कादम्बिनी क्लब, हैदराबाद

दक्षिण भारत के हिन्दीतर क्षेत्र में विगत २ दशक से हिन्दी साहित्य के संरक्षण व संवर्धन में जुटी संस्था. विगत २२ वर्षों से निरन्तर मासिक गोष्ठियों का आयोजन. ३०० से अधिक मासिक गोष्ठियाँ संपन्न एवं क्रम निरन्तर जारी...
जय हिन्दी ! जय हिन्दुस्तान !!

Wednesday 20 July 2016

कादम्बिनी क्लब हैदराबाद – कविगोष्ठी संपन्न





कादम्बिनी क्लब हैदराबाद के तत्वाधान में रविवार दि० 17 जुलाई को हिंदी प्रचार सभा परिसर में जाने माने साहित्यकार पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी को समर्पित मासिक गोष्ठी का सफल आयोजन हुआ. प्रथम सत्र में गुलेरीजी की रचनाएँ पर चर्चा के बाद कविगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें सभी सदस्यों ने अपनी सहभागिता दर्ज की. नरेंद्र राय की अध्यक्षता में कविगोष्ठी का आयोजन हुआ. अवनीश दुबे, दयालचंद अग्रवाल, डा० मिश्र मंचासीन हुए.   

डा० रमा द्विवेदी ने अपने गीत मैं रहूँ न रहूँ को सस्वर गा कर संगीतमय वातावरण बना दिया.



मैं रहूँ न रहूँ मेरे मीत तुम
दिल में मेरे लिए गुनगुनाना सदा ।

संग -संग में चले, धूप -छाँव तले
राहों में शूल थे प्रीत फिर भी पले
कुछ कहें न कहें, बिन कहे सब कहें
दिल की धड़कन से ही जान जाना सदा
मैं रहूँ न रहूँ मेरे मीत तुम
दिल में मेरे लिए गुनगुनाना सदा।

है अँधेरा घना दीप गर इक जले
प्यार की रोशनी से अँधेरा डरे
छलनियों से गुजर प्रीत मिलती रहे
मन के मंदिर में दीपक जलाना सदा
मैं रहूँ न रहूँ मेरे मीत तुम
दिल में मेरे लिए गुनगुनाना सदा ।

प्रीत की चाह में हैं अनेकों गरल
प्रीत सच्ची हो गर मुश्किलें हों सरल
मन में विश्वास हो ,दूर हो पास हो
याद करके मुझे मुस्कुराना सदा
मैं रहूँ न रहूँ मेरे मीत तुम
दिल में मेरे लिए गुनगुनाना सदा।

हो विरह रात्रि गर दुःख मनाना न तुम
मन को करके विकल अश्रु लाना न तुम
सूक्ष्म मन से सदा पास तेरे रहूँ
जब पुकारोगे तुम मुझ को पाना सदा
मैं रहूँ न रहूँ मेरे मीत तुम
दिल में मेरे लिए गुनगुनाना सदा ।



युवा कवियत्री शशि राय ने अपनी कविता सपने देखने की मेरी आदत है का पाठ किया. कविता, कवियत्री की सिमित संसाधनों में संतुष्ट रहने और संयम, संकल्प, आत्मविश्वास के साथ जिंदगी जीने की घोषणा से शुरू होती है. कविता इस बात को रेखांकित करती है कि परिस्थितियां और लोग हमेशा एक जैसे नहीं होते. इनसे तारतम्य बैठा कर ही जीवन यापन किया जा सकता है. कविता में कवियत्री का रोष भी दिखता है, आज के तथाकथित क्रांतिकारियों के प्रति. क्रांति की आड़ में क़त्ल की दूकान खोले कातिलों को वो आईना दिखाती हुई कहती है की आज हम ईश्वर से दूर बस इस लिए हैं कि हमने यहाँ उसके रहने लायक माहौल ही नहीं बनाया. शशि की ओजपूर्ण आवाज में पढ़ी गई इस क्रान्तिगीत को सदस्यों ने बहुत सराहा.



बचपन से सपने देखने की मेरी आदत है
ज़िन्दगी आज जहां भी है इस आदत की बदौलत है....
नहीं बनना मुझे बेकार विचार, भाव, और इंद्रियों का गुलाम,
अर्जित करनी संयम, संकल्प और आत्म-विश्वास जैसी दौलत है..
ज़िन्दगी आज जहां भी है, इस आदत की बदौलत है....

इस आदत ने मुझे कई शहर-गांवों से मिलवाया
बहुत लोगों से मिलवाया
कुछ ने साथ दिया
जो नहीं दे सका, हल्की मुस्कान दिया
कुछ इतने कुंठित भी मिले, जिसने रास्ता ही मेरा काट दिया
पर मैने भी बहकावे में ना आने की ठानी थी
राम-राम कैसे हो दोस्त, वाला दोस्त उन्हें बना ली थी...

इस आदत से....
मैने सीख लिया ढंग से चलना
मैने सीख लिया ढंग से बोलना
सीख लिया ना चाहकर भी सबसे मिलकर रहना
जालसाजों से उनकी ही भाषा में बातें करना
क्रोध, भय, हिन्सा, व्याकुल्ता के कारण को समझना
जो अक्सर फ़ैला देती नफ़रत हैं
ज़िन्दगी आज जहां भी है.....
इस आदत की बदौलत है....

क्रान्ति और क्रान्तिकारी लोग, औरों की तरह
मुझे भी अच्छे लग जाते हैं....
क्रान्तिकारी सोच अक्सर पसंद मुझे आ जाती है
पर तरस आ जाती है तब
जब क्रान्तिकारी शक्तियां स्वार्थी संगठन के काम आ जाती हैं.....
अरे चंद कुल लोगों को खुश कर हम क्रान्तिकारी नहीं बन जाते
वो दिन-रात कहते रहें भले वीर
पर जिन हाथों से गई है निर्दोषों की जान
वो कातिल ही हैं कहलाते....

अरे क्रान्ति में शहर उजाड़ने की नहीं
शहर बसाने की क्षमता है
क्रान्ति में धरती को इतना सुन्दर बनाने की क्षमता है
कि स्वर्ग, जनत, हेवेन का मालिक जिसके लिए हम अक्सर
लड़ते रहते हैं, वो भी धरती पर बस जाने की चाहत कर ले....

क्योंकि दूर बैठा हमारा मालिक
दूर हमसे इसलिए नहीं रहता
कि उसको हमसे नहीं मुहब्बत है
वो दूर तो इस लिए रहता है, क्योंकि हमने उसके लिए,
उसके मुताबिक, धरती पर बनाये नहीं दफ्तर हैं....

बचपने से सपने देखने की मेरी आदत है
ज़िन्दगी आज जहां भी है, इस आदत की बदौलत है.....



सुनीता लुल्लाजी ने बेहद खूबसूरत ग़ज़ल सुनाई जिसके हर शेर में मिट्टी की खुशबू महसूस की जा सकती है. ग़ज़ल में निर्गुण भाव से लेकर, बारिश की बूंदों का मन पर जादू होने तक का चित्रण बेहद बढ़िया है. किसानों की मेहनत, गाँव छोड़ कर गए बेटे के लिए दुःख और आखिर में मिट्टी में मिल जाने की सच्चाई, ग़ज़ल को सभी सदस्यों ने बहुत सराहा.



गगन ओढना और बिछौना मिट्टी का
तन यह अपना एक खिलौना मिट्टी का


हरियाली धरती के आँचल पर देखो
गांव है दिखता एक दिठौना मिट्टी का


रिमझिम रिमझिम बूँदों ने भरमाया है
मन पर होता जादू टोना मिट्टी का


खून पसीना देकर देखो काटा है
खेतो में उगता ये सोना मिट्टी का


छोड गांव को शहर कहीं जा बैठा है
ऐसे पूत को देखो रोना मिट्टी का


लौट चलो अब फिर से उन चौपालों पर
स्वर्ग यहीं पर देखो बोना मिट्टी का


तेरे ऊँचे महलों में न रह पाये
यादों में बसता है कोना मिट्टी का


जीवन क्या है आना जाना बेमानी
मिट्टी में देखो मिल जाना मिट्टी का






रांगेय राघव ने एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दे को अपनी कविता के जरिये उठाया. गरीबों की गरीबी मिटाने वाले न जाने कितने ठेकेदार बन बैठे हैं पर गरीब आज भी बस अपने अधिकार की राह देख रहा है. कविता किसी से रहनुमाई की नहीं बस इंसानियत के व्यवहार की उम्मीद करती है.


ना ताजो तख्त ना ताजे मिल्कियत चाहिए !
हो अगर इंसान तो बस इंसान चाहिए
खूदा की बंदगि से मूख्तलिफ हू मै
हो गरीबो  के बनते रहनूमा
जीवन और जेब पर आघात करते हो !!
ना किसी की जागीर ना जागीरदार चाहिए ।
हो अगर इंसान तो इंसान चाहिए
ये कैसा शहर है
अमीरो की हर सांस की खबर
अखबारों की सूर्खियां बन जाते ।
गरीबो का दम निकले
तो कोई खबर तक नहीं आते
ना कोई हो फरिश्ता ना फरिश्ता चाहिए !!
हो अगर इंसान तो बस इंसान चाहिए ।।
हो लगा लेते मुखौटा खूबसूरत लफ्जो का ।
करते रोज दूनिया के सामने
चर्चा गरीबी और गरीबो का
ना ठेका गरीबो का ना ठेकेदार चाहिए
हो अगर इंसान तो बस इंसान चाहिए! !


मंगला अभ्यंकरजी ने अपनी सुरीली आवाज में एक मधुर गीत का गायन किया जिसे श्रोताओं द्वारा बहुत पसंद किया गया.

कारवां ज़िंदगी का
             यूं गुज़रता गया ,
उम्र घटती गयी,
            दर्द बढ़ता गया 


आंसुओं की नदी में
             नहाए बहुत ,
चाह की प्यास पर
             बुझ न सकी आज तक ।


आशा-निराशा के बीच
             सदियों से झुलते रहें,
समंदर के किनारे बैठ
             पानी को तरसते रहे 


रिश्तों के जाल में
             अनजाने ही उलझते गये ,
लुटी सांसों के साथ
         बोझ ज़िंदगी का ढोते गये 


वक्त की आंधियों ने
       तोड़ डाला दिल का आशियाना,
  खेल किस्मत का पर
        अभी तक न हमने जाना 


ग़म ही अब ज़िंदगी का
        हमसफ़र रह गया है,
तनहा जीवन का ये
        सहारा बन गया है  




प्रवीण प्रणव ने एक ठोकर लग जाने के बाद फिर से नया प्रयास करने का आह्वान करते हुए कुछ शेर सुनाए.



जो बुझ गया एक चराग तो, तू दूसरा जलाता क्यूँ नहीं
नाकाम  मुकद्दर को अपने,  फिर आजमाता क्यूँ नहीं

चलो शायद गिरना गलत था, पर अब तो, वो हो चुका
संभल के फिर से, ऊंचाइयों पर, पाँव बढ़ाता क्यूँ नहीं 

बस सोच के कि बहरी हुकूमत, यूँ ही चुप बैठा है क्यूँ
वाजिब हैं  फरियादें तो फिर, आवाज़ लगाता क्यूँ नहीं

कभी जुगनुओं से भी रौशन, अँधेरों को कर के दिखा 
सपने चाँद - तारों के पर, कुछ कर दिखाता क्यूँ नहीं 

नाजुक से इस दौर में, हर सिक्के के दो पहलू हैं यहाँ
न कह यहाँ कहानी अपनी, पूरा सच बताता क्यूँ नहीं

कुछ नामुमकिन तभी तक, कोशिश जब तक की नहीं
हिम्मत कर सूरज से एक बार, आँख मिलाता क्यूँ नहीं


प्रवीण प्रणव ने पहले खुद में बदलाव लाने का सुझाव देती हुई ग़ज़ल का सस्वर पाठ किया.



पहले   खुद  को  बदल  के  तो  देख,  ज़माना  बदल  जाएगा
रात  काली  ये  ढल  जायेगी,  सुख  का  सूरज निकल जाएगा

हसरत है गर चाँद की,  फिर  अंधेरों से डरने का क्या फायदा
गम  का इस  कदर तू गम न कर, आज आया है कल जाएगा

लक्ष्य पर  टिकी  निगाहों  में, ख्वाब  कुछ  और के पलते नहीं
सितारों की होगी ख्वाहिश जिसे, क्या जुगनू को मचल जाएगा 

न मांगे उसने सिक्कों की खनक, न भूखा ही है चढ़ावों का वो
दो  आंसू  बहेंगे दिल  से कभी, फिर  पत्थर  भी पिघल जाएगा

यूँ डर जाने से तो न सरल होंगी, मुसीबतों के ये  पथरीले रास्ते
बस चलना ही है तेरे हाथों में, तू  गिरेगा गिर के संभल जाएगा

जिंदगी  के  ये  मसले  उलझे  हुए, इतने भी आसां नहीं हैं कि
झुनझुना  सा कोई आ  के देगा, बजा और बच्चा बहल जाएगा 






कविगोष्ठी में विभा भारती, रांगेय राघव, भावना पुरोहित, पवित्रा अग्रवाल, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, शशि राय, सूरज प्रसाद सोनी, सुनीता लुल्ला, श्रीपूनम जोधपुरी, सौम्या दुबे, सत्यनारायण काकड़ा, भंवरलाल उपाध्याय, कुंजबिहारी गुप्ता, डा० रमा द्विवेदी, मंगला अभ्यंकर, लीला बजाज, अवधेश कुमार सिन्हा, प्रवीण प्रणव, डा० अहिल्या मिश्र, शिवकुमार तिवारी कोहिर, देविदास घोड़के, अवनीश दुबे,मीना मुथा ने रचनाएं सुनाई. नरेन्द्र राय ने अध्यक्षीय काब्यपाठ किया. मल्लिकार्जुन, जुगल बंग जुगल, नमिता दुबे, मधुकर मिश्र और भूपेंद्र मिश्र उपस्थित रहे. मीना मुथा ने कार्यक्रम का संचालन किया.


गोष्ठी के सभी सदस्यों की रचनाओं को वीडियो में सुना जा सकता है.





हमें आपके सुझावों और आपके प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.


-        कादम्बिनी क्लब, हैदराबाद  


6 comments:

  1. बहुत सुंदर,बहुत बहुत बधाई सबको,एक सुझाव है अगर माइक उपलब्ध हो जाए तो रिकॉर्डिंग और भी बेहतर हो सकती है । यू ट्यूब में और भी बेहतर क्वालिटी जाए तो सुनने वाले को और भी अच्छा लगेगा।

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  2. बहुत सुंदर,बहुत बहुत बधाई सबको,एक सुझाव है अगर माइक उपलब्ध हो जाए तो रिकॉर्डिंग और भी बेहतर हो सकती है । यू ट्यूब में और भी बेहतर क्वालिटी जाए तो सुनने वाले को और भी अच्छा लगेगा।

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  3. बहुत सुन्दर कार्यक्रम. कादम्बिनी क्लब की यह परंपरा इसी प्रकार बनी रहे. रमा जी का सुझाव अच्छा है, मैं भी कल शाम वीडियो सुनते समय इस पर विचार कर रहा था. हम लोग मिलकर माइक की व्यवस्था कर सकते हैं.

    पुनः शुभकामनाएं कादम्बिनी परिवार !!

    आशीष नैथानी
    tishnagiashishnaithani.blogspot.in

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  4. प्रस्ताव के समर्थन हेतु हार्दिक आभार आशीष जी। कैसे हो आपकी कमी अखरती है ,अपना ख्याल रखना,स्नेहाशीष,

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  5. प्रस्ताव के समर्थन हेतु हार्दिक आभार आशीष जी। कैसे हो आपकी कमी अखरती है ,अपना ख्याल रखना,स्नेहाशीष,

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  6. very very nice effort of kadmbni club.

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