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Tuesday 16 August 2016

‘मर्यादा’ और तुलसीदास का सौन्दर्य-चित्रण


डॉ. नरेश कुमार   हिंदी सहायक
दि.वि.वि., दिल्ली





साहित्य में सौन्दर्य–चित्रण ऐसा धरातल है, जिसके नीचे रंग–रूप–सौन्दर्य–शोभा–लावण्य, मन के मुक्त उल्लास और उमंग, शारीरिक सुषमा, प्रेम–प्रतीति आदि कोमल–कांत भावनाओं से भरपूर छलछलाता, आनंद का अनन्त स्रोत होता है। इस दृष्टि से जब हम तुलसी–साहित्य पर विचार करते हैं तो उनका समूचा साहित्य ज्ञान–वैराग्य–भक्ति से ओत–प्रोत दिखाई देता है। लेकिन इसी में तुलसी की अखण्ड सौन्दर्य–चेतना, उनकी कवि–आत्मा, अपनी सभी रंगीनियों को लेकर प्रकट हुई है।


मर्यादा’ का कोशगत अर्थ है– सीमा में रहना, नैतिक व्यवस्था, शिष्टाचार का नियम, सदाचरण का औचित्य। इस प्रकार मर्यादा का संबंध मनुष्य के ऐसे व्यवहार या सदाचरण से है, जिसे समाज उचित मानता है। धर्म, नीति, लौकिक रीति रिवाज और औचित्य सिद्धांत आदि मर्यादा के आधार तत्व हैं। सौन्दर्य का संबंध् व्यक्तित्व से होता है और व्यक्तित्व चरित्र का अनिवार्य अंग है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बाह्य आकृति से ही व्यक्ति के गुणों का बोध् हो जाता है । ‘‘आकृतो गुणा’’। प्रत्येक कवि अपने पात्रों के सौन्दर्य का गठन अपने दृष्टिकोण, उद्देश्य और भावनाओं के अनुरूप करता है। मार्यादावादी और वैरागी भक्त होने के नाते तुलसी सीता माता या अन्य स्त्री पात्रों का नख–शिख वर्णन तो नहीं कर सकते थे, परंतु कवि होने के नाते उन्हें नख–शिख–वर्णन करना अवश्य था। अतः उन्होंने कवि–कर्म का निर्वाह करते हुए नख–शिख निरूपण की परिपाटी राम के सौन्दर्य–चित्रण में पूरी की।


तुलसी के सौन्दर्य–चित्रण के संबंध् में डा. हरद्वारी लाल शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि तुलसी के संपूर्ण साहित्य में ज्ञान–वैराग्य–भक्ति के झीने आवरण के नीचे झिलमिलाती सौन्दर्य व सुषमा की मधुमय दीप्ति है। तुलसी कहीं भी रस–रूप, रंग और उमंग के विरुद्ध नहीं प्रतीत होते।’’1 उनके सौन्दर्य–चित्रण में कहीं भी फीकापन या नीरसता नहीं है, सभी रंग चटक है। तुलसी कहीं भी, किसी भी अवसर पर, राम और सीता की सुषमा के वर्णन में नहीं चूके हैं, परंतु उन्होने सौन्दर्य–चित्रण में कहीं भी मर्यादा–भाव को खंडित नहीं होने दिया। तुलसी की सौंदर्य–चित्रण की ।



इस दृष्टि का विश्लेषण हम आगे राम, सीता तथा अन्य पात्रों के सौंदर्य–निरूपण की कला के अंतर्गत करेंगे।


1. राम का सौन्दर्य–चित्रण

सौन्दर्य को सुंदर, मधुर ललित, भव्य, उदात्त कोटियों में विभक्त किया जाता है। सुंदर वह है, जो सामान्यरूपसे हमारे सौन्दर्य–बोध् को तृप्त करे। मधुर जो विशेष प्रिय हो। ललित, जो अत्यधिक प्रिय हो। भव्य वह है, जो अपने प्रभाव से हमारी चेतना को स्वीकार कर ले। उदात्त में चेतना की गति को अवरुद्ध कर देने की शक्ति होती है। भव्य और उदात्त–सौन्दर्य में अलौकिक तत्त्वों का विशेष योग होता है।

गोस्वामी तुलसीदास ने राम के रूप–सौन्दर्य के निरूपण में सौन्दर्य की उपर्युक्त सभी कोटियों को ग्रहण किया है। वे सौन्दर्य के उपासक हैं। उनके राम सुंदर हैं और वे सुंदर के लिए संपूर्णरूपसे, सर्वात्मना, समर्पित हैं। रामचरितमानस में विस्तृतरूपमें केवल राम के ही रूप–सौन्दर्य का वर्णन है। राम केरूपका वर्णन विस्तृतरूपमें पाँच बार हुआ है । चार बार बालकांड में और एक बार उत्तरकांड में। इसके अतिरिक्त राम के अन्य रूप–वर्णन अत्यंत संक्षिप्त हैं और उनकी नियोजना भक्तों की भावना में तीव्रता भर देने के लिए हुई है।

विश्व–रूप–राशि राम को अपनी गोद में निरखकर माता कौशल्या का मन कितना आह्लादित होता है, इसका प्रत्यक्ष वर्णन तुलसीदास ने अपनी आँखों से नहीं, अपितु स्वयं उस माँ ;कौशल्या की आँखों से देखकर किया है। उनके नील कमल और गंभीर मेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की शोभा है। लाल–लाल चरण कमलों में नखों की ज्योति ऐसी मालूम होती है जैसे कमल के पत्तों पर मोती स्थिर हों।… उनकेरूपका वर्णन वेद और शेष जी भी नहीं कर सकते। उसे तो वही जान सकता है, जिसने उन्हें स्वयं में देखा हो। तुलसीदास के शब्दों में।

‘‘काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा।।

अरुन चरन पंकज नख जोेति। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती।।

रूपसकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा।।’’2

माता कोशल्या को राम ने अपना अद्भुतरूपदिखाया था, जिसके एक–एक रोम में करोड़ों ब्राह्माण्ड लगे हुए हैं। ‘‘अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन।।’’ पुत्र राम केरूपमें बलवती माया को देखकर माता का शरीर पुलकित हो गया, उनके मुख से वचन नहीं निकलता। उन्होंने अपनी आँखें मूँदकर श्रीराम के चरणों में सिर नवाया। ‘‘तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरनननि सिरु नावा।।’’3

इन संदर्भों से स्पष्ट होता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने आराध्य देव श्रीराम के सौन्दर्य–चित्रण में आध्यात्मिकता का पुट दिया है।



2. राम के सौन्दर्य–चित्रण में शील और शक्ति का समन्वय

सौन्दर्य–चित्रण के संदर्भ में तुलसीदास की महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि उन्होंने सौन्दर्य को कहीं भी कलुषित नहीं होने दिया। इसलिए जहाँ भी सौन्दर्य–वर्णन का अवसर आता है वे उसके साथ शील का पुट भी अवश्य दे देते हैं। इसी प्रकार शील के साथ शक्ति का प्रयोग कर देते हैं। मुनि के साथ राम–लक्ष्मण जनकपुर की ओर यात्र कर रहे हैं। इस अवसर पर गोस्वामी जी लिखते हैं –

‘‘मुनि के संग बिराजत बीर! बदनु इंदु, अंभोरुह लोचन, स्याम गौर सोभा–सदन सरीर।’’4

इससे कोमलता और सौन्दर्य का चित्र हमारी आँखों के समक्ष उपस्थित हो जाता है, किंतु सौन्दर्य के साथ–साथ शक्ति का पुट देते हुए वे यह भी कहते हैं कि।

‘‘काकपच्छ धर, कर कोदंड–सर, सुभग पीतपट कटि तूनीर।।’’5

इस प्रकार के सौन्दर्य–वर्णन से तुलसी सौन्दर्य और वीरता का समन्वितरूपपाठक के सामने खड़ा कर देते हैं।

तुलसी के अनुसार राम–लक्ष्मण के सौन्दर्य को गढ़ने में ब्रह्या जी ने सुंदरता, शील और स्नेह को सानकर मिलाकर ही मानो इनके रूप रचे हैं। इनके रोम–रोम पर अरबों चन्द्रमा और कामदेव वार कर फेंक दिये हैं। देखने वालों की दृष्टि में उनके चरित्र के भिन्न–भिन्न पहलू उभरते हैं। किसी की दृष्टि में वे शोभा सिंधु हैं तो दूसरों की दृष्टि में प्रताप पुँज हैं।

‘‘सुखमा सील–सनेह सानि मानोरूपबिरंचे सँवारे।

रोम–रोम पर सोम–काम सत कोटि बारि पेफरि डारे।।

कोउ कहै, तेज–प्राप्त–पुंज चितये नहिं जात, भिया रे।।’’6

यदि उनकेरूपकी सुधा भरने के लिए जनकपुर की नारियाँ अपने नयन रूप कलशों को खाली करती हैं।

‘‘नख सिख सुंदरता अवलोकत कह्यो न परत सुख होत जितौरी’’7

तो उनका शील स्वभाव देखकर वे उन्हें अपने हृदय में स्थान देने को उत्सुक हो जाती हैं।

‘‘सोभा–सुध आलि! अँचवहु करि नयन मंजु मृदु दोने।

हेरत हृदय हरत नहिं पूरत चारु बिलोचन कोने।’’8

ऊपर से कोमल दीखने पर भी उनके अंदर अतुल बल भरा हुआ है, यह सभी को विश्वास है। एक ओर उनकी सुंदरता नेत्रों को आकर्षित करती है तो दूसरी ओर उनका वीरत्व चित्त को आह्लादित करता है।

इस प्रकार तुलसी के राम में शील, शक्ति और सौन्दर्य का समन्वय है। तुलसी के राम में तीन शक्तियों की प्रधनता को समन्वितरूपसे चित्रित किया है। ऐश्वर्य,माधुर्य और सौन्दर्य। जहाँ उनका ऐश्वर्य प्रकट होता है, वहाँ वे लोकरक्षक केरूपमें हमारे पूजनीय बन जाते हैं तथा जहाँ पर उनके औदार्य आदि मानवीय गुण प्रकट होते हैं, वहाँ वे हमारे अनुकरणीय बन जाते हैं।



3. सीता का सौन्दर्य–चित्रण

तुलसीदास सीता को माँ केरूपमें मानते हैं। अतः माँ के सौन्दर्य का चित्रण किंचित सीमाओं के अंदर ही किया जा सकता है। उनकी उपासना दास्य–भाव की है। नारी–सौन्दर्य–चित्रण में नारी के अंग–प्रत्यंगों के सौन्दर्य का वर्णन करना मर्यादा के विरुद्ध माना जाता है। अतः तुलसी जैसे मर्यादावादी कवि नारी के अंग–प्रत्यंगों को खुलेरूपमें चित्रण अपनी रचनाओं में कैसे कर सकते थे। इसलिए तुलसी ने केवल सीता के अंग–प्रत्यंग का ही नहीं बल्कि अन्य किसी भी नारी पात्र के सौन्दर्य–चित्रण पर ध्यान नहीं दिया। नारीगत सौन्दर्य–चित्रण के अवसर पर तुलसी की दृष्टि विशेषरूपसे मर्यादावादी भावनाओं से युक्त दिखाई पड़ती है। इस संबंध में उदयभानु सिंह ने लिखा है कि ‘‘तुलसी के मर्यादावाद का प्रकृष्ट निदर्शन शृंगार–वर्णन में मिलता है।’’9

सीता–राम के संयोग और विप्रलंभ का विशद निरूपण करते हुए भी तुलसी ने उसे सर्वथा मर्यादित रखा उल्लेखनीय है कि जयदेव ने पुष्पवाटिका–प्रसंग में सीता के स्तन का भी चित्रण किया है।10 हस्तिमल्ल ने ‘कामदेव–भवन’ में, ‘माध्वीकुंज’ में और ‘संकेतस्थल’ पर सीता–राम के वासना प्रधन मिलन–विरह का तीन बार निरूपण किया है।11 इसी प्रकार कालिदास के विरह–व्याकुल राम पुष्पगुच्छों वाली लता को सुस्तनी सीता समझकर उसका आलिंगन करने जा रहे थे, तब लक्ष्मण ने उन्हें रोका था।12

मर्यादावादी कवि तुलसी की दृष्टि प्रसंग आने पर सीता के सौन्दर्य–वर्णन पर अवश्य जाती है, लेेकिन वे सीता की कांति, मुखमंडल, साड़ी, भूषणों और कर के वर्णन करने तक ही सीमित रहते हैं।

‘‘अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय ससि मुख भए नयन चकोरा।।…

सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छवि गृहँ दीपसिखा जनु बरई।।’’13

सीता जी के नवल शरीर पर साड़ी और आभूषणों की शोभा का कवि ने चित्रण किया, लेकिन साथ ही वे उन्हें जगज्जननी कहकर उनकी महान छवि को अतुलनीय बताते हैं।

‘‘सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी।

भूषन सकल सुदेश सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए।।’’14

गोस्वामी तुलसीदास जी रूप और गुणों की खान सीता जी की शोभा का वर्णन करने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं। सीता माता जगदंबिका के समान हैं, जो रूप और गुण की खान है। उनकी शोभा का बखान नहीं किया जा सकता।

‘‘सिय सोभा नहिं जाइ बखनी। जगदंबिकारूपगुन खानी।।’’15

जगत् में कोई भी स्त्री सीता जी के समान सुंदर नहीं है, इसलिए उनकी सुंदरता की तुलना किसी स्त्री से नहीं दी जा सकती।

‘‘जौं पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीय।।’’16

कवि को सीता की सुंदरता में यह कहना पड़ता है कि सखियों के बीच में सीता जी उसी प्रकार सुशोभित हो रही है ; जैसे बहुत सी छवियों के बीच में महाछवि हो। कर कमल में सुंदर जयमाला है, जिसमें विश्व विजय की शोभा छायी हुई है।

‘‘सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसें। छबिगन मध्य महाछवि जैसें।।

कर सरोज जयमाला सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई।।’’17

इस प्रकार हम देखते हैं कि तुलसी अपने आराध्य देव श्रीराम की शक्ति सीता को माता स्वरूप मानते हैं। उन्होंने सीता का सौंदर्य–चित्रण मर्यादा की सीमा के अंतर्गत ही किया है।



4. युगल–छवि का सौन्दर्य–चित्रण

तुलसीदास मर्यादावादी कवि हैं। शृंगारी–कवियों की भाँति युगल–छवि का चित्रण उन्होंने नहीं किया है। उनकी रचनाओं में कतिपय स्थलों पर युग्म–आराध्यों का मर्यादापूर्ण सौन्दर्य–वर्णन किया है। उनके अनुसार राम–सीता की युगल–छवि को व्यक्त किया ही नहीं जा सकता है। वह तो गूंगे का गुड़ है, उसे व्यक्त कैसे करें।



‘‘राम सीय बयः समौ सुभाय सुहावन। नृप जोवन छबि पुरइ चहत अनु आवन।।

सो छबि जाहू न बरनि देखि मन माँने। सुधा पान करि मूक कि स्वाद बखानै।।’’



श्रीराम दूल्हा और जानकी दुलहिन बनी हुई हैं। समस्त सुंदरी स्त्रियाँ गीत गा रही हैं। इस अवसर पर सीता जी का मन राम कीरूपराशि की शोभा देखकर लीन हो जाता है। परंतु मर्यादावादी कवि तुलसी ने सीता को राम का अपूर्व सौन्दर्य सीता के कंकण के माध्यम से कराया है –



‘‘राम को रूपु निहारति जानकी कंकन के नग की परछाहीं।’’18



विवाह के अवसर पर राम सीता की मांग में सिंदूर लगा रहे हैं। परिकल्पना बिंब केरूपमें उस छवि को व्यक्त करने के लिए कवि कितना उदात्त उपमान प्रस्तुत करता है, मानो सर्प अमृत के लोक से चन्द्रमा को लाल–पराग कमल में भरकर प्रदान कर रहा हो –



‘‘राम सीय सिर सेंदुर देहीं। शोभा कहि न जाति बिधि केहीं।।

आरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी के ।।19



युगल–छवि के सौन्दर्य–चित्रण की एक परिस्थिति शिव–विवाह के अवसर पर प्रस्तुत होती है। तुलसी ने इस कथा को लिया है। पार्वती के माता–पिता में कुछ शुद्ध मानवीय भाव भी जागृत होते हैं, पर कहीं शृंगार का उद्रेक नहीं मिलता। तर्क यह है कि कहीं माता–पिता का शृंगार वर्णन भी किया जाता है। पिफर भी शृंगार–केलि का एक संकेत दे दिया जाता है –

‘‘जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी।।

करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा।।20

इस प्रकार तुलसी ने सीता–राम और शिव–पार्वती के दिव्य युग्म को शृंगार की पकड़ से बाहर कर दिया। वस्तुतः यह वर्जनशील मार्यादा का प्रभाव ही है कि कुछ अपवादों को छोड़कर तुलसी नारी के रूप–सौंदर्य से परिचित होते हुए भी अपरिचित जैसे ही बने रहते हैं। शृंगार की देहली तक तो तुलसी की कल्पना आई, पर शृंगार–भवन की अंतरंग क्रीड़ाओं के साथ उनका कोई संबंध स्थापित नहीं हो सका।



5. सौन्दय–चित्रण पर मर्यादा का अंकुश



सौन्दर्य–चित्रण का जोरूपहम तुलसी–काव्य में देखते हैं, आध्यात्मिक क्षेत्र में शृंगार की ऐसी एकांत प्रतिष्ठा संभवतः पहले कभी नहीं हुई थी। काव्यशास्त्रीय और कामशास्त्रीय परंपरा ने अपना सारभूत तत्त्व भक्तिमूलक शृंगार की सेवा में समर्पित कर दिया। कला, भक्ति और शृंगार की त्रयी ने सांस्कृृतिक पुनरुत्थान की भावभूमि प्रस्तुत की।

गोस्वामी तुलसीदास जी कट्टर मर्यादावादी कवि हैं। नारी के रूप–सौन्दर्य को चित्रित करना उन्होंने ‘लोक–मर्यादा’ के अनुकूल नहीं समझा। ऐसा नहीं है कि तुलसी ने नारी के सौन्दर्य को अपने साहित्य में बिलकुल स्थान नहीं दिया। वास्तविकता तो यह है कि उचित प्रसंग आने पर तुलसी नारी के सौन्दर्य–चित्रण के लोभ को छोड़ नहीं पाते हैं, लेकिन मर्यादा–भाव के कारण वे काव्य मेंरूपके चित्रण को खुलकर अभिव्यक्त नहीं कर पाते। इस संबंध में डाॅ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी के विचार उल्लेखनीय हैं। उन्होंने लिखा है कि –

‘‘तुलसी में शृंगार और नारी–सौन्दर्य की कमी नहीं है। उनकी कविता में स्वाभाविक नारी–सौन्दर्य रीतिकालीन कवियों से बेहतर चित्रित है। लेकिन एक तो उनके यहाँ नारी–सौन्दर्य का उच्छृंखल चित्रण नहीं है, दूसरे उनके यहाँ नारी केवल रमणी नहीं है, वह कन्या, पत्नी और माँ तीनों है।’’21

शृंगार–विलास के क्रम में नायक द्वारा नायिका के शृंगार का प्रसंग भी मदिर–मादक माना जाता है। तुलसी ने राम के वनप्रवास के समय एक दिन राम के द्वारा सीता का पुष्प–शृंगार कराया है। शृंगार–विलास का यह प्रसंग कुछ मादक और रमणीय हो सकता था। लेकिन तुलसीदास की मर्यादावादी दृष्टि के कारण यह प्रसंग रीतिकालीन कवियों की तरह उच्छृखल नहीं हो पाता। दृष्टव्य है –



‘‘एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए।।

सीतहिं पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर ।।’’22



यदि यहाँ ‘सादर’ शब्द नहीं होता, तो चित्र कुछ शृंगार–तरल हो जाता। इस शब्द की शीतलता ने जैसे भागवत तरलता को हिमखण्ड की सघनता में बदल दिया है। न भावोत्तेजन ही हो पाया और न शृंगार का भावन।

वस्तुतः तुलसी का व्यक्तित्व मर्यादावादी शिलाखंड की भाँति अविचल है। जिस कवि की वाणी ‘प्राकृत–जन गुण–गान’ में मूक रही, वह प्राकृत भावों की आध्यात्मिक अभिव्यंजना और भक्ति–साधना के क्षणों के साथ कैसे समन्वित कर सकती थी। रामचरितमानस में संभवतः ऐसा एक भी अवसर नहीं आया, जो शृंगार का उद्रेक करता है। पुष्प–वाटिका प्रसंग की उद्भावना कवि कितनी ललक के साथ करता है। वातावरण ‘कंकण–किंकिणी’ के मधु–क्वणन से गूँज कर उद्दीपक भी होने लगता है। सखि समाज से घिरी सीता का मन भी मूल भाव के ललित संकेतों से सिहरने लगता है। राम के व्यक्तित्व में भी कुछ लोच–लचक आने लगी। तुलसी के दमित शृंगार–भाव को जैसे उन्मुक्ति का द्वार मिलने लगा हो। इस अवसर पर राम के रूप–सौन्दर्य का चित्रण तो तुलसी ने किया है, पर वह शृंगार के उभार को सहायता नहीं दे पाता।

वास्तविकता यह है कि राम के सौन्दर्य को संतों, भक्तों और गुरुजनों का संदर्भ मिला। यह संदर्भ शृंगार की उद्भूति में असमर्थ रहता है। यही बात सीता के सौन्दर्य के संदर्भ में है। जनकपुर के स्त्री–पुरुष भी उस अनिंद्य सौन्दर्य की झाँकी पाते हैं। राह में ग्रामवासी और मार्गवासी भी खड़े हैं। उच्छलित–यौवना तरुणी केरूपमें सीता को चित्रित करते हुए तुलसी की लेखनी रूक जाती है। इस संबंध में डाॅ॰ चन्द्रभान रावत ने लिखा है कि ‘‘स्त्रियों की और तरुणियों की कहीं भीड़ हैं, उनका सौंदर्य तुलसी की अलंकार–वृत्ति को उकसाती भी है, रूढ़ उपमान शृंखलाबद्ध भी हो जाते हैं, पर शृंगार का उद्रेक नहीं हो पाता।’’23

तुलसी की शृंगार–वर्णन की इसी वर्णनात्मक विशेषता को समझकर डा॰ चन्द्रभान रावत ने लिखा है कि

‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि मानसकार शृंगार की परिस्थितियों को सप्रयास पंगु बनाये दे रहा है।’’24

विवाह के अवसर पर सीता–राम वधु और वर केरूपमें पास–पास बैठे हैं। एक–दूसरे के रूप को निहारने की स्वाभाविक उत्कंठा दोनों के नेत्रों को कुछ चंचल कर दे रही है। आँखों का मधु–विलास एक सीमा तक होता भी है। इतने में एक दार्शनिक रहस्य की दीवार पाठक और काव्यगत परिस्थिति को अलग–अलग कर देती है–

‘‘सिय राम अवलोकहिं परस्पर, प्रेम काहु न लखि परै।

मन बुद्धि बर बानी अगोचर, प्रगट कवि कैसे करै।’’25

शृंगार पर इतना प्रतिबंध संभवतः तुलसी ने मानस के वातावरण को शुद्ध सात्त्विक रखने के कारण लगाया है। इसलिए सौन्दर्य–चित्रण और प्रेम की विशेषता को उद्घाटित करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि

‘‘प्रेम और शृंगार का ऐसा वर्णन जो बिना किसी लज्जा और संकोच के सबके सामने पढ़ा जा सके, गोस्वामी जी का ही है।’’26

लेकिन यह भी सत्य है कि शृंगार–चित्रण में मर्यादा–भाव के अधिक दबाव ने कला के स्वाभाविक विलास को और मनुष्य–मन की सहज भावनाओं को कापफ़ी हद तक कुंठित भी किया है।



6. तुलसी के लिए नारी–सौंदर्य: एक वर्जित क्षेत्र



प्रायः ऐसा मान लिया जाता है कि नारी–सौन्दर्य और रति–शृंगार तुलसी के निषिद्ध क्षेत्र हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। हाँ दृष्टि–भेद और स्तर का अंतर है। उन्होंने नारी–सौन्दर्य को अश्लीलता के दोष से मुक्त रखने हेतु बड़ी सावधानी पूर्वक प्रयास किया। कृष्ण काव्यधारा का मर्यादाहीन स्वच्छंद प्रेम तुलसी की भक्ति–साधना का आदर्श नहीं बन सकता था। कृष्ण काव्यधारा में चित्रित नारी–सौन्दर्य, नारी के अंग–प्रत्यंगों का स्वच्छंद चित्रण अश्लीलता के दोष से युक्त दिखाई देता है। वहाँ नारी–सौन्दर्य का रूप कुछ ऐसा है कि उसे परिवार में पढ़ा–सुना नहीं जा सकता।

वस्तुतः तुलसी व्यवहारवादी हैं। जो बात व्यवहार में निभ न सके, तुलसी उसे सप्रयास या तो छोड़ देते हैं अथवा उसकारूपबदल देते हैं। इस संबंध में उन्होंने अपने मर्यादावादी दृष्टिकोण का पूर्ण परिचय दिया है। लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि तुलसी ने संत कवियों की भाँति नारी सौन्दर्य को उतनी उपेक्षा से नहीं देखा। जैसा कि पूर्व वर्णित किया जा चुका है कि तुलसी नारी–सौन्दर्य का प्रसंग आने पर कहीं भी उसकी झलक का चित्रण करने में नहीं चूकते हैं, लेकिन मर्यादा–तत्त्व के कारण उसे केलि–क्रीड़ाओं के वातावरण में उन्मुक्त नहीं छोड़ते।

सतियों में पार्वती और सीता अग्रगण्य है। ये दोनों देवियाँ हैं। श्रीसीता तुलसीदास जी के आराध्य देव की पत्नी है और पार्वती जगत् की माता है। मर्यादावादी तुलसी उनके शृंगार का वर्णन भला कैसे कर सकते हैं। लेकिन जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि तुलसी पार्वती और शिव के शृंगार और उनकी केलि–क्रिड़ाओं का संकेत पिफर भी अपने काव्य में दे ही देते हैं। कवि ने सीता और पार्वती की सुंदरता का अंकन प्रतीकात्मकरूपमें किया है। इस संबंध में डाॅ॰ चन्द्रभान रावत का कथन है कि –

‘‘सौन्दर्य की अपेक्षा इनकी पावनता ही कवि–कल्पना को अधिक विरमाती है।’’27

सीता सुन्दरता को भी सुंदर करने वाली है। मर्यादा–भाव के कारण तुलसी अपनी बुद्धि की सीमा स्वीकार कर सीता की सुंदरता का वर्णन करने में अपनी असमर्थता को साग्रह व्यक्त करते हैं –



‘‘सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई।’’28

इस प्रकार माध्यम की अपूर्णता और वस्तुतगत अलौकिकता के कारण सौन्दर्य अनिर्वचनीय हो जाता है। कवि कहीं भी यह नहीं भूल पाता कि सीता और पार्वती दोनों ही जगज्जननी हैं। मातृत्व का सौन्दर्य, ममता आदि गुणों में ही देखा जा सकता है, माता के अंगों का सौन्दर्य अवण्र्य ही है। तुलसी द्वारा सीता–पार्वती के सौन्दर्य–चित्रण की इसी तकनीक पर विचार कर डाॅ॰ चन्द्रभान रावत ने कहा है कि ‘‘प्रत्येक अंग और प्रत्येक उद्दीपक स्थिति में वह आंगिक सौन्दर्य की झाँइयाँ नहीं दे पाया है – न देने के लिए कटिबद्ध ही है।’’29

गीतावली में हिंडोले के उत्सव के अवसर पर तुलसी ने नारी–वृंद का सहज सौन्दर्य–चित्रण किया है। इस अवसर पर कुसुम्भी साड़ी और आभूषणों से सजी मृगनयनी बालाएँसुंदर स्वर में सारंग और गौड़ राग में ‘राम–सुयश’ गाती हैं। झूलने वाली रमणियों की घुंघराली अलकें बिखर जाती हैं, हवा लगने से उनके वस्त्र उड़ने लगते हैं और आभूषण खिसक जाते हैं –

झुंड –झुंड झूलन चलीं गजगामिनी बर नारि।

कुसँभि चीर तनु सोहहीं, भूषण बिबिध सँवारि।।

पिकबयनी मृगलोचनी सारद ससि सम तुंड।

राम सुजस सब गावहीं सुसुर सुसारँग गुंड

– – – – – – – – – – – – – – – –

पट उड़त, भूषण खसत, हँसि–हँसि अपर सखी झुलावहीं।।30

इस सौन्दर्य–चित्रण को देखकर प्रतीत होता है कि यह चित्रण कृष्ण की प्रियाओं का है। नारियों की भीड़ में तुलसी की प्रशमित सौन्दर्य–बोध की वृत्ति अवश्य जाग पड़ती है।





निष्कर्ष

गोस्वामी तुलसीदास वास्तविक सौन्दर्य के उपासक भक्त कवि हैं। जीवन के किसी भी क्षेत्र में अमर्यादित होना, उन्हें मान्य नहीं हुआ। उनके आराध्य देव राम और सीता का प्रेम सघन–वन–कुंजों के एकांत वातावरण में पुष्पित, पल्लवित एवं विकसित नहीं होता। वे सदैव समाज और समाज की चार दीवारी के भीतर या आसपास रहते हैं, या तुलसी उन्हें इन्हीं परिस्थितियों में रखने के लिए कृत–संकल्प हैं। तुलसी की दृष्टि में नारी केवल भोग–विलास की वस्तु मात्र नहीं है। उनके समक्ष नारी के सदैव तीन रूप रहते हैं। वह आदर्श पुत्री, आदर्श पत्नी और आदर्श माता है। नारी के सौन्दर्य–चित्रण में उन्होंने उसके इन तीन रूपों को सदैव ध्यान में रखा। अतः उन्होंने अपने काव्य में नारी का सौन्दर्य–चित्रण मर्यादा की सीमा में रहकर ही किया। फिर भी निर्गुणिया सन्तों की अपेक्षा तुलसी ने नारी–सौन्दर्य को अधिक स्वीकारा है। नारी–वृंद के सौन्दर्य–चित्रण में तुलसी की शृंगार–भावना कुछ विकसित होती–सी जान पड़ती है, लेकिन मर्यादा की दीवार उन्हें आगे बढ़ने से रोक देती है। वस्तुतः जहाँ नारी–जीवन मर्यादित दिखाई पड़ता है, वहीं तुलसी को वास्तविक सौन्दर्य मिलता है। पुरुष–सौन्दर्य चित्रण में तुलसी ने राम के ही सौन्दर्य को स्थान दिया। राम के सौन्दर्य का निरूपण करने में भी तुलसी ने मर्यादा–भाव का पूर्णतः निर्वाह किया। राम के सौन्दर्य में उन्होंने शक्ति और शील का समन्वितरूपखड़ा किया है। तुलसी के राम में वस्तुतः शील की ही पराकाष्ठा है, जिसके सौन्दर्य और शक्ति दो आवरण हैं। सामूहिक नारी–सौन्दर्य के कुछ छींटे तो तुलसी–साहित्य में मिल जाते हैं, अन्यथा तुलसी शृंगार की लौकिक और अलौकिक परंपरा से कटे ही रहे। एक तो तुलसी ने जिस दिव्य युगल को चुना, वह शृंगार का आलंबन बन ही नहीं सकता था। दूसरे तुलसी की मर्यादावादी दृष्टि शृंगार के स्थूल पक्षों में नहीं रम सकती थी। इसलिए वे शृंगार के प्रसंगों की दिशा को या तो बदल ही देते हैं अथवा उस चर्चा को आगे बढ़ने से रोक देते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि तुलसी का सौन्दर्य–चित्रण मर्यादा की छाया तले ही पल्लवित हुआ है, वे सौन्दर्य की अंतरंग गहराइयों का खुलेरूपमें चित्रण करने के पक्ष में नहीं थे।







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1 comment:

  1. यदि किसी महानुभाव को
    " सबसे भले विमूढ़ जिनहिं न व्यापहिं जगत गति "
    की अर्धाली (दूसरी पंक्ति ) पता हो तो कृपया सन्दर्भ सहित अवगत कराएं । धन्यवाद

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