नहीं  है  आदमी  इंसान  को

                             भूख  ले  जाती  है  ऐसे  मोड़  पर इंसान को



                             सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए

                             गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़ान को



                             शबनमी  होठों  की  गर्मी  दे न पाएगी सुकून

                             पेट  के  भूगोल  में  उलझे  हुए  इंसान    को


          गोंडवी जी की शायरी में आम जनता की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य, धार लगा व्यंग्य मिसरे-मिसरे में मौजूद है -

                             काजू  भुने  प्लेट  में  व्हिस्की गिलास में

                             उतरा  है  रामराज  विधायक  निवास  में



                             पक्के  समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत

                             इतना असर है खादी के उजले लिवास में



नेताओं द्वारा जनता के शोषण, व्यवस्था की विसंगतियों की इंतहा को ख़त्म करने का एकमात्र विकल्प बताते हुए गोंडवी कहते हैं –

                             जनता के पास एक ही चारा है बग़ावत

                             यह बात कह रहा हूँ मैं होशो हवास में


          अदम अपनी सांस्कृतिक विरासत को स्वर्णिम मानने से इन्कार करते हैं क्योंकि इसमें निम्न जातियों, वंचितों के शोषण का इतिहास मिलता है –

                   आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत

                   वो  कहानी  है  महज़  प्रतिरोध  की, संत्रास की

                            

वेद  में  जिनका  हवाला  हाशिये  पर  भी  नहीं

                             वे  अभागे  आस्था  विश्वास  लेकर  क्या   करें



                             लोकरंजन  हो  जहां  शम्बूक-वध  की  आड़ में

                             उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें



                             कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास

                             त्रासदी,  कुंठा,  घुटन,  संत्रास  लेकर  क्या   करें


          सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पक्षधर यह मानते हैं कि भारत हिन्दुओं का देश है और मुस्लिम समुदाय के लोग बाहर से आकर यहाँ बस गये । लेकिन अदम का मानना है कि बहुसंख्यक हिन्दू भी पूरी तरह से इसी धरती के नहीं हैं वरन् सदियों पूर्व बाहर से आये विदेशी आक्रन्ताओं की मिली-जुली कौम है -

                             हममें  कोई  हूण,  कोई  शक,  कोई मंगोल है

                             दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये


इसलिए गोंडवी दोनों कौमों के बीच नफरत फैलाने वाले नेताओं को कहते हैं –

                             हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये

                             अपनी कुरसी के लिए जज़्बात को मत   छेड़िये



                             ग़र गलतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले

                             ऐसे  नाजुक  वक्त  में  हालात  को  मत  छेड़िये

अदम चाहते हैं –

                             छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़

                             दोस्त,  मेरे  मज़हबी  नग्मात  को  मत    छेड़िये


          ग्रामीण परिवेश में पले बढ़े सीधे सच्चे अदम गोंडवी महानगरीय तथाकथित बुद्धिजीवियों के खोखलेपन से अलग एक नये अंदाज़ में अपने अकलुष दिल की गहराइयों से बेलौस दोटूक शब्दों में सदियों से शोषितों, उपेक्षितों के प्रति हो रहे अन्याय के ख़िलाफ लगातार आवाज़ उठाते रहे, नेताओं के दोहरे चरित्र को बेनक़ाब करते रहे, भूखे, मुफ़लिसों की रहनुमाई करते हुए उनके एहसासों को अपनी ग़ज़लों में महसूस करते रहे –


                             भूख  के  एहसास  को  शेरो-सुख़न  तक ले चलो

                             या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

और अंत में कहते गये -

                            

अवधेश कुमार सिन्हा

हैदराबाद


Wednesday 21 December 2016

कादम्बिनी क्लब की संगोष्ठी एवं पुस्तक लोकार्पण आयोजित


कादम्बिनी क्लब हैदराबाद के तत्वावधान में रविवार दि० 18 दिसम्बर मध्यान्ह 12 बजे से राजा कृष्ण देव राय सभागार में क्लब की 293वी मासिक गोष्ठी के अंतर्गत स्व० अदम गोंडवी (सुप्रसिद्ध कवि-गज़लकार) की पुण्यतिथि पर चर्चा सत्र एवं साहित्यकार सुनंदा जमदग्नी कृत उपन्यास ‘स्वयंसिद्धा’ का लोकार्पण समारोह डा० सी० वसंता की अध्यक्षता में संपन्न हुआ.


प्रेस विज्ञप्ति में डा० अहिल्या मिश्र (क्लब अध्यक्षा एवं संयोजिका)  एवं मीना मुथा (कार्यकारी संयोजिका) ने बताया कि इस अवसर पर रमेश अग्रवाल (समाजसेवी) मुख्य अतिथि, सुरेश जैन (साहित्यकार कवि) सम्माननीय अतिथि, डा० रमा द्विवेदी (पुस्तक परिचय प्रस्तोता), लेखिका सुनंदा जमदग्नी, डा० अहिल्या मिश्र मंचासीन हुए. शुभ्रा महन्तो द्वारा सुमधुर स्वर में सरस्वती वंदना से सत्र का आरम्भ हुआ. मंचासीन महानुभावों के करकमलों से दीप प्रज्वलन किया गया. डा० मिश्र ने स्वागत भाषण में कहा कि संस्था की नियमित गोष्ठी में सदस्यों की नियमित उपस्थिति ही हमारी प्रेरणा है. नवांकुरों के लिए मंच प्रदान करना एवं साहित्यकारों से नई पीढ़ी को परिचित कराने के लिए संस्था संकल्पित है.


संगोष्ठी संयोजक अवधेश कुमार सिन्हा ने अदम गोंडवी एवं उनके साहित्य पर अपनी बात रखते हुए कहा कि अदम गोंडवी का मूल नाम रामनाथ सिंह था, वे उ० प्र० के गोंडा जिले के आटा गाँव के निवासी थे. अदम का जन्म 22 अक्तूबर 1947 को ठाकुर किसान परिवार में हुआ तथा 18 दिसम्बर 2011 को उनकी जीवनयात्रा में पूर्ण विराम आ गया. स्कूली शिक्षा अधिक न होते हुआ भी जीवन के अनुभवों को सीधे सच्चे शब्दों में व्यक्त करने की अद्भुत योग्यता वो रखते थे. उनके कथन में विद्रोह, आक्रामकता और व्यंग प्रमुख रहा. “जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में, गाँव तक वो रौशनी आएगी कितने साल में”, “मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे, हम अपने इस कालखंड का, एक नया इतिहास लिखेंगे”. इन जैसी कई अनेक रचनाओं में उन्होंने वंचित और शोषित ग्रामीणों की पीड़ा को आवाज़ दी.


मंत्री प्रवीण प्रणव ने अदमजी के सन्दर्भ में कहा कि उन्हें छन्द या बहर की जानकारी नहीं थी, पुस्तकालय से मांग कर उन्होंने पुस्तकें पढ़ी और आस पास के परिवेश ने उन्हें लिखना सिखाया. आरंभ में कुछ कविताएँ लिखने के बाद उन्होंने ग़ज़ल को अपनी लेखन शैली के लिए चुना. “चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें, चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को” ऐसी रचना गरीबों के प्रति उनके दर्द को प्रदर्शित करती है. उनकी रचनाओं में असहमति का स्वर सबसे प्रमुख है. जहाँ कहीं भी उन्हें वंचितों के खिलाफ कुछ लगा उन्होंने आवाज़ उठाई. उनके ही शब्दों में “’इसी असहमति को स्वर देने के लिए तो मैं मंच पर आया, अन्यथा स्वान्तः सुखाय ही क्यों न रह जाता ?


डा० अहिल्या मिश्र में अपने वक्तव्य में कहा कि स्पष्टवादिता के लिए जाने जाते अदम ने हमेशा ज़मीनी हालातों का चित्रण अपनी ग़ज़लों में किया जो आम आदमी के दिल को छू जाता है. सर्वधर्म समभाव में विश्वास रखते हुए वे कहते हैं “हिन्दू या मुस्लिम के एहसासात को मत छेड़िए,  अपनी कुर्सी के लिए ज़ज्बात को मत छेड़िए.” आज यह चर्चा सत्र सार्थक श्रद्धांजलि है अदम गोंडवी को कादम्बिनी क्लब हैदराबाद की ओर से.

तत्पश्चात मंचासीन अतिथियों का संयोजिका सुनंदा जमदग्नी व परिवार की ओर से सम्मान किया गया. इसी कड़ी में क्लब की ओर से तथा सी० वसंता की ओर से सुनन्दाजी का सम्मान किया गया. व्यवस्था में सरिता सुराणा, मंगला अभ्यंकर ने सहयोग दिया. सुनंदा जमदग्नी कृत उपन्यास ‘स्वयंसिद्धा’ का परिचय देते हुए डा० रमा द्विवेदी ने कहा कि इस किताब को लघु उपन्यास कह सकते हैं. बाल विवाह एवं बाल विधवा इस ज्वलंत प्रश्न के इर्द गिर्द कहानी का ताना बाना बुना गया है. लड़की के विधवा होते ही उसका मुंडन कर दिया जाता है, सफ़ेद साड़ी उसकी ज़िंदगी बन जाती है, खाना भी एक वक्त का दिया जाता है और वह भी रूखा सूखा. लेखिका ने हिन्दू, मुस्लिम, इसाई धर्म का पारिवारिक परिवेश चित्रित किया है जो दर्शाता है कि मनुष्य की संवेदना है तो वह किसी की भी मदद कर सकता है. कहानी चलचित्र की भांति है. स्त्री का जीवन अपने घर में भी सुरक्षित नहीं है, ऐसे हालात में बाल विधवा का मुंडन कर उसे विद्रूप दशा में रहने के लिए बाध्य कर दिया जाता है. समाज को ऐसी सोच से मुक्ति पानी होगी यह संकल्प नायिका मालती लेती है. लेखिका ने स्त्री प्रश्नों पर चिंतन किया है, उन्हें साधुवाद. डा० अहिल्या मिश्र ने कहा कि यह त्रासदी सदैव नारी के साथ बनी रही. जो स्त्री मातृत्व का भार वहन कर पूरे परिवार की गृह स्वामिनी बनती है उसके वैधव्य के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहराया जाता है. पुरुष प्रधान समाज, नियमों की आड़ में स्त्री की प्रगति और उत्थान को सहजता से स्वीकार नहीं करता. नारी आज भी प्रताड़ित हो रही है. सुनन्दाजी इसी तरह नारी समस्याओं पर चिंतन मंथन कर लेखन को आगे बढाएं यही शुभकामना है. सुरेश जैन, रमेश अग्रवाल ने भी उन्हें बधाई दी. रमेश अग्रवाल व मंचासीन अतिथियों के करकमलों से ‘स्वयंसिद्धा’ का लोकार्पण हुआ. डा० सी० वसंता ने पुस्तक समीक्षा में कहा कि ‘स्वयंसिद्धा’ में क्रांतिपथ पर चलने वाले पात्रों का सृजन हुआ है. स्त्री केवल लता बन कर न रहे, वह पेड़ बने, कुप्रथाओं का समूल नष्ट करे, यही इस उपन्यास का सन्देश है. लेखिका सुनंदा जमदग्नी ने अपने विचार रखते हुए कहा कि वाचनालय चलाते समय कई महिला पाठकों ने अपनी समस्याएँ मुझसे साझा की. भारतीय संस्कृति में नारी को सर्वोच्च स्थान दिया गया है पर हकीकत में नारी की दशा-दिशा कुछ और ही है. उसी पीड़ा को ‘स्वयंसिद्धा’ में आपके समक्ष रखा है. प्रथम सत्र का आभार सचिव देवाप्रसाद मायला ने व्यक्त किया एवं संचालन मीना मुथा ने किया.


दूसरे सत्र में भंवरलाल उपाध्याय के संचालन में कविगोष्ठी संपन्न हुई. लक्ष्मीकांत जोशी, के. एस. जैन, आर. जी. बरडिया, नीरज कुमार मंचासीन हुए. नोटबंदी, भ्रष्टाचार, नारी समस्याओं आदि विषयों पर शशि राय, सुषमा पाण्डेय, दर्शन सिंह, डा० सीता मिश्र, डा० रमा द्विवेदी, मंगला अभ्यंकर, सरिता सुराणा, जी. परमेश्वर, सुरेश जैन, सत्यनारायण काकड़ा, उमा सोनी, सूरजप्रसाद सोनी, शिवकुमार तिवारी कोहिर, प्रवीण प्रणव, मल्लिकार्जुन, सुनीता लुल्ला, सी. जयश्री, सुषमा वैद्य, जुगल बंग जुगल, के. एस. जैन आदि ने काव्य पाठ किया. नीरज कुमार ने दोनों सत्रों की सफलता पर हर्ष व्यक्त किया. मधुकर, भूपेन्द्र मिश्र, संतोष जमदग्नी, आनंद डी., डा० कुलकर्णी आदि की उपस्थिति रही. कार्यक्रम संयोजिका सुनंदा जमदग्नी ने सभी की उपस्थिति के प्रति आभार जताया. डा० मिश्र ने कहा कि अगले माह साहित्यकारों की श्रेणी में महाश्वेता जी पर चर्चा सत्र रहेगा. मीना मुथा के धन्यवाद ज्ञापन से गोष्ठी का समापन हुआ.