दक्षिण भारत में पैदा हुए उर्दू
शायरों में शायद सबसे अधिक प्रसिद्धि मखदूम मोहिउद्दीन को प्राप्त हुई। 4 फ़रवरी 1908 को तत्कालीन हैदराबाद रियासत के अन्डोल गाँव में (अब जिला मेडक में) जन्मे
मखदूम मोहिउद्दीन एक प्रतिष्ठित क्रांतिकारी और बहुमुखी प्रतिभा के शायर थे। उनका
पूरा नाम अबू सईद मोहम्मद मखदूम मोहिउद्दीन हुज़री था।
मखदूम का बचपन बहुत सुखद नहीं रहा।
जब वह सिर्फ छह साल के थे,
तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई और उनकी माँ ने दूसरी शादी कर ली। मखदूम
ने मस्जिद में झाडू लगाने का भी काम किया
और नमाजियों की खिदमत की. फिर उनके चाचा ने उन्हें गोद ले लिया और उनकी परवरिश की। यहाँ
से उनकी जिंदगी में तबदीली आई. उनके चाचा ने उनकी परवरिश अच्छे से की और उनकी शिक्षा का प्रबंध किया. मखदूम को
बच्चों से बहुत लगाव रहा. चुकि वो खुद
बहुत कम उम्र में यतीम ही गए थे इसलिए बच्चों की भावनाओं का उन्हें खास ख्याल रहा.
मखदूम की आरंभिक शिक्षा गाँव में हुई और उच्च शिक्षा के
लिए वे हैदराबाद आ गए जहां से उन्होंने स्नातक और स्नातोकत्तर किया. पढाई पूरी
करने के बाद बे हैदराबाद में ही रहने लगे और ब्रिटिश रुल के खिलाफ “फ्री इंडिया”
आन्दोलन से जुड़ गए. 1936 में उन्होंने ओस्मानिया विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की
पढ़ाई पूरी की.
मखदूम ने 1934 में सिटी कॉलेज
में उर्दू साहित्य के प्राध्यापक के रूप में काम करना शुरू कर दिया। वह एक बहुमुखी
प्रतिभा के कवि थे। वे भारत के आंध्र प्रदेश राज्य में कम्युनिस्ट पार्टी के
संस्थापक थे। उनके नाम पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के हैदराबाद स्थित दफ़्तर को
मखदूम भवन के नाम से भी जाना जाता है। बाद में वे हैदराबाद रियासत के भारत के साथ
विलय के लिए हैदराबाद रियासत के तत्कालीन राजशाही के खिलाफ लामबंद हो गए। हैदराबाद
के तत्कालीन शासक, मीर उस्मान अली खान (निजाम) ने स्वतंत्रता
के लिए लोगों को उत्साहित करने के कारण उन्हें जान से मारने का आदेश दिया था।
उनकी प्रसिद्ध नज़्म सिपाही में एक
सिपाही का दर्द और परिवेश साफ़ झलकता है.
जाने
वाले सिपाही से पूछो वो कहाँ जा रहा है
कौन दुखिया है जो गा रही है
भूखे बच्चों को बहला रही है
लाश जलने की बू आ रही है
ज़िंदगी है कि चिल्ला रही है
कितने सहमे हुए हैं नज़ारे
कैसे डर डर के चलते हैं तारे
क्या जवानी का खून हो रहा है
सुर्ख हैं आंचलों के किनारे
गिर रहा है सियाही का डेरा
हो रहा है मेरी जाँ सवेरा
ओ वतन छोड़कर जाने वाले
खुल गया इंक़लाबी फरेरा
कौन दुखिया है जो गा रही है
भूखे बच्चों को बहला रही है
लाश जलने की बू आ रही है
ज़िंदगी है कि चिल्ला रही है
कितने सहमे हुए हैं नज़ारे
कैसे डर डर के चलते हैं तारे
क्या जवानी का खून हो रहा है
सुर्ख हैं आंचलों के किनारे
गिर रहा है सियाही का डेरा
हो रहा है मेरी जाँ सवेरा
ओ वतन छोड़कर जाने वाले
खुल गया इंक़लाबी फरेरा
देशभक्ति से ओतप्रोत एक और प्रसिद्ध
गीत
कहो
हिन्दुस्ताँ की जय
कहो
हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय ।
क़सम है ख़ून से सींचे हुए रंगी गुलिस्ताँ की
क़सम है ख़ूने दहकाँ की, क़सम ख़ूने शहीदाँ की ।
ये मुमकिन है के दुनिया के समुन्दर ख़ुश्क हो जाएँ
ये मुमकिन है के दरिया बहते-बहते थक के सो जाएँ ।
जलाना छोड़ दें दोज़ख़ के अंगारे ये मुमकिन है
रवानी तर्क कर दे बर्क़ के धारे ये मुमकिन है ।
ज़मीने पाक अब नापाकियों को ढो नहीं सकती
वतन की शम्मे आज़ादी कभी गुल हो नहीं सकती ।
कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय ।
वो हिन्दी नौजवाँ याने अलम्बरदारे आज़ादी
वतन का पासबाँ वो तेग-ए जौहरदारे आज़ादी ।
वो पाक़ीज़ा शरारा बिजलियों ने जिसको धोया है
वो अंगारा के जिसमें ज़ीस्त ने ख़ुद को समोया है ।
वो शम्म-ए ज़िन्दगानी आँधियों ने जिसको पाला है
एक ऐसी नाव तूफ़ानों ने ख़ुद जिसको सम्भाला है ।
वो ठोकर जिससे गीती लरज़ा बरअन्दाम रहती है ।
कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय ।
वो धारा जिसके सीने पर अमल की नाव बहती है ।
छुपी ख़ामोश आहें शोरे महशर बनके निकली हैं ।
दबी चिंगारियाँ ख़ुरशीदे ख़ावर बनके निकली हैं ।
बदल दी नौजवाने हिन्द ने तक़दीर ज़िन्दाँ की
मुजाहिद की नज़र से कट गई ज़ंजीर ज़िन्दाँ की ।
कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय ।
क़सम है ख़ून से सींचे हुए रंगी गुलिस्ताँ की
क़सम है ख़ूने दहकाँ की, क़सम ख़ूने शहीदाँ की ।
ये मुमकिन है के दुनिया के समुन्दर ख़ुश्क हो जाएँ
ये मुमकिन है के दरिया बहते-बहते थक के सो जाएँ ।
जलाना छोड़ दें दोज़ख़ के अंगारे ये मुमकिन है
रवानी तर्क कर दे बर्क़ के धारे ये मुमकिन है ।
ज़मीने पाक अब नापाकियों को ढो नहीं सकती
वतन की शम्मे आज़ादी कभी गुल हो नहीं सकती ।
कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय ।
वो हिन्दी नौजवाँ याने अलम्बरदारे आज़ादी
वतन का पासबाँ वो तेग-ए जौहरदारे आज़ादी ।
वो पाक़ीज़ा शरारा बिजलियों ने जिसको धोया है
वो अंगारा के जिसमें ज़ीस्त ने ख़ुद को समोया है ।
वो शम्म-ए ज़िन्दगानी आँधियों ने जिसको पाला है
एक ऐसी नाव तूफ़ानों ने ख़ुद जिसको सम्भाला है ।
वो ठोकर जिससे गीती लरज़ा बरअन्दाम रहती है ।
कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय ।
वो धारा जिसके सीने पर अमल की नाव बहती है ।
छुपी ख़ामोश आहें शोरे महशर बनके निकली हैं ।
दबी चिंगारियाँ ख़ुरशीदे ख़ावर बनके निकली हैं ।
बदल दी नौजवाने हिन्द ने तक़दीर ज़िन्दाँ की
मुजाहिद की नज़र से कट गई ज़ंजीर ज़िन्दाँ की ।
कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय । कहो हिन्दुस्ताँ की जय ।
हैदराबाद के भारत विलय के बाद वे 5
वर्षों तक आंध्र प्रदेश विधानसभा के सदस्य
भी रहे। इस दौरान उन्होंने रूस और चीन सहित कई कम्युनिस्ट देशों की यात्रा भी की।
उन्होंने रूस में युरी गागरिन से भी मुलाक़ात की जो अंतरिक्ष में जाने वाले पहने इंसान थे और इस
मुलाक़ात के बाद मखदूम ने गागरिन के लिए एक कविता भी लिखी थी.
मुबारक तुझे ओ ज़मीं के मुसाफ़िर
ज़मीं व ज़माँ की हदें तोड़ कर
आसमानों पे जाना
हवाओं से आगे, ख़ुलाओं से आगे
मह व कहकशाँ की फ़िज़ाओं से आगे
मुबारक सितारों की चिलमन हटाना
सरे जुल्फ़े नाहीद को छू के आना
दिले इब्ने आदम की धड़कन सुनाना
मुबारक तुझे ओ ज़मीं के मुसाफ़िर
ज़मीं व ज़माँ की हदें तोड़ कर
आसमानों पे जाना ।
ज़मीं व ज़माँ की हदें तोड़ कर
आसमानों पे जाना
हवाओं से आगे, ख़ुलाओं से आगे
मह व कहकशाँ की फ़िज़ाओं से आगे
मुबारक सितारों की चिलमन हटाना
सरे जुल्फ़े नाहीद को छू के आना
दिले इब्ने आदम की धड़कन सुनाना
मुबारक तुझे ओ ज़मीं के मुसाफ़िर
ज़मीं व ज़माँ की हदें तोड़ कर
आसमानों पे जाना ।
आजादी के बाद और राज्यों के निर्धारण के बाद मखदूम
साहित्यिक गतिविधियों में लगे रहे. उनकी रचना बिसात-ए-रस्क के लिए उन्हें 1969
में उर्दू साहित्य एकेडमी पुरस्कार से
सम्मानित किया गया, इसी वर्ष उनका देहांत भी हो गया. उनकी रचनाओं के अलावा टैगोर
पर उनके लिखे लेख और काब्य नाटक “होश के नाखून” प्रमुख रहे. बिसात-ए-रस्क, मखदूम
के दो संग्रह सुर्ख सवेरा (1944) और गुल-ए-तर (1961) का संकलन है.
मखदूम को शायर-ए-इन्किलाब के खिताब से भी नवाज़ा गया. उनके ग़ज़ल और गीत कई हिंदी
फिल्मों में लिए गए. एक चमेली के मंडवे तले, आप की याद आती रही रात भर, फिट छिड़ी
रात बात फूलों की कुछ प्रमुख गीत हैं. आजादी के लिए बगावत करने के लिए मखदूम को जेल भी जाना
पड़ा लेकिन वहां भी उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा. जेल में कागज़ कलम नहीं मिलने पर
उन्होंने जेल की दीवारों पर कोयले तक से नज़्म लिखे.
ऐसा नहीं है कि मखदूम ने सिर्फ क्रांति पर ही लिखा, उन्होंने
बहुत ही रूमानी नज़्म, गीत और ग़ज़ल भी लिखे. लेकिन रूमानी रचनाओं में भी, बेहतर कल
के ख्वाब और उम्मीदों का असर दिखता रहा. या यूँ कहें कि कुछ क्रांति की रचनाएं
रूमानियत के साथ लिखी गईं.
रक़्स
वो रूप रंग राग का पयाम ले के आ गया
वो कामदेव की क्मान जाम ले के आ गया
वो चाँदनी की नर्म-नर्म आँच में तपी हुई
समन्दरों के झाग से बनी हुई जवानियाँ
हरी-हरी रविश पे हमक़दम भी हमकलाम भी
बदन महक-महक के चल
कमर लचक-लचक के चल
क़दम बहक-बहक के चल
वो रूप रंग राग का पयाम ले के आ गया
वो कामदेव की कमान जाम ले के आ गया
वो रूप रंग राग का पयाम ले के आ गया
वो कामदेव की क्मान जाम ले के आ गया
वो चाँदनी की नर्म-नर्म आँच में तपी हुई
समन्दरों के झाग से बनी हुई जवानियाँ
हरी-हरी रविश पे हमक़दम भी हमकलाम भी
बदन महक-महक के चल
कमर लचक-लचक के चल
क़दम बहक-बहक के चल
वो रूप रंग राग का पयाम ले के आ गया
वो कामदेव की कमान जाम ले के आ गया
ख़्वाहिशें
ख़्वाहिशें
लाल, पीली, हरी, चादरें ओढ़ कर
थरथराती, थिरकती हुई जाग उठीं
जाग उठी दिल की इन्दर सभा
दिल की नीलम परी, जाग उठी
दिल की पुखराज
लेती है अंगड़ाईयाँ जाम में
जाम में तेरे माथे का साया गिरा
घुल गया
चाँदनी घुल गई
तेरे होंठों की लाली
तेरी नरमियाँ घुल गईं
रात की, अनकही, अनसुनी दास्ताँ
घुल गई जाम में
ख़्वाहिशें
लाल, पीली, हरी, चादरें ओढ़ कर
थरथराती, थिरकती हुई जाग उठीं ।
लाल, पीली, हरी, चादरें ओढ़ कर
थरथराती, थिरकती हुई जाग उठीं
जाग उठी दिल की इन्दर सभा
दिल की नीलम परी, जाग उठी
दिल की पुखराज
लेती है अंगड़ाईयाँ जाम में
जाम में तेरे माथे का साया गिरा
घुल गया
चाँदनी घुल गई
तेरे होंठों की लाली
तेरी नरमियाँ घुल गईं
रात की, अनकही, अनसुनी दास्ताँ
घुल गई जाम में
ख़्वाहिशें
लाल, पीली, हरी, चादरें ओढ़ कर
थरथराती, थिरकती हुई जाग उठीं ।
आज
की रात न जा
रात आई है, बहुत रातों के बाद आई है
देर से दूर से आई है, मगर आई है ।
मरमरी सुबह के हाथों में छलकता हुआ जाम आएगा
रात टूटेगी उजालों का पयाम आएगा ।
आज की रात न जा ।
रात आई है, बहुत रातों के बाद आई है
देर से दूर से आई है, मगर आई है ।
मरमरी सुबह के हाथों में छलकता हुआ जाम आएगा
रात टूटेगी उजालों का पयाम आएगा ।
आज की रात न जा ।
मखदूम ने
राबिया बेगम से निकाह किया और उनके तीन बच्चे हुए. ज़किया बेगम उनकी सबसे बड़ी बेटी
थीं. उनके बड़े बेटे का नाम नुसरत मोहिउद्दीन है जो स्टेट बैंक ऑफ़ हैदराबाद के
मुलाजिम रह चुके हैं. इसके साथ ही वे एक जाने माने शायर, CPI के सदस्य और इन्साफ
तहरीक के सचिव भी रहे. उनके दूसरे बेटे का नाम ज़फर मोहिउद्दीन है जो सिंगरेनी कोल्
माइन्स के लिए काम करते हैं.
मखदूम हैदराबाद के हरदिलअज़ीज़ शायर
थे। वे बड़े ही मिलनसार और खुशमिज़ाज बल्कि हँसोड़ किस्म के आदमी थे। वे न केवल शायरी
के कद्रदानों बल्कि सामान्य रिक्शेवालों,
होटलों के बेयरों, छोटे बच्चों, घरेलू औरतों तक से एक सी बेतक़ल्लुफी से मिलते थे। मखदूम की लोकप्रियता डा०
ज़ीनत साज़िदा के शब्दों में कुछ ऐसी थी, “मोगलपुरे के
नौजवानों से लेकर चिक्कड़-पल्ली के मज़दूरों तक जिस को देखिये एक फैशन सा बना लिया
है कि मखदूम की मुहब्बत में मरे जा रहे हैं।“ खुद अपना मज़ाक उड़ाने में उनका कोई
सानी नहीं था।
एक
बार मखदूम अलसुबह ओरियेंट होटल पहुँचे और बेयरे से पूछा, “निहारी है?
बैरा बोला, “नहीं है।“
मखदूम ने पूछा, “आमलेट है?”
बैरा बोला, “नहीं“
मखदूम ने फिर पूछा, “खाने के लिए कुछ है?”
बैरे ने जवाब दिया, “इस वक़्त तो कुछ नहीं है।“
इस पर मखदूम बोले, “ये होटल है या हमारा घर कि यहाँ कुछ भी नहीं है!”
बैरा बोला, “नहीं है।“
मखदूम ने पूछा, “आमलेट है?”
बैरा बोला, “नहीं“
मखदूम ने फिर पूछा, “खाने के लिए कुछ है?”
बैरे ने जवाब दिया, “इस वक़्त तो कुछ नहीं है।“
इस पर मखदूम बोले, “ये होटल है या हमारा घर कि यहाँ कुछ भी नहीं है!”
उनकी आदत थी कि कोई नई ग़ज़ल कहने के
बाद फौरन किसी न किसी को सुना डालते थे। इस आदत को लेकर एक लतीफा वे खुद ही सुनाया
करते थे
एक दिन उनसे ग़ज़ल हो गई तो फौरन
ओरियेंट होटल चले आए कि कोई माई का लाल मिल जाए तो उसे ग़ज़ल सुनाएं। यहाँ कोई न
मिला तो ’सबा’ के दफ़्तर चले गए। वहाँ भी कोई न मिला। थक-हार कर चाइनीज बार में चले
गए। बार के बैरे क़ासिम को बुला कर कहा,
“दो पैग व्हिस्की ले आओ।” क़ासिम व्हिस्की ले आया तो उससे बोले,
“बैठो और व्हिस्की पियो।“ क़ासिम शरमाता रहा मगर वो अड़े रहे। आखिर
उसने खड़े-खड़े व्हिस्की पी ली। फिर बोले, “दो पैग व्हिस्की और
ले आओ।” दूसरे दौर में भी उन्होंने क़ासिम को व्हिस्की पिलाई। फिर तीसरा दौर चला।
इसके बाद मखदूम ने क़ासिम से कहा, “अच्छा क़ासिम! अब मेरे
सामने बैठो, मैं तुम्हें अपनी ताज़ा ग़ज़ल के कुछ शे’र सुनाना
चाहता हूँ।“
यह सुनते ही क़ासिम ने कहा, “साहिब, आप बहुत पी चुके हैं। आपकी हालत गैर हो रही है। चलिये, मैं आपको घर छोड़ आऊँ।“ मखदूम द्वारा अपनी होशमंदी के हजार सुबूत पेश करने
के बाद भी क़ासिम ने उस रात उनकी ग़ज़ल नहीं सुनी।
मखदूम की एक नज़्म ’नया साल’ जिसमें
उनका ये मसखरापन झलक मारता है:
करोड़ों बरस की पुरानी
कुहनसाल दुनिया
ये दुनिया भी क्या मस्खरी है!
नये साल की शाल ओढ़े
बसद तन्ज़, हम सब से ये कह रही
है
कि मैं तो ’नई’ हूँ
हँसी आ रही है।
मखदूम अक्सर अपने परिचितों को
जानबूझकर छेड़ते भी रहते थे। ऐसा ही एक किस्सा है:
एक बार मखदूम एक अन्य हैदराबादी शायर
सुलेमान अरीब के घर पर मशहूर पेन्टर सईद बिन मुहम्मद के साथ बैठे थे। बातों के
क्रम में वे बोले, “शाइरी मुसव्विरी से कहीं ज़्यादा ताकतवर मीडियम है।“
सईद बिन मुहम्मद ने जवाब दिया, “मुसव्विरी और शाइरी
का क्या तकाबुल! शाइरी में तुम जो चीज बयान नहीं कर सकते, हम
रंगों और फार्म में बयान कर देते हैं। तुम कहो तो सारी उर्दू शाइरी को पेन्ट कर के
रख दूँ।“
मखदूम बोले, “सारी उर्द शायरी तो बहुत बड़ी बात है; तुम इस मामूली मिस्रे को ही पेन्ट कर दो –
मखदूम बोले, “सारी उर्द शायरी तो बहुत बड़ी बात है; तुम इस मामूली मिस्रे को ही पेन्ट कर दो –
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है।“
सईद बिन मुहम्मद ने कहा, “ इसमें कौन सी बड़ी
बात है; मैं कैनवास पर एक गुलाब की पंखुड़ी बना दूँगा।“
वे बोले, “पंखुड़ी गुलाब की तो पेन्ट हो गई, मगर ’सी’ को कैसे पेन्ट करोगे?”
सईद बिन मुहम्मद बोले, “’सी’ भी भला कोई पेन्ट करने की चीज है?”
मखदूम बोले, “मिस्रे की जान तो ’सी’ ही है। सईद! आज मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा जब तक तुम ’सी’ को पेन्ट नहीं करोगे।“
वे बोले, “पंखुड़ी गुलाब की तो पेन्ट हो गई, मगर ’सी’ को कैसे पेन्ट करोगे?”
सईद बिन मुहम्मद बोले, “’सी’ भी भला कोई पेन्ट करने की चीज है?”
मखदूम बोले, “मिस्रे की जान तो ’सी’ ही है। सईद! आज मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा जब तक तुम ’सी’ को पेन्ट नहीं करोगे।“
यह सुनते ही सईद बिन मुहम्मद भाग खड़े
हुए।
क्रांति के रास्ते में अमूनन सफलताएं
कम और दुश्वारियां ज्यादा हिस्से में आती हैं. मखदूम तो भी कई बार गुमनाम होना
पड़ा. उनके कई नज्मों में इस सूनापन का असर साफ़ झलकता है.
शहर
ये
शहर अपना
अजब
शहर है कि
रातों में
सड़क पे चलिए तो
सरगोशियाँ सी करता है
वो ला के ज़ख्म दिखाता है
राज-ए-दिल की तरह
दरीचे बंद
गुल चुप
निढ़ाल दीवारें
किवाड़ मोहर-ब-लब
घरों में माय्यतें ठहरी हुई है बरसों से
किराए पर
सन्नाटा
कोई
धड़कन
न कोई चाप
न संचल
न कोई मौज
न हलचल
न किसी साँस की गर्मी
न बदन
ऐसे सन्नाटे में इक आध तो पत्ता खड़के
कोई पिघला हुआ मोती
कोई आँसू
कोई दिल
कुछ भी नहीं
कितनी सुनसान है ये रहगुज़र
कोई रुख़सार तो चमके, कोई बिजली तो गिरे
न कोई चाप
न संचल
न कोई मौज
न हलचल
न किसी साँस की गर्मी
न बदन
ऐसे सन्नाटे में इक आध तो पत्ता खड़के
कोई पिघला हुआ मोती
कोई आँसू
कोई दिल
कुछ भी नहीं
कितनी सुनसान है ये रहगुज़र
कोई रुख़सार तो चमके, कोई बिजली तो गिरे
वक़्त-
बेदर्द मसीहा
दर्द
की रात है
चुपचाप गुज़र जाने दो
दर्द को मरहम न बनाओ
दिल को आवाज़ न दो
नूर-ए-सहर को न जगाओ
ज़ख़्म सोते हैं तो सो रहने दो
ज़ख़्म के माथे से अम्य्तभरी उँगली न हटाओ
दिल को आराम, फफोलों को सुकूँ मिलता है
वक़्त बेदर्द मसीहा है
चुपचाप गुज़र जाने दो
दर्द को मरहम न बनाओ
दिल को आवाज़ न दो
नूर-ए-सहर को न जगाओ
ज़ख़्म सोते हैं तो सो रहने दो
ज़ख़्म के माथे से अम्य्तभरी उँगली न हटाओ
दिल को आराम, फफोलों को सुकूँ मिलता है
वक़्त बेदर्द मसीहा है
सैयद मोहम्मद मेहदी, मखदूम साहब के
दोस्त थे. उन्हें याद करते हुए मेहदी साहब ने कहा था कि मखदूम बहुत ही सुरीले थे.
वे अपने हर नज़्म की धुन भी बनाते थे और बड़े सुर में गुनगुनाते थे.
एक दिलचस्प वाकया याद करते हुए
उन्होंने बताया कि उन दिनों हर स्कूल में पहले निजाम की शान में एक तराना पढ़ा जाता
था. मखदूम ने इस तराने के खिलाफ़ एक शेर लिख दिया जो बहुत प्रसिद्द हो गया. लोगों
ने निज़ाम को सूचित किया कि मखदूम ने एक शेर लिखी है जिसकी वजह से अब जब भी ये
तराना गाया जाता है तो लोग हंसने लगते हैं और इससे आपकी शान में गुस्ताखी हो रही
है. निजाम ने उसके बाद तराना गाने का नियम रद्द कर दिया.
एक और दिलचस्प वाकया उनके चुनाव लड़ने
से जुड़ा है. मखदूम असेम्बली के चुनाव में खड़े थे और उन्हें लोगों का अपार समर्थन
था. उनकी ही लिखी एक शेर है
हयात
ले के चलो, कायनात ले के चलो
चलो तो ज़माने को अपने साथ ले के चलो
चलो तो ज़माने को अपने साथ ले के चलो
उस चुनाव में लोगों ने इस शेर को एक
दिलचस्प तरीके से बदल दिया और शहर की हर दीवार पर चस्पा कर दिया
हयात
ले के चलो, कायनात ले के चलो
चलो तो जनाने को अपने साथ ले के चलो
चलो तो जनाने को अपने साथ ले के चलो
मतलब था कि चुनाव के दिन अपनी औरतों
को भी अपने साथ ले जाएँ और मखदूम के लिए वोट डालें.
अमूनन कम ही होता है की कोई शायर
दुसरे शायर की तारीफ़ करे लेकिन मखदूम इसके अपवाद थे. एक बार उन्होंने मेहदी साहब
को सुवह सुवह फोन लगाया और पूछा कि आज के अखबार में मेरी ग़ज़ल पढ़ी? मेहदी साहब ने
नहीं पढ़ी थी तो इन दोनों ने शाम में मिलने का प्रोग्राम बनाया. किसी होटल में शाम
में मिले और जब अखबार पढ़ रहे थे तो उसी अखबार में फैज़ अहमद फैज़ की एक ग़ज़ल पर उनकी
नज़र गई. उन्होंने तुरत उस ग़ज़ल की धुन बनाई और उसे गाते रहे. जब मेहदी साहब ने
उन्हें बोला कि तुमने ग़ज़ल सुनाने को बुलाया था तो उन्होंने बात बदलते हुए बोला यही
तो ग़ज़ल है इससे बढ़िया ग़ज़ल क्या होगी. उस शाम कई लोगों के आग्रह करने के बाद भी
मखदूम ने अपनी कोई ग़ज़ल नहीं पढ़ी और फैज़ की उस ग़ज़ल को गुनगुनाते रहे. फैज़ की वो ग़ज़ल
थी:
इसी तरह फैज़ ने भी मखदूम को एक अव्वल
दर्जे का शायर माना और उनका एहतराम किया. मेहदी साहब ने जब इस वाकये तो फैज़ के साथ
साझा किया तो उनकी आँखें भर आई थी.
दूरदर्शन ने नामी साहित्यकारों की
याद में एक कार्यक्रम “कहकशां” का निर्माण किया जिसमे मखदूम पर 8 भागों की
श्रृंखला प्रसारित की गई.
मखदूम
के कुछ प्रसिद्ध ग़ज़ल
रातभर दीद-ए-नमनाक में लहराते रहे
साँस की तरह से आप आते रहे जाते रहे ।
ख़ुश थे हम अपनी तमन्नाओं का ख़्वाब आएगा
अपना अरमान बर अफ़गंदा नक़ाब आएगा ।
नज़रें नीची किए शरमाए हुए आएगा
काकुले चेहरे पे बिखराए हुए आएगा ।
आ गई थी दिले मुज़तर में शकेबाई -सी
बज रही थी मेरे ग़मख़ाने में शहनाई-सी ।
पत्तियाँ खड़कीं तो समझा के लो आप आ ही गए
सजदे मसरूर के मसजूद को हम पा ही गए ।
शब के जागे हुए तारों को भी नींद आने लगी
आपके आने की एक आस थी अब जाने लगी ।
सुबह के सेज से उठते हुए ली अँगड़ाई
ओ सबा तू भी जो आई तो अकेली आई ।
मेरे महबूब मेरी नींद उड़ाने वाले
मेरे मसजूद मेरी रूह पे छाने वाले ।
आ भी जा ताके मेरे सजदों का अरमाँ निकले
आ भी जा, ताके तेरे क़दमों पे मेरी जाँ निकले ।
साँस की तरह से आप आते रहे जाते रहे ।
ख़ुश थे हम अपनी तमन्नाओं का ख़्वाब आएगा
अपना अरमान बर अफ़गंदा नक़ाब आएगा ।
नज़रें नीची किए शरमाए हुए आएगा
काकुले चेहरे पे बिखराए हुए आएगा ।
आ गई थी दिले मुज़तर में शकेबाई -सी
बज रही थी मेरे ग़मख़ाने में शहनाई-सी ।
पत्तियाँ खड़कीं तो समझा के लो आप आ ही गए
सजदे मसरूर के मसजूद को हम पा ही गए ।
शब के जागे हुए तारों को भी नींद आने लगी
आपके आने की एक आस थी अब जाने लगी ।
सुबह के सेज से उठते हुए ली अँगड़ाई
ओ सबा तू भी जो आई तो अकेली आई ।
मेरे महबूब मेरी नींद उड़ाने वाले
मेरे मसजूद मेरी रूह पे छाने वाले ।
आ भी जा ताके मेरे सजदों का अरमाँ निकले
आ भी जा, ताके तेरे क़दमों पे मेरी जाँ निकले ।
आप
की याद आती रही रात भर
चश्मे नम मुस्कुराती रही रात भर ।
रात भर दर्द की शम्मा जलती रही
ग़म की लौ थरथराती रही रात भर ।
बाँसुरी की सुरीली सुहानी सदा
याद बन बन के आती रही रात भर ।
याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चाँदनी जगमगाती रही रात भर ।
कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा
कोई आवाज़ आती रही रात भर ।
चश्मे नम मुस्कुराती रही रात भर ।
रात भर दर्द की शम्मा जलती रही
ग़म की लौ थरथराती रही रात भर ।
बाँसुरी की सुरीली सुहानी सदा
याद बन बन के आती रही रात भर ।
याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चाँदनी जगमगाती रही रात भर ।
कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा
कोई आवाज़ आती रही रात भर ।
इश्क़
के शोलों को भड़काओ के कुछ रात कटे
दिल के अंगारे को दहकाओ के कुछ रात कटे ।
हिज्र में मिलने शब-ए-माह के ग़म आए हैं
चारसाज़ों को भी बुलवाओ के कुछ रात कटे ।
कोई जलता ही नहीं, कोई पिघलता ही नहीं
मोम बन जाओ, पिघल जाओ, के कुछ रात कटे ।
चश्मे-रुख़सार के अज़कार को जारी रखो
प्यार के नग़मे को दोहराओ के कुछ रात कटे ।
आज हो जाने दो हरएक को बदमस्त-ओ-ख़राब
आज एक-एक को पिलवाओ के कुछ रात कटे ।
कोहे ग़म और गिराँ और गिराँ और गिराँ
ग़मज़दो तीशे को चमकाओ के कुछ रात कटे ।
दिल के अंगारे को दहकाओ के कुछ रात कटे ।
हिज्र में मिलने शब-ए-माह के ग़म आए हैं
चारसाज़ों को भी बुलवाओ के कुछ रात कटे ।
कोई जलता ही नहीं, कोई पिघलता ही नहीं
मोम बन जाओ, पिघल जाओ, के कुछ रात कटे ।
चश्मे-रुख़सार के अज़कार को जारी रखो
प्यार के नग़मे को दोहराओ के कुछ रात कटे ।
आज हो जाने दो हरएक को बदमस्त-ओ-ख़राब
आज एक-एक को पिलवाओ के कुछ रात कटे ।
कोहे ग़म और गिराँ और गिराँ और गिराँ
ग़मज़दो तीशे को चमकाओ के कुछ रात कटे ।
फिर
छिड़ी रात बात फूलों की
रात है या बारात फूलों की ।
फूल के हार, फूल के गजरे
शाम फूलों की रात फूलों की ।
आपका साथ, साथ फूलों का
आपकी बात, बात फूलों की ।
नज़रें मिलती हैं जाम मिलते हैं
मिल रही है हयात फूलों की ।
कौन देता है जान फूलों पर
कौन करता है बात फूलों की ।
वो शराफ़त तो दिल के साथ गई
लुट गई कायनात फूलों की ।
अब किसे है दमाग़े तोहमते इश्क़
कौन सुनता है बात फूलों की ।
मेरे दिल में सरूर-ए-सुबह बहार
तेरी आँखों में रात फूलों की ।
फूल खिलते रहेंगे दुनिया में
रोज़ निकलेगी बात फूलों की ।
ये महकती हुई ग़ज़ल 'मख़दूम'
जैसे सहरा में रात फूलों की ।
रात है या बारात फूलों की ।
फूल के हार, फूल के गजरे
शाम फूलों की रात फूलों की ।
आपका साथ, साथ फूलों का
आपकी बात, बात फूलों की ।
नज़रें मिलती हैं जाम मिलते हैं
मिल रही है हयात फूलों की ।
कौन देता है जान फूलों पर
कौन करता है बात फूलों की ।
वो शराफ़त तो दिल के साथ गई
लुट गई कायनात फूलों की ।
अब किसे है दमाग़े तोहमते इश्क़
कौन सुनता है बात फूलों की ।
मेरे दिल में सरूर-ए-सुबह बहार
तेरी आँखों में रात फूलों की ।
फूल खिलते रहेंगे दुनिया में
रोज़ निकलेगी बात फूलों की ।
ये महकती हुई ग़ज़ल 'मख़दूम'
जैसे सहरा में रात फूलों की ।
25
अगस्त, 1969 को जब मखदूम की मृत्यु हुई तो
हजारों लोग धाड़ें मार-मार कर रो रहे थे जैसे कि उनके परिवार से ही किसी की मृत्यु
हो गई हो। उनके व्यक्तित्व और जीवन को उन्हीं के शब्दों में बयान करें तो:
एक शख़्स था ज़माना था के
दीवाना बना
इक अफ़साना था अफ़साने से अफ़साना बना।
इक अफ़साना था अफ़साने से अफ़साना बना।
इक परी चेहरा के जिस चेहरे से आईना बना
दिल के आईना दर आईना परीखाना बना।
क़ीमि-ए-शब में निकल आता है गाहे-गाहे
एक आहू कभी अपना कभी बेगाना बना।
है चरागाँ ही चरागाँ सरे आरिज़ सरेज़ाम
रंग सद जलवा जाना न सनमखाना बना।
एक झोंका तेरे पहलू का महकती हुई याद
एक लम्हा तेरी दिलदारी का क्या-क्या न बना।
मखदूम के सरमाये में एक तरफ तो उनके क्रांतिकारी
सरोकारों से जुड़ी शायरी है तो दूसरी ओर एक बड़ा भाग इससे अलग खालिस रूमानी शायरी का
भी है। इस संदर्भ में मशहूर शायर ख़्वाज़ा अहमद अब्बास ने बिल्कुल ठीक कहा था कि, “मख़्दूम एक धधकती
ज्वाला थे और ओस की ठंडी बूँदें भी, वे क्रांति के आवाहक थे
और पायल की झंकार भी। वे ग्यान थे, वे कर्म थे, वे प्रग्या थे, वे क्रांतिकारी छापामार की बन्दूक थे
और संगीतकार का सितार भी। वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी।“ हैदराबाद के इस
महान क्रांतिकारी शायर को मेरा सलाम.
- प्रवीण प्रणव
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