परीक्षा देने के पीछे और उसके फल निकलने
के पहले दिन किस बुरी तरह बीतते हैं, यह उन्हीं को मालूम है जिन्हें उन्हें गिनने
का अनुभव हुआ है। सुबह उठते ही परीक्षा से आज तक कितने दिन गए, यह
गिनते हैं और फिर 'कहावती आठ हफ्ते' में कितने दिन घटते हैं, यह
गिनते हैं। कभी-कभी उन आठ हफ्तों पर कितने दिन चढ़ गए, यह
भी गिनना पड़ता है। खाने बैठे है और डाकिए के पैर की आहट आई - कलेजा मुँह को आया।
मुहल्ले में तार का चपरासी आया कि हाथ-पाँव काँपने लगे। न जागते चैन, न
सोते-सुपने में भी यह दिखता है कि परीक्षक साहब एक आठ हफ्ते की लंबी छुरी ले कर
छाती पर बैठे हुए हैं।
मेरा भी बुरा हाल था। एल-एल.बी. का फल
अबकी और भी देर से निकलने को था - न मालूम क्या हो गया था, या
तो कोई परीक्षक मर गया था, या उसको प्लेग हो गया था। उसके पर्चे
किसी दूसरे के पास भेजे जाने को थे। बार-बार यही सोचता था कि प्रश्नपत्रों की जाँच
किए पीछे सारे परीक्षकों और रजिस्ट्रारों को भले ही प्लेग हो जाय, अभी
तो दो हफ्ते माफ करें। नहीं तो परीक्षा के पहले ही उन सबको प्लेग क्यों न हो गया? रात-भर
नींद नहीं आई थी, सिर घूम रहा था, अखबार पढ़ने बैठा कि देखता क्या हूँ
लिनोटाइप की मशीन ने चार-पाँच पंक्तियाँ उलटी छाप दी हैं। बस, अब
नहीं सहा गया - सोचा कि घर से निकल चलो; बाहर ही कुछ जी बहलेगा। लोहे का घोड़ा
उठाया कि चल दिए।
तीन-चार मील जाने पर शांति मिली।
हरे-हरे खेतों की हवा, कहीं पर चिड़ियों की चहचह और कहीं कुओं
पर खेतों को सींचते हुए किसानों का सुरीला गाना, कहीं देवदार के पत्तों की सोंधी बास और कहीं
उनमें हवा का सी-सी करके बजना - सबने मेरे परीक्षा के भूत की सवारी को हटा लिया।
बाइसिकिल भी गजब की चीज है। न दाना माँगे, न पानी, चलाए जाइए जहाँ तक पैरों में दम हो।
सड़क में कोई था ही नहीं, कहीं-कहीं किसानों के लड़के और गाँव के
कुत्ते पीछे लग जाते थे। मैंने बाइसिकिल को और भी हवा कर दिया। सोचा था कि मेरे घर
सितारपुर से पंद्रह मील पर कालानगर हैं - वहाँ की मलाई की बरफ अच्छी होती है और
वहीं मेरे एक मित्र रहते हैं, वे कुछ सनकी हैं। कहते है कि जिसे पहले
देख लेंगे, उससे विवाह करेंगे। उनसे कोई विवाह की चर्चा करता है, तो
अपने सिद्धांत के मंडल का व्याखान देने लग जाते हैं। चलो, उन्ही
से सिर खाली करें।
खयाल-पर-खयाल बँधने लगा। उनके विवाह का
इतिहास याद आया। उनके पिता कहते थे कि सेठ गणेशलाल की एकलौती बेटी से अबकी
छुट्टियों में तुम्हारा ब्याह कर देंगे। पड़ोसी कहते थे कि सेठ जी की लड़की कानी
और मोटी है और आठ ही वर्ष की है। पिता कहते थे कि लोग जल कर ऐसी बातें उड़ाते हैं; और
लड़की वैसी भी हो तो क्या, सेठजी के कोई लड़का है नहीं; बीस-तीस
हजार का गहना देंगे। मित्र महाशय मेरे साथ-साथ डिबेटिंग क्लबों में बाल-विवाह और
माता-पिता की जबरदस्ती पर इतने व्याखान झाड़ चुके थे कि अब मारे लज्जा के साथियों
में मुँह नहीं दिखाते थे। क्योंकि पिताजी के सामने चीं करने की हिम्म्त नहीं थी।
व्यक्तिगत विचार से साधारण विचार उठने लगे। हिन्दू-समाज ही इतना सड़ा हुआ है कि
हमारे उच्च विचार चल नहीं सकते। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। हमारे सद्विचार
एक तरह के पशु हैं जिनकी बलि माता-पिता की जिद और हठ की वेदी पर चढ़ाई जाती
है।...भारत का उद्धार तब तक नहीं हो सकता - ।
फिस्स्स्! एकदम अर्श से फर्श पर गिर
पड़े। बाइसिकिल की फूँक निकल गई। कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर। पंप साथ नहीं थी और
नीचे देखा तो जान पड़ा कि गाँव के लड़कों ने सड़क पर ही काँटों की बाड़ लगाई है।
उन्हें भी दो गालियाँ दीं पर उससे तो पंक्चर सुधरा नहीं। कहाँ तो भारत का उद्धार
हो रहा था और कहाँ अब कालानगर तक इस चरखे को खैंच ले जाने की आपत्ति से कोई
निस्तार नहीं दिखता। पास के मील के पत्थर पर देखा कि कालानगर यहाँ से सात मील है।
दूसरे पत्थर के आते-आते मैं बेदम हो लिया था। धूप जेठ की, और
कंकरीली सड़क, जिसमें लदी हुई बैलगाड़ियों की मार से छः-छः इंच शक्कर की-सी
बारीक पिसी हुई सफेद मिट्टी बिछी हुई! काले पेटेंट लेदर के जूतों पर एक-एक इंच
सफेद पालिश चढ़ गई। लाल मुँह को पोंछते-पोंछते रूमाल भीग गया और मेरा सारा आकार
सभ्य विद्वान का-सा नहीं, वरन सड़क कूटने वाले मजदूर का-सा हो
गया। सवारियों के हम लोग इतने गुलाम हो गए हैं कि दो-तीन मील चलते ही छठी का दूध
याद आने लगता है!
'बाबूजी क्या बाइसिकिल में पंक्चर हो गया?'
एक तो चश्मा, उस
पर रेत की तह जमी हुई, उस पर ललाट से टपकते हुए पसीने की
बूँदें, गर्मी की चिढ़ और काली रात-सी लंबी सड़क - मैंने देखा ही नहीं
था कि दोनों ओर क्या है। यह शब्द सुनते ही सिर उठाया, तो
देखा की एक सोलह-सत्रह वर्ष की कन्या सड़क के किनारे खड़ी है।
'हाँ, हवा निकल गई है और पंक्चर भी हो गया है।
पंप मेरे पास है नहीं। कालानगर बहुत दूर तो है नहीं - अभी जा पहुँचता हूँ।'
अंत का वाक्य मैंने केवल ऐंठ दिखाने के
लिए कहा था। मेरा जी जानता था की पाँच मील पाँच सौ मील के-से दिख रहे थे।
'इस सूरत से तो आप कालानगर क्या कलकत्ते पहुँच जाएँगे। जरा भीतर
चलिए, कुछ जल पीजिए। आपकी जीभ सूख कर तालू से चिपक गई होगी। चाचाजी
की बाइसिकिल में पंप है और हमारा नौकर गोबिंद पंक्चर सुधारना भी जानता है।'
'नहीं, नहीं - '
'नहीं, नहीं, क्या, हाँ,
हाँ!'
यों कह कर बालिका ने मेरे हाथ से
बाइसिकिल छीन ली और सड़क के एक तरफ हो ली। मैं भी उसके पीछे चला। देखा कि एक
कँटीली बाड़ से घिरा बगीचा है जिसमें एक बँगला है। यहीं पर कोई 'चाचाजी' रहते
होगें, परंतु यह बालिका कैसी -
मैंने चश्मा रूमाल से पोंछा और उसका
मुँह देखा। पारसी चाल की एक गुलाबी साड़ी के नीचे चिकने काले बालों से घिरा हुआ
उसका मुखमंडल दमकता था और उसकी आँखें मेरी ओर कुछ दया, कुछ
हँसी और विस्मय से देख रही थीं। बस, पाठक! ऐसी आँखें मैंने कभी नहीं देखी
थीं। मानो वो मेरे कलेजे को घोल कर पी गईं। एक अद्भुत कोमल, शांत
ज्योति उनमें से निकल रही थी। कभी एक तीर में मारा जाना सुना है? कभी
एक निगाह में हृदय बेचना पड़ा है? कभी तारामैत्रक और चक्षुमैत्र नाम आए
हैं? मैंने एक सेकंड में सोचा और निश्चय कर लिया कि ऐसी सुंदर
आँखें त्रिलोकी में न होगीं और यदि किसी स्त्री की आँखों को प्रेम-बुद्धि से कभी
देखूँगा तो इन्हीं को।
'आप सितारपुर से आए हैं। आपका नाम क्या है?'
'मैं जयदेवशरण वर्मा हूँ। आपके चाचाजी - '
'ओ-हो, बाबू जयदेवशरण वर्मा, बी.ए.; जिन्होंने
'सुखमय
जीवन' लिखा है! मेरा बड़ा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हुए! मैंने आपकी
पुस्तक पढ़ी है और चाचाजी तो उसकी प्रशंसा बिना किए एक दिन भी नहीं जाने देते। वे
आपसे मिल कर बहुत प्रसन्न होंगे; बिना भोजन किए आपको न जाने देगें और
आपके ग्रंथ को पढ़ने से हमारा परिवार-सुख कितना बढ़ा है, इस
पर कम-से-कम दो घंटे तक व्याख्यान देंगे।'
स्त्री के सामने उसके नैहर की बड़ाई कर
दे और लेखक के सामने उसके ग्रंथ की। यह प्रिय बनने का अमोघ मंत्र है। जिस साल
मैंने बी.ए. पास किया था उस साल कुछ दिन लिखने की धुन उठी थी। लॉ कॉलेज के फर्स्ट
इयर में सेक्शन और कोड की परवाह न करके एक 'सुखमय जीवन' नामक
पोथी लिख चुका था। समालोचकों ने आड़े हाथों लिया था और वर्ष-भर में सत्रह प्रतियाँ
बिकी थीं। आज मेरी कदर हुई कि कोई उसका सराहनेवाला तो मिला।
इतने में हम लोग बरामदे में पहुँचे, जहाँ
पर कनटोप पहने, पंजाबी ढंग की दाढ़ी रखे एक अधेड़ महाशय कुर्सी पर बैठे पुस्तक
पढ़ रहे थे। बालिका बोली -
'चाचाजी, आज आपके बाबू जयदेवशरण वर्मा बी.ए. को
साथ लाई हूँ। इनकी बाइसिकिल बेकाम हो गई है। अपने प्रिय ग्रंथकार से मिलाने के लिए
कमला को धन्यवाद मत दीजिए, दीजिए उनके पंप भूल आने को!'
वृद्ध ने जल्दी ही चश्मा उतारा और दोनों
हाथ बढ़ा कर मुझसे मिलने के लिए पैर बढ़ाए।
'कमला, जरा अपनी माता को बुला ला। आइए बाबू
साहब, आइए। मुझे आपसे मिलने की बड़ी उत्कंठा थी। मैं गुलाबराय वर्मा
हूँ। पहले कमसेरियट में हेड क्लर्क था। अब पेंशन ले कर इस एकाक स्थान में रहता
हूँ। दो गौ रखता हूँ और कमला तथा उसके भाई प्रबोध को पढ़ाता हूँ। मैं ब्रह्मसमाजी
हूँ; मेरे यहा परदा नहीं है। कमला ने हिंदी मिडिल पास कर लिया है।
हमारा समय शास्त्रों के पढ़ने में बीतता है। मेरी धर्म-पत्नी भोजन बनाती और कपड़े
सी लेती है; मैं उपनिषद और योग वासिष्ठ का तर्जुमा पढ़ा करता हूँ। स्कूल
में लड़के बिगड़ जाते हैं, प्रबोध को इसिलिए घर पर पढ़ाता हूँ।'
इतना परिचय दे चुकने पर वृद्ध ने श्वास
लिया। मुझे इतना ज्ञान हुआ कि कमला के पिता मेरी जाति के ही हैं। जो कुछ उन्होंने
कहा था, उसकी ओर मेरे कान नहीं थे - मेरे कान उधर थे, जिधर
से माता को ले कर कमला आ रही थी।
'आपका ग्रंथ बड़ा ही अपूर्व है। दांपत्य सुख चाहनेवालों के लिए
लाख रुपए से भी अनमोल है। धन्य है आपको! स्त्री को कैसे प्रसन्न रखना, घर
में कलह कैसे नहीं होने देना, बाल-बच्चों को क्योंकर सच्चरित्र बनाना, इन
सब बातों में आपके उपदेश पर चलने वाला पृथ्वी पर ही स्वर्ग-सुख भोग सकता है। पहले
कमला की माँ और मेरी कभी-कभी खट-पट हो जाया करती थी। उसके ख्याल अभी पुराने ढंग के
हैं। पर जब से मैं रोज भोजन पीछे उसे आध घंटे तक आपकी पुस्तक का पाठ सुनाने लगा
हूँ, तब से हमारा जीवन हिंडोले की तरह झूलते-झूलते बीतता हैं।
मुझे कमला की माँ पर दया आई, जिसको
वह कूड़ा-करकट रोज सुनना पड़ता होगा। मैंने सोचा कि हिंदी के पत्र-संपादकों में यह
बूढ़ा क्यों न हुआ? यदि होता तो आज मेरी तूती बोलने लगती।
'आपको गृहस्थ-जीवन का कितना अनुभव है! आप सब कुछ जानते है! भला, इतना
ज्ञान कभी पुस्तकों में मिलता है? कमला की माँ कहा करती थी कि आप केवल
किताबों के कीड़े हैं, सुनी-सुनाई बातें लिख रहे हैं। मैं
बार-बार यह कहता था कि इस पुस्तक के लिखने वाले को परिवार का खूब अनुभव है। धन्य
है आपकी सहधर्मिणी! आपका और उसका जीवन कितना सुख से बीतता होगा! और जिन बालकों के
आप पिता हैं, वे कैसे बड़भागी हैं कि सदा आपकी शिक्षा में रहते हैं; आप
जैसे पिता का उदाहरण देखते हैं।
कहावत है कि वेश्या अपनी अवस्था कम
दिखाना चाहती है और साधु अपनी अवस्था अधिक दिखाना चाहता है। भला, ग्रंथकार
का पद इन दोनों में किसके समान है? मेरे मन में आई कि कहूँ दूँ कि अभी मेरी
पचीसवाँ वर्ष चल रहा है, कहाँ का अनुभव और कहाँ का परिवार? फिर
सोचा के ऐसा कहने से ही मैं वृद्ध महाशय की निगाहों से उतर जाऊँगा और कमला की माँ
सच्ची हो जायगी कि बिना अनुभव के छोकरे ने गृहस्थ के कर्तव्य-धर्मों पर पुस्तक लिख
मारी है। यह सोचकर मैं मुस्करा दिया और ऐसी तरह मुँह बनाने लगा कि वृद्ध समझा कि
अवश्य मैं संसार-समुद्र में गोते मार कर नहाया हुआ हूँ।
वृद्ध ने उस दिन मुझे जाने नहीं दिया।
कमला की माता ने प्रीति के साथ भोजन कराया और कमला ने पान ला कर दिया। न मुझे अब
कालानगर की मलाई की बरफ याद रही न सनकी मित्र की। चाचा जी की बातों में फी सैकड़े
सत्तर तो मेरी पुस्तक और उनके रामबाण लाभों की प्रशंसा थी, जिसको
सुनते-सुनते मेरे कान दुख गए। फी सैकड़े पचीस वह मेरी प्रशंसा और मेरे पति-जीवन और
पितृ जीवन की महिमा गा रहे थे। काम की बात बीसवाँ हिस्सा थी जिससे मालूम पड़ा कि
अभी कमला का विवाह नहीं हुआ, उसे अपनी फूलों की क्यारी को सँभालने का
बड़ा प्रेम है, 'सखी' के नाम से 'महिला-मनोहर' मासिक
प्रत्र में लेख भी दिया करती है।
सायंकाल को मैं बगीचे में टहलने निकला।
देखता क्या हूँ एक कोने में केले के झाड़ों के नीचे मोतिए और रजनीगंधा की
क्यारियाँ हैं और कमला उनमें पानी दे रही है। मैंने सोचा की यही समय है। आज मरना
है या जीना है। उसको देखते ही मेरे हृदय में प्रेम की अग्नि जल उठी थी और दिन-भर
वहाँ रहने से वह धधकने लग गई थी। दो ही पहर में मैं बालक से युवा हो गया था।
अंगरेजी महाकाव्यों में, प्रेममय उपन्यासों में और कोर्स के
संस्कृत-नाटकों में जहाँ-जहाँ प्रेमिका-प्रेमिक का वार्तालाप पढ़ा था, वहाँ-वहाँ
का दृश्य स्मरण करके वहाँ-वहाँ के वाक्यों को घोख रहा था, पर
यह निश्चय नहीं कर सका कि इतने थोड़े परिचय पर भी बात कैसी करनी चाहिए। अंत में
अंगरेजी पढ़नेवाले की धृष्टता ने आर्यकुमार की शालीनता पर विजय पाई और चपलता कहिए, बेसमझी
कहिए, ढीठपन कहिए, पागलपन कहिए, मैंने
दौड़ कर कमला हाथ पकड़ लिया। उसके चेहरे पर सुर्खी दौड़ गई और डोलची उसके हाथ से
गिर पड़ी। मैं उसके कान में कहने लगा -
'आपसे एक बात कहनी है।'
'क्या? यहाँ कहने की कौन-सी बात है?'
'जब से आपको देखा है तब से -
'बस चुप करो। ऐसी धृष्टता !'
अब मेरा वचन-प्रवाह उमड़ चुका था। मैं
स्वयं नहीं जानता था कि मैं क्या कर रहा हूँ,
पर लगा बकने - 'प्यारी
कमला, तुम मुझे प्राणों से बढ़ कर हो; प्यारी कमला, मुझे
अपना भ्रमर बनने दो। मेरी जीवन तुम्हारे बिना मरुस्थल है, उसमें
मंदाकिनी बन कर बहो। मेरे जलते हुए हृदय में अमृत की पट्टी बन जाओ। जब से तुम्हें
देखा है, मेरा मन मेरे अधीन नहीं है। मैं तब तक शांति न पाऊँगा जब तक
तुम - '
कमला जोर से चीख उठी और बोली - आपको ऐसी
बातें कहते लज्जा नहीं आती? धिक्कार है आपकी शिक्षा को और धिक्कार
आपकी विद्या को! इसी को आपने सभ्यता मान रखा है कि अपरिचित कुमारी से एकांत ढूँढ़
कर ऐसा घृणित प्रस्ताव करें। तुम्हारा यह साहस कैसे हो गया? तुमने
मुझे क्या समझ रखा है? 'सुखमय जीवन' का
लेखक और ऐसा घृणित चरित्र! चिल्लू भर पानी में डूब मरो। अपना काला मुँह मत दिखाओ।
अभी चाचाजी को बुलाती हूँ।'
मैं सुनता जा रहा था क्या मैं स्वप्न
देख रहा हूँ? यह अग्नि-वर्षा मेरे किस अपराध पर? तो
भी मैंने हाथ नहीं छोड़ा। कहने लगा, 'सुनो कमला, यदि
तुम्हारी कृपा हो जाय, तो सुखमय जीवन - '
'देखा तेरा सुखमय जीवन! आस्तीन के साँप! पापात्मा!! मैंने
साहित्य-सेवी जान कर और ऐसे उच्च विचारों का लेखक समझ कर तुझे अपने घर में घुसने
दिया और तेरा विश्वास और सत्कार किया था। प्रच्छन्नपापिन! वकदांभिक!
बिड़ालव्रतिक! मैंने तेरी सारी बातें सुन ली हैं।' चाचाजी आ कर लाला-लाल आँखें दिखाते हुए, क्रोध
से काँपते हुए कहने लगे - 'शैतान, तुझे यहाँ आ कर माया-जाल फैलाने का
स्थान मिला। ओफ! मैं तेरी पुस्तक से छला गया। पवित्र जीवन की प्रशंसा में
फार्मों-के-फार्म काले करनेवाले, तेरा ऐसा हृदय! कपटी! विष के घड़े - '
उनका धाराप्रवाह बंद ही नहीं होता था, पर
कमला की गालियाँ और थीं और चाचाजी की और। मैंने भी गुस्से में आ कर कहा, 'बाबू
साहब, जबान सँभाल कर बोलिए। आपने अपनी कन्या को शिक्षा दी है और
सभ्यता सिखाईं है, मैंने भी शिक्षा पाई है और कुछ सभ्यता सीखी है। आप धर्म-सुधारक
है। यदि मैं उसके गुण रूपों पर आसक्त हो गया,
तो अपना पवित्र प्रणय उसे क्यों न बताऊँ? पुराने
ढर्रे के पिता दुराग्रही होते सुने गए हैं। आपने क्यों सुधार का नाम लजाया है?'
'तुम सुधार का नाम मत लो। तुम तो पापी हो। 'सुखमय
जीवन' के कर्ता हो कर - '
भाड़ में जाय 'सुखमय
जीवन'! उसी के मारे नाकों दम है!! 'सुखमय जीवन' के
कर्ता ने क्या यह शपथ खा ली है कि जनम-भर क्वाँरा ही रहे? क्या
उसे प्रेमभाव नहीं हो सकता? क्या उसमें हृदय नहीं होता?'
'हें, जनम-भर क्वाँरा?'
'हें काहे की? मैं तो आपकी पुत्री से निवेदन कर रहा था
कि जैसे उसने मेरा हृदय हर लिया है वैसे यदि अपना हाथ मुझे दे, तो
उसके साथ 'सुखमय जीवन' के उन आदर्शों का प्रत्यक्ष अनुभव करुँ, जो
अभी तक मेरी कल्पना में है। पीछे हम दोनों आपकी आज्ञा माँगने आते। आप तो पहले ही
दुर्वासा बन गए।'
'तो आपका विवाह नहीं हुआ?
आपकी पुस्तक से तो जान पड़ता है कि आप
कई वर्षों के गृहस्थ-जीवन का अनुभव रखते हैं। तो कमला की माता ही सच्ची थीं।'
इतनी बातें हुई थीं, पर
न मालूम क्यों मैंने कमला का हाथ नहीं छोड़ा था। इतनी गर्मी के साथ शास्त्रार्थ हो
चुका था, परंतु वह हाथ जो क्रोध के कारण लाल हो गया था, मेरे
हाथ में ही पकड़ा हुआ था। अब उसमें सात्विक भाव का पसीना आ गया था और कमला ने
लज्जा से आँखें नीची कर ली थीं। विवाह के पीछे कमला कहा करती है कि न मालूम विधाता
की किस कला से उस समय मैंने तुम्हें झटक कर अपना हाथ नहीं खेंच लिया। मैंने कमला
के दोनों हाथ खैंच कर अपने हाथों के संपुट में ले लिए (और उसने उन्हें हटाया
नहीं!) और इस तरह चारों हाथ जोड़ कर वृद्ध से कहा -
'चाचाजी, उस निकम्मी पोथी का नाम मत लीजिए। बेशक, कमला
की माँ सच्ची हैं। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक पहचान सकती हैं कि कौन अनुभव
की बातें कह रहा है और कौन हाँक रहा है। आपकी आज्ञा हो, तो
कमला और मैं दोनों सच्चे सुखमय जीवन का आरंभ करें। दस वर्ष पीछे मैं जो पोथी
लिखूँगा, उसमें किताबी बातें न होंगी, केवल अनुभव की बातें होगी।'
वृद्ध ने जेब से रूमाल निकाल कर चश्मा
पोंछा और अपनी आँखें पोंछीं। आँखों पर कमला की माता की विजय होने के क्षोभ के आँसू
थे, या घर बैठी पुत्री को योग्य पात्र मिलने के हर्ष के आँसू, राम
जाने।
उन्होंने मुस्करा कर कमला से कहा, 'दोनों
मेरे पीछे-पीछे चले आओ। कमला! तेरी माँ ही सच कहती थी।' वृद्ध
बँगले की ओर चलने लगे। उनकी पीठ फिरते ही कमला ने आँखें मूँद कर मेरे कंधे पर सिर
रख दिया।
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