करके
हम भी बी० ए० पास
हैं अब जिलाधीश के दास ।
पाते हैं दो बार पचास
बढ़ने की रखते हैं आस ॥१॥
हैं अब जिलाधीश के दास ।
पाते हैं दो बार पचास
बढ़ने की रखते हैं आस ॥१॥
खुश हैं मेरे साहिब मुझ पर
मैं जाता हूँ नित उनके घर ।
मुफ्त कई सरकारी नौकर
रहते हैं अपने घर हाजिर ॥२॥
पढ़कर
गोरों के अखबार
हुए हमारे अटल विचार,
अँग्रेज़ी मे इनका सार,
करते हैं हम सदा प्रचार ॥३॥
हुए हमारे अटल विचार,
अँग्रेज़ी मे इनका सार,
करते हैं हम सदा प्रचार ॥३॥
वतन हमारा है दो-आब,
जिसका जग मे नहीं जवाब ।
बनते बनते जहां अजाब,
बन जाता है असल सवाब ॥४॥
ऐसा ठाठ अजूबा पाकर,
करें किसी का क्यों मन में डर ।
खाते पीते हैं हम जी भर,
बिछा हुआ रखते हैं बिस्तर ॥५॥
करें किसी का क्यों मन में डर ।
खाते पीते हैं हम जी भर,
बिछा हुआ रखते हैं बिस्तर ॥५॥
हमें जाति की जरा न चाह,
नहीं देश की भी परवाह ।
हो जावे सब भले तबाह,
हम जावेंगे अपनी राह ॥६॥
नहीं देश की भी परवाह ।
हो जावे सब भले तबाह,
हम जावेंगे अपनी राह ॥६॥
[सरस्वती
१९०७ में प्रकाशित गुलेरी
जी की रचना]
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