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Friday 23 September 2016

पत्रों के आईने में दिनकर - प्रवीण प्रणव

23 सितंबर 1908 को बिहार के मुंगेर ज़िले के सिमरिया गाँव में जन्मे रामधारी सिंह ‘दिनकर’ उस दौर के कवि हैं जब हिन्दी काव्य जगत् से छायावाद का युग समाप्त हो रहा था। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।
पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये। १९३४ से १९४७ तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। १९५० से १९५२ तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने।

स्वतंत्रता से पहले  दिनकर सरकारी मुलाज़िम थे. पर उनकी रचनाओं में राष्ट्र भक्ति कूट कूट कर भरी थी. उन दिनों रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया।
उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी  के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार  प्रदान किया गया।

द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि दिनकरजी गैर-हिंदीभाषियों के बीच हिन्दी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे और अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे।

हरिवंश राय बच्चन ने कहा कि दिनकरजी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिये अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये।

रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा कि दिनकरजी ने देश में क्रान्तिकारी आन्दोलन को स्वर दिया।

नामवर सिंह ने कहा कि दिनकरजी अपने युग के सचमुच सूर्य थे।

प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने कहा कि दिनकरजी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया।

मिट्टी की ओर’, ‘अर्ध्दनारीश्वर’, ‘रेती के फूल’, ‘वेणुवन’, ‘साहित्यमुखी’, ‘काव्य की भूमिका’, ‘प्रसाद, पंत और मैथिलीशरण गुप्त’ तथा ‘संस्कृति के चार अध्याय’ आपके गद्य ग्रंथ हैं।

रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘रसवंती’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘रश्मिरथी’, ‘परशुराम की प्रतिज्ञा’, ‘हारे को हरिनाम’ और ‘उर्वशी’ दिनकर जी के काव्य संकलन हैं।


4 अप्रेल सन् 1974 को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ये नश्वर देह छोड़कर चले गए।अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे।

पत्रों के आईने में दिनकर

पुस्तक या लेख ये सोच कर ही लिखे जाते हैं कि ये लोगों तक पहुंचेंगे और लोग उस पर अपनी प्रतिक्रियाएं देंगे. अतः लेखक इन्हें लिखते समय सावधान रहता है. कोशिश होती है कि अपने मन के भाव खासकर वैसे भाव, जो जनप्रिय न हों, न लिखे जाएँ. डायरी में भी संतुलित बातें ही लिखी जाती हैं क्यूंकि कहीं न कहीं जेहन में ये बात रहती है कि कोई इन्हें पढ़ेगा और फिर क्या सोचेगा. पत्रों के बारे में ऐसी कोई समस्या नहीं है. पत्रों की अमूनन कोई प्रति बना कर नहीं रखी जाती, अगर सरकारी पत्राचार न हों तो. तो दिनकर को परखने के लिए उनके पत्रों से बेहतर विकल्प और क्या होगा.
दिनकरजी के द्वारा लिखे गए पत्रों तो कई श्रेणियों में बांटा जा सकता है. पत्र जहां उन्होंने अपने परिवार और व्यक्तिगत जीवन की बात की, या पत्र जो उन्होंने अपने मित्रों तो लिखे, या पत्र जिसमे उनके यात्रा विवरण हैं पर यहाँ हम उन कुछ चुनिन्दा पत्रों की बात करेंगे जो उन्होंने साहित्य से सम्बंधित बातों पर लिखा.

डा० शिवमंगल सिंह सुमन को लिखा गया पत्र – 27-10-53
हिंदी कविता की प्रगति अवरुद्ध है. हर 12 साल के बाद नए क्षितिज का निर्माण होना चाहिए, आशा के विरुद्ध दिशा से किसी कवि को उतरना चाहिए. मैं चाहता हूं कि तुम अपने आप से एक प्रश्न करो कि तुमने अपने हिस्से के नए क्षितिज का निर्माण कर लिया या वह काम अभी बाकी है. मेरे ख्याल से तुम्हारा क्षितिज अभी तक पूर्ण रूप से उभर कर सामने नहीं आया है.
और कवि की संकीर्णता की वृद्धि कवि सम्मेलनों में होती है, यह तुम जान लो. हम सभी लोगों को भागना चाहिए इन सम्मेलनों से. मैं तो कोशिश करके हार गया मगर कवि सम्मेलनों से छुटकारा नहीं मिलता. बेबसी है. फिर भी जिस सत्य को अनुभव करता हूं वह तुम्हे बता रहा हूं. मैं तुम्हारा गुरु नहीं, अग्रज नहीं, एक पीठ का भाई हूं, इसलिए हर बात कह सकता हूं और तुम्हें भी यही अधिकार देता हूं.
बक गया हूं जुनूं में क्या क्या कुछ, कुछ न समझे खुदा करे कोई  
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उन्होंने कई रचनाओं पर अपनी बेबाक राय रखी और बेहतरी के सुझाव भी दिए. 
श्री लक्ष्मीकांत शर्मा  ‘मुकुर’ को पत्र – 11-11-41

प्रिय  मुकुर
तुमने जो कविताएं मुझे दिखलाई थी उनमे छंदो भंग और यतिभंग  के दोष हैं.  यह दोष ऐसे होते हैं जिन्हें  रचयिता को स्वमेव  दूर करना चाहिए. तुम जिस छन्द  में कविता लिखना चाहते हो उसी छंद की कोई कविता कई बार पढ़ो और उसकी लय अपने कंठ में उतार लो. इसके बाद गा गा कर कविता लिखो और अपनी हर पंक्ति को कंठाग्र छंद की लय से मिलाते चलो. जहां छंद की लय का साम्य न  होगा वहां यतिभंग होगा. छंद का अभ्यस्त कर्ण कह देगा कि अमुक स्थल पर यति भंग है.

खूब पढ़ो. कवि के लिए कोई भी विषय वर्जनीय नहीं है. वह यदि गणितज्ञ हो तो सोने में सुगंध होगी.

जहां रचनाएं उन्हें पसंद आईं, वहां जी भर के तारीफ़ भी की 

श्री रामसिंहासन सहाय ‘मधुर’ तो पत्र – 10-9-48

मैं तो आपकी हाल की कविताओं पर दंग हूं. सच पूछिए तो यह कविताएं मेरी अपनी मनोदशा को ही व्यंजित करती हैं और जी चाहता है कि काश इनमें से कई के नीचे रचयिता की जगह मेरा नाम होता. इन्हें कई मित्रों को सुना चुका हूं. कल शाम को पूरी कॉपी जयप्रकाश जी के यहां ले गया था और उन्हें तथा अन्य मित्रों को कोई 15 कविताएं सुनाई. सभी लोग बड़े ही चमत्कृत हुए.

डा० कृष्णबिहारी सहल को पत्र – 22-1-70

‘अहं और आत्मबोध’ की कवितायेँ एक बार में पढ़ गया. कविता वह, जिसे ख़त्म करके जी करे कि फिर पढूं और कहानी वह, जिसे ख़त्म करके जिज्ञासा हो कि आगे क्या हुआ. आपकी कवितायेँ पढ़ कर जी चाहता है उन्हें फिर से पढूं. यह आपकी सफलता है.


दिनकर अपनी आलोचनाओं से कभी विचलित नहीं हुए, उन्होंने इसे सराहा ही और ये उनके विभिन्न पत्रों से साबित होता है.

आचार्य कपिल को पत्र - 31-8 -51

अभी-अभी हुंकार आया है. उसमें प्रभात जी ने बड़ी उल-जुलूल बातें लिखी हैं. अब आपके शत्रु और भी बढ़ेंगे.  निराला जी ने कहा है

यह हिंदी का स्नेहोपहार 

तो ये सारे उपहार लेने पड़ेंगे. बंधुओं की दलील है ग्रुप में रहो नहीं तो चैन से लिखने नहीं देंगे. दुर्भाग्यवश 2, 3 आदमी भी ऐसे नहीं हैं जिन्हें मैं  अपनी गुट का कह सकूं. अगर मेरी कोई गुट है तो उसका एकमात्र सदस्य मैं ही हूँ.

आचार्य कपिल को पत्र - 29 – 1 – 51

कामेश्वर फूले फले और बढ़ें यह मेरी कामना पहले भी थी और अब भी है .उन्हें मैं यह भी छूट देता हूं कि वह दिनकर काव्य के विरोधी के रूप में अपना विकास करें और उन्हें बुरा ना लगे तो मेरे साथ एक थाली में बैठकर भोजन भी करें, मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी. किंतु उन्हें और प्रत्येक लेखक को चाहिए कि वस्तुस्थिति को देख कर बोले और लिखें, जिससे किसी की पद मर्यादा को अनुचित जर्ब नहीं पहुंचे. पटना में एक साहित्यिक षड्यंत्र चल रहा है जिसका केंद्र यह कल्पित बात है कि दिनकर बिहार के सभी साहित्यकों का बाधक है और कुछ लोगों के खिलाफ तो उसकी फौज खड़ी रहती है. जब उमा मुझ पर आक्रमण करें, बेनीपुरी मुझ पर चोट करें, प्रदीप मेरे विरुद्ध लेख छापे और कामेश्वर मेरे विरुद्ध लिखे तब लोग न जाने किसे मेरी फौज का आदमी समझते हैं. मुझे लगता है रामेश्वर जी इस भ्रम में है कि दिनकर का विरोध करने से निष्पक्ष आलोचक के रूप में वे पूजे जायेंगे. इसे तो मैं घोर भ्रम समझता हूं और जिस निर्णय पर मैं 15 वर्षों के बाद पहुंचा हूं उस पर वह भी कभी ना कभी आएंगे. कुरुक्षेत्र के विरुद्ध चाहे तो वो एक लेखमाला आरम्भ कर दें, जिसके लिए स्थान में ‘राष्ट्रवाणी’ में ही दिलवा दूंगा. मगर ईश्वर के नाम पर वे भाषा में शिष्टता लाएं और कोई ऐसा काम ना करें जिससे उन्हें बाद को चलकर लज्जित होना पड़े.

मैंने उन्हें आत्मीय समझा है इसीलिए ये बातें लिख रहा हूँ. प्रेमी भी परस्पर एक दूसरे की आलोचना कर सकते हैं किन्तु ऐसी भाषा में नहीं जिससे जग हंसाई हो. मैंने जीवन भर में किसी आलोचक के लिए कोई पत्र नहीं लिखा था, यह पहला पत्र है. साहित्य में विचार स्वातंत्र्य रहना चाहिए मगर गाली-गलौज या मुंह चिढ़ाना विचार स्वातंत्र्य नहीं है.

श्री बनारसीदास चतुर्वेदी को पत्र – 6-1-36
अपने मित्रों में मैं जरा इमोशनल कहलाता हूं इसीलिए लोग मुझे ऐसी बात कहने या ऐसी चीज दिखाने से डरते हैं जिससे मुझे दुख होने की संभावना हो. अभी हाल ही में मैं शिवपूजन जी से मिला था. तब तक साप्ताहिक विश्वमित्र में निर्झरिणी की निंदा छप चुकी थी. शिवपूजन जी ने मुझे वह लेख देखने नहीं दिया. कहने लगे जब लोग तुम्हारी निंदा खुलकर करने लगे तब तुम समझो कि तुम्हारी लेखनी सफल हुई. इसे तो मैं अपना सौभाग्य ही समझता हूं कि भाव, कुभाव, अनख, आलसहूँ ‘रेणुका’ का नाम दस भले लोगों के मुंह पर आ जाता है.

आप विश्वास रखें आप पूज्यों की कृपा से मुझ में इतनी ताकत जरूर है कि अखबारों में रोज निकलने वाली पंक्तियां मुझे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती. कोई प्रशंसा ऐसी नहीं जो मुझे याद रहे, कोई निंदा ऐसी नहीं जो मुझे उभार दे.  नास्ति का परिणाम नास्ति है. कुछ नहीं से कुछ की उत्पत्ति नहीं हो सकती.

मैं रेणुका के दोषों को भली भांति जानता हूं. उसमें कलाविदों को पद पद पर अनुभवहीनता, इमैच्युरीटी  और कहीं-कहीं भाषा संबंधी कमजोरियां मिलेंगी. कीट्स के शब्दों में It is a foolish attempt, rather than a deed accomplished.

मैं जो कुछ चाहता हूं जो कुछ सोचता हूं उसे ठीक मनचाहे रूप में अब तक उभार नहीं सका हूं. इस चेष्टा का एक अस्पष्ट रुप मेरी आंखों के सामने बराबर टंगा रहता है. इधर मुझे ऐसा जान पड़ता है की शुद्ध भाषा लिखने की ट्रेनिंग मुझे और लेनी चाहिए. भरसक कोशिश कर रहा हूं. कविताएं शिवपूजन जी से दिखाकर छपाया करूंगा. आप इस विचार को कैसा समझते हैं ? मेरे विचार से शिवपूजन जी की जैसी चार्टर्ड हिंदी लिखने वाला विरला ही होगा.

लेखक के रूप में दिनकरजी सदा पाठकों की तरफ से सोचते रहे. उनके कुछ पत्र इशारा करते हैं की किस तरह उन्होंने छोटी छोटी बातों का ख्याल रखा.

आचार्य शिवपूजन सहाय को पत्र – 15-8-38

छपाई के विषय में आप और महारथी जी हैं ही, मुझे कुछ करना नहीं रह जाता.  तो भी आवरण पर का चित्र कुछ स्थूल है. उजले या हल्के रंग के आवरण पर रेखाचित्र रहता तो अधिक सुंदर होता. क्या इसका आकार छोटा नहीं किया जा सकता? दाम दो रुपए रख रहे हैं तो पृष्ठ संख्या कम से कम 150 होनी चाहिए और कागज भी ऐसा होना चाहिए कि ₹2 के लायक हो. आकार भी भारी भरकम हो. छपाई को घनी रखना अच्छा नहीं लगता उसे अधिक पतली कर दीजिएगा 

आचार्य कपिल को उनकी पत्रिका ‘प्राची’ के सम्बन्ध में पत्र – 24-4-51

आवरण पर से आप मिट्टी के छोटे माधव को हटा ही दें. भीतर संकलन और संपादन में जो गांभीर्य है उसके अनुरूप ऊपर का आवरण सादा ही रहना चाहिए अथवा हल्की रेखाओं में कोई छोटा स्केच रहे तो ठीक है. आपका उद्देश्य कदाचित यह है कि शिक्षण संस्थाओं में जो प्रश्न और समस्याएं हैं डटकर उन्हीं पर प्रकाश डाला जाए. यह एक उपयोगी काम है मगर स्टैंडर्ड को जरा ऊपर ले जाइए तथा इस प्रकार की समस्याओं पर भी लेख लिखवाईए जैसे
१.     छायावाद का जन्म कब हुआ तथा उसके आदि कवि कौन है?
२.      नई कविता हिंदी की परंपरा में आई है अथवा आकस्मिक रुप से?
३.      हिंदी गद्य के क्षेत्र में उस नेतृत्व को प्रधानता मिलनी चाहिए जो बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त तथा गुलेरी जी के द्वारा दिया गया अथवा उसे जो रामचंद्र शुक्ल एवं प्रसाद की देन है.
४.      यह बात कहां तक ठीक है कि उर्दू में से फारसी और अरबी शब्दों को हटा कर हिंदी बना दी गई है?
५.      रसवादी आलोचना पद्धति में क्या संशोधन किया जाए की वह आधुनिक साहित्य की व्याख्या में सफल हो?
६.      रीतिकालीन साहित्य का मूल्यांकन, नई समीक्षा की कसौटी पर
७.     भाषा सम्बन्धी दुष्प्रयोगों पर रोक लगाने के लिए आंदोलन       

साहित्य जगत में इतना बड़ा नाम होने के बाद भी, दिनकरजी स्वभाव से सरल रहे.

संपादक – धर्मयुग 1972 

सेक्सपियर ने तीन तरह के बड़ों का उल्लेख किया है. एक वह जो बड़ा पैदा होता है, दूसरा वह जो बड़प्पन हासिल करता है और तीसरा वह जिसपर बड़प्पन  थोप दिया जाता है. एक चौथा व्यक्ति भी हो सकता है जो बड़े वंश का होने के कारण  या साधन संपन्न होने के कारण बड़प्पन को दबोच लेता है.  अपने जानते मैं इनमें से किसी भी कोटि में नहीं आता हूं असल में मैं महान-टहान  हूं ही नहीं. मैं तो मामूली गृहस्त हूं जो नौकरियां करके अपना और अपने परिवार का पेट पालता रहा है और वंश में जन्मी कन्याओं का विवाह रचवाता  रहा है. कुरुक्षेत्र और उर्वशी की रचना मेरी असली उपलब्धि नहीं है. मेरी वास्तविक उपलब्धि यह है कि परिवार के शकट को हाँफ- हाँफ कर खींचते हुए मैंने 9 लड़कियों के ब्याह रचवाएं हैं, अगर यह मेरी महत्ता है तो मैं उसे स्वीकार करता हूं.

श्री राजेन्द्र प्रसाद सिंह को पत्र – 10-2-70

1964 में जब मुझे सब रजिस्ट्रार का ऑफर आया, बेनीपुरी ने सलाह दी कि कुबूल मत करो. सरकारी नौकरी में जाकर अपने कवि की हत्या ही करोगे. यह बहुत ही नेक सलाह थी. लेकिन मैं उस पर चल नहीं सका.  सारी जिंदगी परिवार की गरीबी से जूझने में बीत गई. जिस समय लोग ताश और बैडमिंटन खेलते हैं, उस समय को भी मैंने साहित्य में लगाया. बस इतना ही काम  मुझसे हो सका और कृति मुझे क्षमता से अधिक मिल गई. कारण शायद यह था कि मैंने अपने आप को अमरता के अयोग्य पाकर उन कामों को खूब मनोयोग से किया जिनकी मुझ में योग्यता थी. अमर बनने का मंसूबा पालता तो वह काम भी नहीं हो पाता जिसे ईश्वर ने मुझसे करवा लिया है. जिस युग में पैदा हुआ उसकी योग्यता और सम्मान को समझने में मैंने गलती नहीं की है, इसका मुझे विश्वास है. मुश्किल यह है कि निराला के आए बिना साहित्य की परिधि विस्तृत नहीं हो पाती, किंतु हर आदमी निराला बनने की कोशिश में फस जाए तो साहित्य ठिठक जाएगा. बस इतना ही आत्मज्ञान हम सबको हासिल करना है

डा० विवेकीराय को पत्र – 1 – 1 -  58 

शासन की छाया मेरे लिए नहीं है. हां मेरे आलोचकों को यह बुरा अवश्य लगा कि मैं संसद का सदस्य क्यों हो गया. मैं स्कूल का शिक्षक था, सब रजिस्ट्रार था, युद्ध के समय प्रचार अफसर था, कांग्रेसी सरकार का प्रचार अफसर था और सबके बाद में प्रोफेसर. क्या यह सभी पद रचनात्मक प्रतिभा के उपयुक्त हैं?  और तो और आपने प्रोफेसरी करते हुए कितने कवियों को अच्छी कविताएं लिखते देखा है? मगर जब मैं इन पदों पर था लोग समझते थे मैं ठीक जगह पर हूं. केवल उन्हें लगता है कि मैं खतरों के बीच हूं. ठीक जगह कवि को कहां मिलती है? कविता का मेल किसी भी पद से नहीं बैठता और साहस तथा शक्ति हो तो सभी पदों से बैठता है. कम से कम मेरा तो यही अनुभव है, नौकरी (और उसके साथ लक्ष्य मूल पेंशन) का मोह मैंने 1952 में छोड़ी, तब से मेरी पुस्तकें कौन कौन सी निकली हैं -  नील कुसुम, संस्कृति के चार अध्याय, नीम के पत्ते, दिल्ली, रेती के फूल, चक्रवाल, उजली आग, .... 5 साल में 14 पुस्तकें क्या कम होती हैं? मगर अब हिंदी में पढ़ता कौन है?

बिहार में जाति प्रथा और उसके दुष्प्रभाव से भी वे चिंतित रहे 

श्री रामसागर चौधरी को  पत्र – 4-3-61

अपनी जाति का आदमी अच्छा और दूसरी जाति का बुरा होता है यह सिद्धांत मानकर चलने वाला आदमी, छोटे मिजाज का आदमी होता है. आप लोग, यानी सभी जातियों के नौजवान, इस छोटे पन से बचिए.  प्रजातंत्र का नियम है कि जो नेता चुना जाता है सभी वर्गों के लोग उससे न्याय की आशा करते हैं. कुख्यात प्रांत बिहार को सुधारने का सबसे अच्छा रास्ता यह है कि लोग जातियों को भूलकर गुणवान के आदर में एक हों.  याद रखिए कि एक या दो जातियों के समर्थन से राज नहीं चलता. वह बहुतों के समर्थन से चलता है. यदि जातिवाद से हम ऊपर नहीं उठे, तो बिहार का सार्वजनिक जीवन गल जाएगा.

वीर रस का कवि होते हुए भी गांधीजी के प्रति उनका बहुत आदर रहा. भारत पाकिस्तान के बंटवारे से उन्हें दंश पहुंचा था. पाकिस्तान से बांग्लादेश के अलग हो जाने के बाद उन्होंने आचार्य कपिल को पत्र लिखा था

आचार्य कपिल को पत्र - 21-12-71

स्थान का अखाड़ा छोटा, काल का अखाड़ा बड़ा होता है. बड़े अखाड़े के पहलवान, छोटे अखाड़े में लड़े तो उनके हारने का डर रहता है. गांधीजी जिन्ना से स्थान के अखाड़े में लड़े थे इसलिए वे हार गए. नगर बांग्लादेश का अखाड़ा काल का अखाड़ा है. मुक्ति वाहिनी काल के उदर से जन्मी हुई फौज है. इस अखाड़े में जीत गांधी की हुई है, जिन्ना हार गए हैं. आपको मेरा एक पद याद है?
 स्थान में संघर्ष हो तो क्षुद्रता भी जीतती है
पर संयम के युद्ध में वह हार जाती है
जीत ले दिक् में जिन्ना
, पर अंत में बापू, तुम्हारी
जीत होगी काल के चौड़े अखाड़े में

संतोष की बात है कि मैंने जीते जी अपनी भविष्यवाणी को सच होते देख लिया.

हिंदी को कठिन संस्कृत के शब्दों से बाहर निकाल कर उसे जन मानस में व्यापक स्वीकार्यता दिलाने पर उनका सदैव प्रयास रहा. धर्मयुग के संपादक तो लिखे उनके पत्र में ये विषय समाहित है.

संपादक – धर्मयुग 1972 
मुख्य विषय यह है कि हिंदी को संस्कृत निष्ठ होना चाहिए या नहीं. पूज्य पंडित मदन मोहन मालवीय के चरणों तक पहुंचने का सुयोग मुझे नहीं मिला था, किंतु पूजनीय टंडन जी की संगति मुझे थोड़ी मिली थी. टंडन जी आसान हिंदी के पक्ष पाती थे मैं भी आसान हिंदी चाहता हूं और मानता हूं यह आदर्श हिंदी अमृतलाल नागर लिख रहे हैं, कमलेश्वर लिख रहे हैं, हरिशंकर परसाई लिख रहे हैं और सबसे बढ़कर अमृतराय लिख रहे हैं. किंतु हुआ क्या? संसदीय कार्यों के लिए जब-जब हिंदी शब्दों की जरूरत पड़ी, स्पीकर महोदय ने विद्वानों की एक बड़ी समिति का निर्माण किया और टंडन जी को उसका अध्यक्ष बना दिया. इस समिति में भारत के सभी भाषाओं के विद्वान रखे गए थे और समिति की कोशिश यह थी कि शब्द जहां तक संभव हो आसान रखे जाएं. किंतु हिंदी के प्रतिनिधियों की समिति में चली नहीं. अहिंदी भाषी विद्वान कदम कदम पर अड़ते रहे कि शब्द संस्कृत के ही होने चाहिए नहीं तो उन्हें सार्वदेशिक स्वीकृति नहीं मिलेगी और अंततः समिति ने जो शब्दकोश तैयार किया उसमे बहुलता संस्कृत शब्दों की ही रही.
इतने दिनों का मेरा अनुभव यह बतलाता है कि या तो हिंदी राजभाषा के रुप में सफल ही नहीं होगी या होगी तो संस्कृतनिष्ठ  होकर ही होगी

दिनकरजी, अपनी प्रशंसा से सदैव बचते रहे पर एक पत्र में उन्होंने अपनी ख़ुशी जाहिर की है. पर यहाँ भी उनकी ख़ुशी एक कवि के रूप में उनको मिले सम्मान से है न की व्यक्तिगत प्रशंसा से.

ब्रज किशोर नारायण को पत्र पोलैंड से – 29-11-55

रात जब मैं कविता पढ़ने को उठा तो मुझ पर नशा छा गया. न जाने संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रभाव था या उस छंद का चमत्कार या मेरे स्वर में सरस्वती प्रविष्ट हो गई थी. जब तक मैं कविता पढ़ता रहा लोग आनंद से झूमते रहे और ज्यों ही  पढ़ना खत्म किया कि तालियों की भयानक गड़गड़ाहट शुरू हो गई जो देर तक चलती रही. 
जो कुछ देख रहा हूं उससे विचारों की नींव पर बुरा असर पड़ रहा है. शक्ति के बिना अनुशासन नहीं, अनुशासन के बिना काम नहीं और काम के बिना प्रगति नहीं. यहां के कवि और कलाकार देश के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं. वहां भारत में हम मिनिस्टर से भी सस्ते और आलू गोभी से भी हीन माने जाते हैं .
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उनके लिखे हजार से भी ऊपर पत्र, आज की पीढ़ी के लिए उतने ही अमूल्य धरोहर हैं जितने की उनके द्वारा लिखे गए साहित्य.   










प्रवीण प्रणव


1 comment:

  1. सरिता सुराणा ,२४/०९/२०१६
    दिनकर जी के पत्र वास्तव में ही हमारे लिए अमूल्य धरोहर है ,इतनी अच्छी जानकारी देने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद .

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