‘धरती की सतह पर’ पैर जमाकर ‘समय से मुठभेड़’ करने वाले जिस शख़्स ने दुष्यन्त की
हिन्दी ग़ज़लों की परम्परा को एक ऐसे मुकाम तक पहुँचाने की कोशिश की जहाँ से एक-एक
चीज ब़गैर किसी धुंधलके के पहचानी जा सके, उनका नाम रामनाथ सिंह है । मुशायरों
में, घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा डाले एक
ठेठ देहाती इंसान जिसकी ओर किसी का ध्यान ही न गया हो, अचानक माइक पर आ जाए और ऐसी
रचनाएं पढ़े कि आपका ध्यान और कहीं जाए ही नहीं, तो समझिए, वो इंसान कोई और नहीं,
रामनाथ सिंह है । इन्हीं रामनाथ सिंह को साहित्य जगत अदम गोंडवी के नाम से जानता
है । उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के आटा गाँव में 22 अक्टूबर, 1947 को एक ठाकुर
किसान परिवार में जन्मे और 18 दिसम्बर, 2011 को दुनिया को अलविदा कह गये । गोंडवी
जी की तीन ग़ज़ल संग्रह ‘धरती की सतह पर (1987), ‘गर्म रोटी की महक’ (2000) और ‘समय से मुठभेड़’ (2010) प्रकाशित हैं लेकिन मात्र ये
तीन कृतियां ही आज हिन्दी ग़ज़लों के आकाश में उन्हें एक चमकता हुआ नक्षत्र की तरह
स्थापित करने के लिए पर्याप्त है ।
अदम जी कबीर परम्परा के कवि
हैं, यानि औपचारिक शिक्षा की बड़ी-बड़ी डिग्रियां नहीं होते हुए भी वे देश, काल,
मिट्टी की बातों को बिना किसी लाग-लपेट के जीवन के अपने अकृत्रिम अनुभवों से सीधे,
सच्चे शब्दों में व्यक्त करने की अद्भुत योग्यता रखते हैं । अपने एहसास को पका कर
उसे कविता में ढालने की विलक्षण क्षमता रखते हैं -
याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होती है परिपाक
धीमी आँच पर एहसास की
पर, कबीर और अदम में थोड़ा अंतर यह है कि जहां कबीर ने कागज-कलम नहीं पकड़ा,
अदम ने कागज-कलम छुआ पर उतना ही जितना किसान ठाकुर के लिए जरूरी था ।
माना जाता है कि दुष्यन्त ने
अपनी ग़ज़लों से शायरी की जिस राजनीति की शुरूआत की थी, अदम गोंडवी ने उसे एक नई
ऊँचाई तक ले जाने की कोशिश की –
जो उलझ
कर रह गयी
है फाइलों के जाल में
गाँव तक
वह रोशनी आएगी
कितने साल में
जिनके
चेहरे पर लिखी थी जेल की ऊँची फ़सील
रामनामी ओढ़कर
संसद के अन्दर
आ गये
देखना, सुनना व
सच कहना जिन्हें भाता नहीं
कुर्सियों पर
फिर वही बापू के बन्दर के आ गए
लेकिन अदम नई पीढ़ी से ‘धूमिल’ की विरासत को बचाये रखने की
गुज़ारिश करते हैं –
अदीबों की नई पीढ़ी से
मेरी ये गुज़ारिश
है
सँजो कर
रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से
गोंडवी शहरी शायर के शालीन और
सुसंस्कृत लहजे में बोलने के बजाय, महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई से हटकर ठेठ
गंवई अंदाज में दो टूकपन और बेतकल्लुफ़ी से काम लाते हैं । उनके कथन में
प्रत्यक्षता, आक्रामकता और तड़प से भरी हुई व्यंग्मयता है । वस्तुतः उनकी ग़ज़लें
अपने ज़माने के लोगों से ठोस धरती की सतह पर लौट आने का आग्रह करती हैं –
ग़ज़ल को
ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में
मुसल्सल
फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
अदीबों ठोस धरती
की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के
सिवा क्या है फ़लक के चाँद तारों में
इसी क्रम में आजकल के बूर्जुआ एवं तथाकथित बुद्धिजीवी साहित्कारों पर तंज कसते
हुए अदम कहते हैं –
गंगाजल अब
बूर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिश्नगी
को वोदका के आचमन तक ले चलो
प्रेमचन्द
की रचनाओं को एक सिरे से ख़ारिज करके
ये ‘ओशो’ के
अनुयायी हैं, कामसूत्र पर भाष लिखेंगे
एक अलग ही
छवि बनती है परम्परा भंजक होने से
तुलसी
इनके लिए विधर्मी, ‘देरिदा’ को खास लिखेंगे
ऐसे साहित्यकारों से इतर गोंडवी मानवता का, अपने कालखंड का एक नया इतिहास
लिखने की बात करते हैं –
मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी
की बू-बास लिखेंगे
हम अपने
इस कालखंड का एक नया इतिहास लिखेंगे
सदियों से
जो रहे उपेक्षित श्रीमन्तों के हरम सजाकर
उन दलितों
की करूण कहानी ‘मुद्रा’ से रैदास
लिखेंगे
दरअसल, अदम की शायरी में अवाम
बसता है, उसके सुख दुःख बसते हैं, शोषित और शोषण करने वाले बसते हैं । उनकी शायरी
न तो हमें वाह करने का अवसर देती है और न आह भरने की मजबूरी परोसती है । सीधे,
सच्चे दिल से कही उनकी शायरी सीधे सादे लोगों के दिलों में बस जाती है –
बेचता यूँ
ही नहीं है
आदमी इंसान को
भूख ले
जाती है ऐसे
मोड़ पर इंसान को
सब्र की
इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए
गर्म
रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़ान को
शबनमी होठों
की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के
भूगोल में उलझे
हुए इंसान को
गोंडवी जी की शायरी में आम
जनता की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य, धार लगा व्यंग्य मिसरे-मिसरे में
मौजूद है -
काजू भुने
प्लेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है
रामराज विधायक निवास
में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर
है खादी के उजले लिवास में
नेताओं द्वारा जनता के शोषण, व्यवस्था की विसंगतियों की इंतहा को ख़त्म करने
का एकमात्र विकल्प बताते हुए गोंडवी कहते हैं –
जनता के
पास एक ही चारा है बग़ावत
यह बात कह
रहा हूँ मैं होशो हवास में
अदम अपनी सांस्कृतिक विरासत
को स्वर्णिम मानने से इन्कार करते हैं क्योंकि इसमें निम्न जातियों, वंचितों के
शोषण का इतिहास मिलता है –
आप
कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी
है महज़ प्रतिरोध
की, संत्रास की
वेद में जिनका
हवाला हाशिये पर
भी नहीं
वे अभागे
आस्था विश्वास लेकर
क्या करें
लोकरंजन हो
जहां शम्बूक-वध की आड़
में
उस
व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें
कितना
प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा,
घुटन, संत्रास लेकर
क्या करें
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के
पक्षधर यह मानते हैं कि भारत हिन्दुओं का देश है और मुस्लिम समुदाय के लोग बाहर से
आकर यहाँ बस गये । लेकिन अदम का मानना है कि बहुसंख्यक हिन्दू भी पूरी तरह से इसी
धरती के नहीं हैं वरन् सदियों पूर्व बाहर से आये विदेशी आक्रन्ताओं की मिली-जुली
कौम है -
हममें कोई
हूण, कोई शक,
कोई मंगोल है
दफ़्न है
जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
इसलिए गोंडवी दोनों कौमों के बीच नफरत फैलाने वाले नेताओं को कहते हैं –
हिन्दू या
मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी
कुरसी के लिए जज़्बात को मत छेड़िये
ग़र
गलतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक
वक्त में हालात
को मत छेड़िये
अदम चाहते हैं –
छेड़िये
इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे
मज़हबी नग्मात को मत छेड़िये
ग्रामीण परिवेश में पले बढ़े
सीधे सच्चे अदम गोंडवी महानगरीय तथाकथित बुद्धिजीवियों के खोखलेपन से अलग एक नये
अंदाज़ में अपने अकलुष दिल की गहराइयों से बेलौस दोटूक शब्दों में सदियों से
शोषितों, उपेक्षितों के प्रति हो रहे अन्याय के ख़िलाफ लगातार आवाज़ उठाते रहे,
नेताओं के दोहरे चरित्र को बेनक़ाब करते रहे, भूखे, मुफ़लिसों की रहनुमाई करते हुए
उनके एहसासों को अपनी ग़ज़लों में महसूस करते रहे –
भूख के
एहसास को शेरो-सुख़न
तक ले चलो
या अदब को
मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
और अंत में कहते गये -
अवधेश कुमार सिन्हा
हैदराबाद
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