संपादक-
मिथिलेश वामनकर
जन्म
काल
महान कवि तुलसीदास
की प्रतिभा-किरणों से न केवल हिन्दू समाज और भारत,
बल्कि समस्त संसार आलोकित
हो रहा है। बड़ा अफसोस है कि उसी कवि का जन्म-काल विवादों के अंधकार में पड़ा हुआ
है। अब तक प्राप्त शोध-निष्कर्ष भी हमें निश्चितता प्रदान करने में असमर्थ दिखाई
देते हैं। मूलगोसाईं-चरित के तथ्यों के आधार पर डा० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल और
श्यामसुंदर दास तथा किसी जनश्रुति के आधार पर “मानसमयंक’ – कार भी १५५४ का ही
समर्थन करते हैं। इसके पक्ष में मूल गोसाईं-चरित की निम्नांकित पंक्तियों का विशेष
उल्लेख किया जाता है।
पंद्रह सै चौवन
विषै, कालिंदी के तीर,
सावन सुक्ला सत्तमी, तुलसी
धरेउ शरीर ।
तुलसीदास
की जन्मभूमि
तुलसीदास की
जन्मभूमि होने का गौरव पाने के लिए अब तक राजापुर (बांदा), सोरों
(एटा), हाजीपुर (चित्रकूट के निकट), तथा
तारी की ओर से प्रयास किए गए हैं। संत तुलसी साहिब के आत्मोल्लेखों, राजापुर
के सरयूपारीण ब्राह्मणों को प्राप्त “मुआफी’ आदि बहिर्साक्ष्यों और अयोध्याकांड
(मानस) के तायस प्रसंग, भगवान राम के वन गमन के क्रम में यमुना
नदी से आगे बढ़ने पर व्यक्त कवि का भावावेश आदि अंतर्साक्ष्यों तथा तुलसी-साहित्य
की भाषिक वृत्तियों के आधार पर रामबहोरे शुक्ल राजापुर को तुलसी की जन्मभूमि होना
प्रमाणित हुआ है।
रामनरेश त्रिपाठी
का निष्कर्ष है कि तुलसीदास का जन्म स्थान सोरों ही है। सोरों में तुलसीदास के
स्थान का अवशेष, तुलसीदास के भाई नंददास के उत्तराधिकारी
नरसिंह जी का मंदिर और वहां उनके उत्तराधिकारियों की विद्यमानता से त्रिपाठी और
गुप्त जी के मत को परिपुष्ट करते हैं।
जाति
एवं वंश
जाति और वंश के
सम्बन्ध में तुलसीदास ने कुछ स्पष्ट नहीं लिखा है। कवितावली एवं विनयपत्रिका में
कुछ पंक्तियां मिलती हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि वे ब्राह्मण
कुलोत्पन्न थे-
दियो सुकुल जनम
सरीर सुदर हेतु जो फल चारि को
जो पाइ पंडित परम
पद पावत पुरारि मुरारि को ।
(विनयपत्रिका)
भागीरथी जलपान करौं
अरु नाम द्वेै राम के लेत नितै हों ।
मोको न लेनो न देनो
कछु कलि भूलि न रावरी और चितैहौ ।।जानि के जोर करौं परिनाम तुम्हैं पछितैहौं पै
मैं न भितैहैं
बाह्मण ज्यों
उंगिल्यो उरगारि हौं त्यों ही तिहारे हिए न हितै हौं।
जाति-पांति का
प्रश्न उठने पर वह चिढ़ गये हैं। कवितावली की निम्नांकित पंक्तियों में उनके अंतर
का आक्रोश व्यक्त हुआ है –
“”धूत कहौ अवधूत
कहौ रजपूत कहौ जोलहा कहौ कोऊ काहू की बेटी सों बेटा न व्याहब,
काहू की जाति
बिगारी न सोऊ।”
“”मेरे जाति-पांति
न चहौं काहू का जाति-पांति,
मेरे कोऊ काम को न
मैं काहू के काम को ।”
राजापुर से प्राप्त
तथ्यों के अनुसार भी वे सरयूपारीण थे। तुलसी साहिब के आत्मोल्लेख एवं मिश्र बंधुओं
के अनुसार वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। जबकि सोरों से प्राप्त तथ्य उन्हें सना
ब्राह्मण प्रमाणित करते है, लेकिन “दियो सुकुल जनम सरीर सुंदर हेतु
जो फल चारि को’ के आधार पर उन्हें शुक्ल ब्राह्मण कहा जाता है। परंतु शिवसिंह
“सरोज’ के अनुसार सरबरिया ब्राह्मण थे।ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होने के कारण कवि
ने अपने विषय में “जायो कुल मंगन’ लिखा है। तुलसीदास का जन्म अर्थहीन ब्राह्मण
परिवार में हुआ था, जिसके पास जीविका का कोई ठोस आधार और साधन
नहीं था। माता-पिता की स्नेहिल छाया भी सर पर से उठ जाने के बाद भिक्षाटन के लिए
उन्हें विवश होना पड़ा।
माता–पिता
तुलसीदास के माता
पिता के संबंध में कोई ठोस जानकारी नहीं है। प्राप्त सामग्रियों और प्रमाणों के
अनुसार उनके पिता का नाम आत्माराम दूबे था। किन्तु भविष्यपुराण में उनके पिता का
नाम श्रीधर बताया गया है। रहीम के दोहे के आधार पर माता का नाम हुलसी बताया जाता
है।
सुरतिय नरतिय
नागतिय, सब चाहत अस होय ।
गोद लिए हुलसी
फिरैं, तुलसी सों सुत होय ।।
गुरु
तुलसीदास के गुरु
के रुप में कई व्यक्तियों के नाम लिए जाते हैं। भविष्यपुराण के अनुसार राघवानंद, विलसन
के अनुसार जगन्नाथ दास, सोरों से प्राप्त तथ्यों के अनुसार नरसिंह
चौधरी तथा ग्रियर्सन एवं अंतर्साक्ष्य के अनुसार नरहरि तुलसीदास के गुरु थे।
राघवनंद के एवं जगन्नाथ दास गुरु होने की असंभवता सिद्ध हो चुकी है। वैष्णव
संप्रदाय की किसी उपलब्ध सूची के आधार पर ग्रियर्सन द्वारा दी गई सूची में, जिसका
उल्लेख राघवनंद तुलसीदास से आठ पीढ़ी पहले ही पड़ते हैं। ऐसी परिस्थिति में
राघवानंद को तुलसीदास का गुरु नहीं माना जा सकता।
सोरों से प्राप्त
सामग्रियों के अनुसार नरसिंह चौधरी तुलसीदास के गुरु थे। सोरों में नरसिंह जी के
मंदिर तथा उनके वंशजों की विद्यमानता से यह पक्ष संपुष्ट हैं। लेकिन महात्मा बेनी
माधव दास के “मूल गोसाईं-चरित’ के अनुसार हमारे कवि के गुरु का नाम नरहरि है।
बाल्यकाल
और आर्थिक स्थिति
तुलसीदास के जीवन
पर प्रकाश डालने वाले बहिर्साक्ष्यों से उनके माता-पिता की सामाजिक और आर्थिक
स्थिति पर प्रकाश नहीं पड़ता। केवल “मूल गोसाईं-चरित’ की एक घटना से उनकी चिंत्य
आर्थिक स्थिति पर क्षीण प्रकाश पड़ता है। उनका यज्ञोपवीत कुछ ब्राह्मणों ने सरयू के
तट पर कर दिया था। उस उल्लेख से यह प्रतीत होता है कि किसी सामाजिक और जातीय
विवशता या कर्तव्य-बोध से प्रेरित होकर बालक तुलसी का उपनयन
जाति वालों ने कर
दिया था।
तुलसीदास का
बाल्यकाल घोर अर्थ-दारिद्रय में बीता। भिक्षोपजीवी परिवार में उत्पन्न होने के
कारण बालक तुलसीदास को भी वही साधन अंगीकृत करना पड़ा। कठिन अर्थ-संकट से गुजरते
हुए परिवार में नये सदस्यों का आगमन हर्षजनक नहीं माना गया –
जायो कुल मंगन बधावनो
बजायो सुनि,
भयो परिताप पाय
जननी जनक को ।
बारें ते ललात
बिललात द्वार-द्वार दीन,
जानत हौं चारि फल
चारि ही चनक को ।
(कवितावली)
मातु पिता जग जाय
तज्यो विधि हू न लिखी कछु भाल भलाई ।
नीच निरादर भाजन
कादर कूकर टूकनि लागि ललाई ।
राम सुभाउ सुन्यो
तुलसी प्रभु, सो कह्यो बारक पेट खलाई ।
स्वारथ को परमारथ
को रघुनाथ सो साहब खोरि न लाई ।।
होश संभालने के
पुर्व ही जिसके सर पर से माता – पिता के वात्सल्य और संरक्षण की छाया सदा -सर्वदा
के लिए हट गयी, होश संभालते ही जिसे एक मुट्ठी अन्न के लिए
द्वार-द्वार विललाने को बाध्य होना पड़ा,
संकट-काल उपस्थित देखकर
जिसके स्वजन-परिजन दर किनार हो गए,
चार मुट्ठी चने भी जिसके
लिए जीवन के चरम प्राप्य (अर्थ, धर्म,
काम और मोक्ष) बन गए, वह
कैसे समझे कि विधाता ने उसके भाल में भी भलाई के कुछ शब्द लिखे हैं। उक्त पदों में
व्यंजित वेदना का सही अनुभव तो उसे ही हो सकता है,
जिसे उस दारुण परिस्थिति
से गुजरना पड़ा हो। ऐसा ही एक पद विनयपत्रिका में भी मिलता है –
द्वार-द्वार दीनता
कही काढि रद परिपा हूं
हे दयालु, दुनी
दस दिसा दुख-दोस-दलन-छम कियो संभाषन का हूं ।
तनु जन्यो कुटिल
कोट ज्यों तज्यों मातु-पिता हूं ।
काहे को रोष-दोष
काहि धौं मेरे ही अभाग मो सी सकुचत छुइ सब छाहूं ।
(विनयपत्रिका, २७५)
तुलसीदास के जीवन
की कुछ घटनाएं एवं तिथियां भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। कवि के जीवन-वृत्त और
महिमामय व्यक्तित्व पर उनसे प्रकाश पड़ता है।
यज्ञोपवीत
मूल गोसाईं चरित के
अनुसार तुलसीदास का यज्ञोपवीत माघ शुक्ला पंचमी सं० १५६१ में हुआ –
पन्द्रह सै इकसठ
माघसुदी। तिथि पंचमि औ भृगुवार उदी ।
सरजू तट विप्रन
जग्य किए। द्विज बालक कहं उपबीत किए ।।
कवि के माता – पिता
की मृत्यु कवि के बाल्यकाल में ही हो गई थी।
विवाह
जनश्रुतियों एवं
रामायणियों के विश्वास के अनुसार तुलसीदास विरक्त होने के पूर्व भी कथा-वाचन करते
थे। युवक कथावाचक की विलक्षण प्रतिभा और दिव्य भगवद्भक्ति से प्रभावित होकर
रत्नावली के पिता पं० दीन बंधु पाठक ने एक दिन,
कथा के अन्त में, श्रोताओं
के विदा हो जाने पर, अपनी बारह वर्षीया कन्या उसके चरणों में
सौंप दी। मूल गोसाईं चरित के अनुसार रत्नावली के साथ युवक तुलसी का यह वैवाहिक
सूत्र सं० १५८३ की ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी,
दिन गुरुवार को जुड़ा था –
पंद्रह सै पार
तिरासी विषै ।
सुभ जेठ सुदी गुरु
तेरसि पै ।
अधिराति लगै जु
फिरै भंवरी ।
दुलहा दुलही की परी
पंवरी ।।
आराध्य–दर्शन
भक्त शिरोमणि
तुलसीदास को अपने आराध्य के दर्शन भी हुए थे। उनके जीवन के वे सर्वोत्तम और महत्तम
क्षण रहे होंगे। लोक-श्रुतियों के अनुसार तुलसीदास को आराध्य के दर्शन चित्रकूट
में हुए थे। आराध्य युगल राम – लक्ष्मण को उन्होंने तिलक भी लगाया था –
चित्रकूट के घाट पै, भई
संतन के भीर ।
तुलसीदास चंदन घिसै, तिलक
देत रघुबीर ।।
मूल गोसाईं चरित के
अनुसार कवि के जीवन की वह पवित्रतम तिथि माघ अमावस्या (बुधवार), सं०
१६०७ को बताया गया है।
सुखद अमावस मौनिया, बुध
सोरह सै सात ।
जा बैठे तिसु घाट
पै, विरही होतहि प्रात ।।
गोस्वामी तुलसीदास
के महिमान्वित व्यक्तित्व और गरिमान्वित साधना को ज्योतित करने वाली एक और घटना का
उल्लेख मूल गोसाईं चरित में किया गया है। तुलसीदास नंददास से मिलने बृंदावन
पहुंचे। नंददास उन्हें कृष्ण मंदिर में ले गए। तुलसीदास अपने आराध्य के अनन्य भक्त
थे। तुलसीदास राम और कृष्ण की तात्त्विक एकता स्वीकार करते हुए भी राम-रुप श्यामघन
पर मोहित होने वाले चातक थे। अतः घनश्याम कृष्ण के समक्ष नतमस्तक कैसे होते। उनका
भाव-विभोर कवि का कण्ठ मुखर हो उठा –
कहा कहौं छवि आज की, भले
बने हो नाथ ।
तुलसी मस्तक तब नवै, जब
धनुष बान लो हाथ ।।
इतिहास साक्षी दे
या नहीं द, किन्तु लोक-श्रुति साक्षी देती है कि कृष्ण
की मूर्ति राम की मूर्ति में बदल गई थी।
रत्नावली
का महाप्रस्थान
रत्नावली का
बैकुंठगमन ‘मूल गोसाईं चरित’ के अनुसार सं० १५८९ में हुआ। किंतु राजापुर की
सामग्रियों से उसके दीर्घ जीवन का समर्थन होता है।
मीराबाई
का पत्र
महात्मा बेनी माधव
दास ने मूल गोसाईं चरित में मीराबाई और तुलसीदास के पत्राचार का उल्लेख किया किया
है। अपने परिवार वालों से तंग आकर मीराबाई ने तुलसीदास को पत्र लिखा। मीराबाई पत्र
के द्वारा तुलसीदास से दीक्षा ग्रहण करनी चाही थी। मीरा के पत्र के उत्तर में
विनयपत्रिका का निम्नांकित पद की रचना की गई।
जाके प्रिय न राम
वैदेही
तजिए ताहि कोटि
बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।
सो छोड़िये
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषन
बंधु, भरत महतारी ।
बलिगुरु तज्यो कंत
ब्रजबनितन्हि, भये मुद मंगलकारी ।
नाते नेह राम के
मनियत सुहृद सुसेव्य जहां लौं ।
अंजन कहां आंखि
जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहां लौं ।
तुलसी सो सब भांति
परमहित पूज्य प्रान ते प्यारो ।
जासों हाय सनेह
राम-पद, एतोमतो हमारो ।।
तुलसीदास ने
मीराबाई को भक्ति-पथ के बाधकों के परित्याग का परामर्श दिया था।
केशवदास
से संबद्ध घटना
मूल गोसाईं चरित के
अनुसार केशवदास गोस्वामी तुलसीदास से मिलने काशी आए थे। उचित सम्मान न पा सकने के
कारण वे लौट गए।
अकबर
के दरबार में बंदी बनाया जाना
तुलसीदास की ख्याति
से अभिभूत होकर अकबर ने तुलसीदास को अपने दरबार में बुलाया और कोई चमत्कार
प्रदर्शित करने को कहा। यह प्रदर्शन-प्रियता तुलसीदास की प्रकृति और प्रवृत्ति के
प्रतिकूल थी, अतः ऐसा करने से उन्होंने इनकार कर दिया। इस
पर अकबर ने उन्हें बंदी बना लिया। तदुपरांत राजधानी और राजमहल में बंदरों का
अभूतपूर्व एवं अद्भुत उपद्रव शुरु हो गया। अकबर को बताया गया कि यह हनुमान जी का
क्रोध है। अकबर को विवश होकर तुलसीदास को मुक्त कर देना पड़ा।
जहांगीर
को तुलसी–दर्शन
जिस समय वे अनेक विरोधों
का सामना कर सफलताओं और उपलब्धियों के सर्वोच्च शिखर का स्पर्श कर रहे थे, उसी
समय दर्शनार्थ जहांगीर के आने का उल्लेख किया गया मिलता है।
दांपत्य
जीवन
सुखद दांपत्य जीवन
का आधार अर्थ प्राचुर्य नहीं, पति -पत्नि का पारस्परिक प्रेम, विश्वास
और सहयोग होता है। तुलसीदास का दांपत्य जीवन आर्थिक विपन्नता के बावजूद संतुष्ट और
सुखी था। भक्तमाल के प्रियादास की टीका से पता चलता है कि जीवन के वसंत काल में
तुलसी पत्नी के प्रेम में सराबोर थे। पत्नी का वियोग उनके लिए असह्य था। उनकी
पत्नी-निष्ठा दिव्यता को उल्लंघित कर वासना और आसक्ति की ओर उन्मुख हो गई थी।
रत्नावली के मायके
चले जाने पर शव के सहारे नदी को पार करना और सपं के सहारे दीवाल को लांघकर अपने
पत्नी के निकट पहुंचना। पत्नी की फटकार ने भोगी को जोगी, आसक्त
को अनासक्त, गृहस्थ को सन्यासी और भांग को भी तुलसीदल
बना दिया। वासना और आसक्ति के चरम सीमा पर आते ही उन्हें दूसरा लोक दिखाई पड़ने
लगा। इसी लोक में उन्हें मानस और विनयपत्रिका जैसी उत्कृष्टतम रचनाओं की प्रेरणा
और सिसृक्षा मिली।
वैराग्य
की प्रेरणा
तुलसीदास के
वैराग्य ग्रहण करने के दो कारण हो सकते हैं। प्रथम,
अतिशय आसक्ति और वासना की
प्रतिक्रिया ओर दूसरा, आर्थिक विपन्नता। पत्नी की फटकार ने
उनके मन के समस्त विकारों को दूर कर दिया। दूसरे कारण विनयपत्रिका के निम्नांकित
पदांशों से प्रतीत होता है कि आर्थिक संकटों से परेशान तुलसीदास को देखकर सन्तों
ने भगवान राम की शरण में जाने का परामर्श दिया –
दुखित देखि संतन
कह्यो, सोचै जनि मन मोहूं
तो से पसु पातकी
परिहरे न सरन गए रघुबर ओर निबाहूं ।।तुलसी तिहारो भये भयो सुखी प्रीति-प्रतीति
विनाहू ।
नाम की महिमा, सीलनाथ
को, मेरो भलो बिलोकि, अबतें
।।
रत्नावली ने भी कहा
था कि इस अस्थि – चर्ममय देह में जैसी प्रीति है,
ऐसी ही प्रीति अगर भगवान
राम में होती तो भव-भीति मिट जाती। इसीलिए वैराग्य की मूल प्रेरणा भगवदाराधन ही
है।
तुलसी
का निवास – स्थान
विरक्त हो जाने के
उपरांत तुलसीदास ने काशी को अपना मूल निवास-स्थान बनाया। वाराणसी के तुलसीघाट, घाट
पर स्थित तुलसीदास द्वारा स्थापित अखाड़ा,
मानस और विनयपत्रिका के
प्रणयन-कक्ष, तुलसीदास द्वारा प्रयुक्त होने वाली नाव के
शेषांग, मानस की १७०४ ई० की पांडुलिपि, तुलसीदास
की चरण-पादुकाएं आदि से पता चलता है कि तुलसीदास के जीवन का सर्वाधिक समय यहीं
बीता। काशी के बाद कदाचित् सबसे अधिक दिनों तक अपने आराध्य की जन्मभूमि अयोध्या
में रहे। मानस के कुछ अंश का अयोध्या में रचा जाना इस तथ्य का पुष्कल प्रमाण है।
तीर्थाटन के क्रम
में वे प्रयाग, चित्रकूट,
हरिद्वार आदि भी गए।
बालकांड के “”दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि-भरि कांवर चले कहारा” तथा “सूखत धान परा
जनु पानी” से उनका मिथिला-प्रवास भी सिद्ध होता है। धान की खेती के लिए भी मिथिला
ही प्राचीन काल से प्रसिद्ध रही है। धान और पानी का संबंध-ज्ञान बिना मिथिला में
रहे तुलसीदास कदाचित् व्यक्त नहीं करते। इससे भी साबित होता है कि वे मिथिला में
रहे।
विरोध
और सम्मान
जनश्रुतियों और
अनेक ग्रंथों से पता चलता है कि तुलसीदास को काशी के कुछ अनुदार पंडितों के प्रबल
विरोध का सामना करना पड़ा था। उन पंडितों ने रामचरितमानस की पांडुलिपि को नष्ट करने
और हमारे कवि के जीवन पर संकट ढालने के भी प्रयास किए थे। जनश्रुतियों से यह भी
पता चलता है कि रामचरितमानस की विमलता और उदात्तता के लिए विश्वनाथ जी के मन्दिर
में उसकी पांडुलिपि रखी गई थी और भगवान विश्वनाथ का समर्थन मानस को मिला था।
अन्ततः, विरोधियों को तुलसी के सामने नतमस्तक होना
पड़ा था। विरोधों का शमन होते ही कवि का सम्मान दिव्य-गंध की तरह बढ़ने और फैलने
लगा। कवि के बढ़ते हुए सम्मान का साक्ष्य कवितावली की निम्नांकित पंक्तियां भी
देती हैं –
जाति के सुजाति के
कुजाति के पेटागिबस
खाए टूक सबके विदित
बात दुनी सो ।
मानस वचनकाय किए
पाप सति भाय
राम को कहाय दास
दगाबाज पुनी सो ।राम नाम को प्रभाउ पाउ महिमा प्रताप
तुलसी से जग मानियत
महामुनी सो ।
अति ही अभागो
अनुरागत न राम पद
मूढ़ एतो बढ़ो अचरज
देखि सुनी सो ।।
(कवितावली, उत्तर, ७२)
तुलसी अपने
जीवन-काल में ही वाल्मीकि के अवतार माने जाने लगे थे –
त्रेता काव्य निबंध
करिव सत कोटि रमायन ।
इक अच्छर उच्चरे
ब्रह्महत्यादि परायन ।।पुनि भक्तन सुख देन बहुरि लीला विस्तारी ।
राम चरण रस मत्त
रहत अहनिसि व्रतधारी ।
संसार अपार के पार
को सगुन रुप नौका लिए ।
कलि कुटिल जीव
निस्तार हित बालमीकि तुलसी भए ।।
(भक्तमाल, छप्पय
१२९)
पं० रामनरेश
त्रिपाठी ने काशी के सुप्रसिद्ध विद्वान और दार्शनिक श्री मधुसूदन सरस्वती को
तुलसीदास का समसामयिक बताया है। उनके साथ उनके वादविवाद का उल्लेख किया है और मानस
तथा तुलसी की प्रशंसा में लिखा उनका श्लोक भी उद्घृत किया है। उस श्लोक से भी
तुलसीदास की प्रशस्ति का पता मालूम होता है।
आनन्दकाननेह्यस्मिन्
जंगमस्तुलसीतरु:
कविता मंजरी यस्य, राम-भ्रमर
भूषिता ।
जीवन
की सांध्य वेला
तुलसीदास को जीवन
की सांध्य वेला में अतिशय शारीरिक कष्ट हुआ था। तुलसीदास बाहु की पीड़ा से व्यथित
हो उठे तो असहाय बालक की भांति आराध्य को पुकारने लगे थे।
घेरि लियो रोगनि
कुजोगनि कुलोगनि ज्यौं,
बासर जलद घन घटा
धुकि धाई है ।
बरसत बारि पोर
जारिये जवासे जस,
रोष बिनु दोष, धूम-मूलमलिनाई
है ।।करुनानिधान हनुमान महा बलबान,
हेरि हैसि हांकि
फूंकि फौजें तै उड़ाई है ।
खाए हुतो तुलसी
कुरोग राढ़ राकसनि,
केसरी किसोर राखे
बीर बरिआई है ।
(हनुमान बाहुक, ३५)
निम्नांकित पद से
तीव्र पीड़ारुभूति और उसके कारण शरीर की दुर्दशा का पता चलता हैं –
पायेंपीर पेटपीर
बांहपीर मुंहपीर
जर्जर सकल सरी पीर
मई है ।
देव भूत पितर करम
खल काल ग्रह,
मोहि पर दवरि दमानक
सी दई है ।।हौं तो बिन मोल के बिकानो बलि बारे हीं तें,
ओट राम नाम की ललाट
लिखि लई है ।
कुंभज के निकट बिकल
बूड़े गोखुरनि,
हाय राम रा ऐरती
हाल कहुं भई है ।।
दोहावली के तीन
दोहों में बाहु-पीड़ा की अनुभूति –
तुलसी तनु सर
सुखजलज, भुजरुज गज बर जोर ।
दलत दयानिधि देखिए, कपिकेसरी
किसोर ।।
भुज तरु कोटर रोग
अहि, बरबस कियो प्रबेस ।
बिहगराज बाहन तुरत, काढिअ
मिटे कलेस ।।
बाहु विटप सुख
विहंग थलु, लगी कुपीर कुआगि ।
राम कृपा जल सींचिए, बेगि
दीन हित लागि ।।
आजीवन काशी में
भगवान विश्वनाथ का राम कथा का सुधापान कराते-कराते असी गंग के तीर पर सं० १६८० की
श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन तुलसीदास पांच भौतिक शरीर का परित्याग कर शाश्वत
यशःशरीर में प्रवेश कर गए।
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