सायंकाल हुआ ही चाहता है। जिस प्रकार
पक्षी अपना आराम का समय आया देख अपने-अपने खेतों का सहारा ले रहे हैं उसी प्रकार
हिंस्र श्वापद भी अपनी अव्याहत गति समझ कर कंदराओं से निकलने लगे हैं। भगवान
सूर्य प्रकृति को अपना मुख फिर एक बार दिखा कर निद्रा के लिए करवट लेने वाले ही थे, कि
सारी अरण्यानी 'मारा' है,
बचाओ, मारा है' की कातर ध्वनि से पूर्ण हो गई। मालूम
हुआ कि एक व्याध हाँफता हुआ सरपट दौड़ रहा,
और प्रायः दो सौ गज की दूरी पर एक भीषण
सिंह लाल आँखें, सीधी पूँछ और खड़ी जटा दिखाता हुआ तीर की तरह पीछे आ रहा है।
व्याध की ढीली धोती प्रायः गिर गई है, धनुष-बाण बड़ी सफाई के साथ हाथ से च्युत
हो गए हैं, नंगे सिर बिचारा शीघ्रता ही को परमेश्वर समझता हुआ दौड़ रहा
है। उसी का यह कातर स्वर था।
यह अरण्य भगवती जह्नुतनया और पूजनीया
कलिंदनंदनी के पवित्र संगम के समीप विद्यमान है। अभी तक यहाँ उन स्वार्थी मनुष्य
रुपी निशाचरों का प्रवेश नहीं हुआ था जो अपनी वासनाओं की पूर्ति के लिए आवश्यक से
चौगुना-पँचगुना पा कर भी झगड़ा करते हैं, परंतु वे पशु यहाँ निवास करते थे जो
शांतिपूर्वक समस्त अरण्य को बाँट कर अपना-अपना भाग्य आजमाते हुए न केवल धर्मध्वजी
पुरुषों की तरह शिश्नोदर परायण ही थे, प्रत्युत अपने परमात्मा का स्मरण करके
अपनी निकृष्ट योनि को उन्नत भी कर रहे थे। व्याध, अपने स्वभाव के अनुसार, यहाँ
भी उपद्रव मचाने आया था। उसने बंग देश में रोहू और झिलसा मछलियों और 'हासेर
डिम' को निर्वंश कर दिया था,
बंबई के केकड़े और कछुओं को वह आत्मसात
कर चुका था और क्या कहें मथुरा, बृंदावन के पवित्र तीर्थों तक में वह
वकवृत्ति और विडालव्रत दिखा चुका था। यहाँ पर सिंह के कोपन बदनाग्नि में उसके
प्रायश्चितों का होम होना ही चाहता है। भागने में निपुण होने पर भी मोटी तोंद उसे
बहुत कुछ बाधा दे रही है। सिंह में और उसमें अब प्रायः बीस ही तीस गज का अंतर रह
गया और उसे पीठ पर सिंह का उष्ण निःश्वास मालूम-सा देने लगा। इस कठिन समस्या में
उसे सामने एक बड़ा भारी पेड़ दीख पड़ा। अपचीयमान शक्ति पर अंतिम कोड़ा मार कर वह
उस वृक्ष पर चढ़ने लगा और पचासों पक्षी उसकी परिचित डरावनी मूर्ति को पहचान कर
अमंगल समझ कर त्राहि-त्राहि स्वर के साथ भागने लगे। ऊपर एक बड़ी प्रबल शाखा पर
विराजमान एक भल्लूक को देख कर व्याध के रहे-सहे होश पैंतरा हो गए। नीचे मंत्र-बल
से कीलित सर्प की भाँति जला-भुना सिंह और ऊपर अज्ञात कुलशील रीछ। यों कढ़ाई से
चूल्हे में अपना पड़ना समझ कर वह र्किकर्तव्यविमूढ़ व्याध सहम गया, बेहोश-सा
हो कर टिक गया, 'न ययौ न तस्थो' हो गया। इतने में ही किसी ने स्निग्ध
गंभीर निर्घोष मधुर स्वर में कहा - 'अभयं शरणागतस्य! अतिथि देव! ऊपर चले
जाइए, पापी व्याध, सदा छल-छिद्र के कीचड़ में पला हुआ, इस
अमृत अभय वाणी को न समझ कर वहीं रुका रहा। फिर उसी स्वर ने कहा - 'चले
आइए महाराज! चले आइए। यह आपका घर है। आज मेरे बृहस्पति उच्च के हैं जो यह अपवान
स्थान आपकी चरनधूलि से पवित्र होता है। इस पापात्मा का आतिथ्य स्वीकार करके इसे
उद्धार कीजिए। 'वैश्वदेवांतमापन्नो सोऽतिथिः स्वर्ग संज्ञकः।' पधारिए
- यह विष्टर लीजिए, यह पाद्य, यह अर्ध्य, यह
मधुपर्क।'
पाठक! जानते हो यह मधुर स्वर किसका था? यह
उस रीछ का था। वह धर्मात्मा विंध्याचल के पास से इस पवित्र तीर्थ पर अपना काल
बिताने आया था। उस धर्मप्राण धर्मैकजीवन ने वंशशत्रु व्याध को हाथ पकड़ कर अपने
पास बैठाया; उसके चरणों की धूलि मस्तक से लगाई और उसके लिए कोमल पत्तों का
बिछौना कर दिया। विस्मित व्याध भी कुछ आश्वस्त हुआ।
नीचे से सिंह बोला - 'रीछ!
यह काम तुमने ठीक नहीं किया। आज इस आततायी का काम तमाम कर लेने दो। अपना अरण्य
निष्कंटक हो जाय। हम लोगों में परस्पर का शिकार न छूने का कानून है। तुम क्यों
समाज-नियम तोड़ते हो? याद रक्खो, तुम
इसे आज रख कर कल दुःख पाओगे। पछताओगे। यह दुष्ट जिस पत्तल में खाता है उसी में
छिद्र करता है। इसे नीचे फैंक दो।'
रीछ बोला - 'बस, मेरे
अतिथि परमात्मा की निंदा मत करो। चल दो। यह मेरा स्वर्ग है, इसके
पीछे चाहे मेरे प्राण जायं, वह मेरी शरण आया है, इसे
मैं नही छोड़ सकता। कोई किसी को धोखा या दुःख नहीं दे सकता है, जो
देता है वह कर्म ही देता है। अपनी करनी सबको भोगनी ही पड़ती है।'
'मैं फिर कहे देता हूँ, तुम पछताओगे' यह
कह कर सिंह अपना नख काटते हुए, दुम दबाए चल दिया।
प्रायः पहर भर रात जा चुकी है। रीछ अपने
दिन भर के भूखे-प्यासे अतिथि के लिए, सूर्योढ अतिथि के लिए, कंदमूल
फल लेने गया है। परंतु व्याध को चैन कहाँ? दिन भर की हिंसा प्रणव प्रवृत्ति रुकी
हुई हाथों में खुजली पैदा कर रही है। क्या करै?
बिजली के प्रकाश में उसी वृक्ष में एक
प्राचीन कोटर दिखाई दिया और उसमें तीन-चार रीछ के छोटे-छोटे बच्चे मालूम दिए। फिर
क्या था? व्याध के मुँह में पानी भर आया परंतु धनुष-बाण, तलवार
रास्ते में गिर पड़े हैं, यह जान कर पछतावा हुआ। अकस्मात जेब में
हाथ डाला तो एक छोटी सी पेशकब्ज! बस, काम सिद्ध हुआ। अपने उपकारी रक्षक रीछ
के बच्चों को काट कर कच्चा ही खाते उस पापात्मा व्याध को दया तो आई ही नहीं, देर
भी न लगी। वह जीभ साफ करके ओठों को चाट रहा था कि मार्ग में फरकती बाईं आँख के
अशकुन को 'शांतं पापं नारायण! शांतं पापं नारायण' कह
कर टालता हुआ रीछ आ गया और चुने हुए रसपूर्ण फल व्याध के आगे रख कर सेवक के स्थान
पर बैठ कर बोला - 'मेरे यहाँ थाल तो है नहीं,
न पत्ते हैं, पुष्पं
पत्रं फलं तोयं अतिथि नारायण की सेवा में समर्पित है।' जब
व्याध अपने दग्धोदर की पूर्ति कर चुका तो इसने भी शेषान्न खाया और कुछ प्रसाद अपने
बच्चों को देने के लिए कोटर की तरफ चला।
कोटर के द्वार पर ही प्रेमपूर्वक
स्वागतमय 'दादा हो' न सुन कर उसका माथा ठनका। भीतर जा कर
उसने पैशाचिक लीला का अवशिष्ट चर्म और अस्थि देखा। परंतु उस वीतराग के मन में 'तत्र
को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः?' वह उस गंभीर पद से आ कर लेटे हुए व्याध के
पैर दबाने लग गया। इतने में व्याध के दुष्कर्म ने एक पुराने गीध का रुप धारण कर
रीछ को कह दिया कि तेरी अनुपस्थिति में इस कृतघ्न व्याध ने तेरे बच्चे खा डाले
हैं। व्याध को कर्मसाक्षी में विश्वास न था,
वह चौंक पड़ा। उसका मुँह पसीने से तर हो
गया, उसकी जीभ तालू से चिपक गई और वह इन वाक्यों को आने वाले यम का
दूत समझ कर थर-थर काँपने लगा। बूढ़े रीछ के नेत्रों में अश्रु आ गए; परंतु
वह खेद के नहीं थे, हर्ष के थे। उसने उस गृध्र को संबोधन करके कहा - 'धिक्
मूढ़! मेरे परम उपकारी को इन उल्वण शब्दों से स्मरण करता है! (व्याध से) महाराज!
धन्य भाग्य उन बच्चों के जो पाप में जन्मे और पाप में बढ़े; परंतु
आज आपकी अशनाया निवृत्ति के पुण्य के भागी हुए! न मालूम किन नीचातिनीच कर्मो से
उनने यह पशुयोनि पाई थी, न मालूम उनने इस गर्हित योनि में रह कर
कितने पाप-कर्म और करने थे। धन्य मेरे भाग्य! आज वे 'स्वर्गद्वारमुपानृतं' में
पहुँच गए। हे कुलतारण! आप कुछ भी इस बात की चिंता न कीजिए। आपने मेरे 'सप्तावरे
सप्त पूर्वे' तरा दिए!' जिसे मद नहीं और मोह नहीं वह रीछ व्याध
का सम्वाहन करके संसार-यात्रा के अनुसार सो गया, परंतु उसने अपना निर्भीक स्थान व्याध को
दे दिया था, और स्वंय वह दो शाखाओं पर आलंबित था। चिकने घड़े पर जल की तरह
पापात्मा व्याध पर यह धर्म्माचरण और तज्जन्य शांति प्रभाव नहीं डाल सके; वह
तारे गिनता जागता रहा और उसके कातर नेत्रों से निद्रा भी डर कर भाग गई। इसने में
मटरगश्त करते वही सिंह आ पहुँचे और मौका देख कर व्याध से यों बोले - 'व्याध!
मैं वन का राजा हूँ। मेरा फर्मान यहाँ सब पर चलता है। कल से तू यहाँ निष्कण्ट
रुप से शिकार करना। परंतु मेरी आज्ञा न मानने वाले इस रीछ को नीचे फैंक दे।' पाठक!
आप जानते है कि व्याध ने इस यत्न पर क्या किया?
रीछ के सब उपकारों को भूल कर उस
आशामुग्ध ने उसको धक्का दे ही तो दिया। आयुः शेष से, पुण्यबल से, धर्म
की महिमा से, उस रीछ का स्वदेशी कोट एक टहनी में अटक गया और वह जाग कर, सहारा
ले कर ऊपर चढ़ आया। सिंह ने अट्टहास करके कहा -'देखो रीछ! अपने अतिथि चक्रवर्ती का
प्रसाद देखो। इस अपने स्वर्ग, अपने अमृत को देखो। मैंने तुम्हें
सायंकाल क्या कहा था? अब भी उस नीच को नीचे फैंक दो।' रीछ
बोला - 'इसमें इनने क्या किया? निद्रा की असावधानता में मै ही पैर चूक
गया, नीचे गिरने लगा। तू अपना मायाजाल यहाँ न फैला। चला जा।' रीछ
उसी गंभीर निर्भीक भाव से सो गया। उसको परमेश्वर की प्रीति के स्वप्न आने लगे और
व्याध को कैसे मिश्र स्वप्न आए, यह हमारे रसज्ञ पाठक जान ही लेंगे। - 'नहि
कल्याणकृत कश्चिद्दुर्गति तात गच्छति।'
ब्राह्ममुहूर्त में उठ कर रीछ ने अलग
व्याध को जगाया और कहा - 'महाराज! मुझे स्नान के लिए त्रिवेणी
जाना है और फिर लोकयात्रा के लिए फिरना है,
मेरे साथ चलिए, मैं
आपको इस कांतार से बाहर निकलने का मार्ग बतला दूँ। परंतु आप उदास क्यों हैं? क्या
आपके आतिथ्य में कोई कमी रह गई? क्या मुझसे कोई कसूर हुआ?' व्याध
बात काट कर बोला - 'नहीं, मेरा ध्यान घर की तरफ गया था। मेरे पर, अन्न-वस्त्र
के लिए धर्मपत्नी और बहुत से बालक निर्भर हैं। मैंने सुख से खाया और सोया, परंतु
वे बेचारे क्षुत्क्षामकंठ कल के भूखे हैं उनके लिए कुछ पाथेय नहीं मिला।' रीछ
ने हाथ जोड़ कर कहा - 'नाथ! आज आपकी छुरिका त्रिवेणी में यह
देह स्नान करके स्वर्ग को जाना चाहता है। यदि इस दुर्मांस से माता और भाई तृप्त
हों, और इस जरच्चर्म्म से उनकी जूतियाँ बनें तो आप 'तत
सदद्य' करें। धन्यभाग्य आज यह अनेक जन्मसंसिध्द आपके वदनाग्नि में
परागति को पावै।' व्याध ने बरछी उठा कर रीछ के हृदय में झोंक दी। प्रसन्नवदन रीछ
ऋतुपर्ण की तरह बोला -
शिरामुखैः स्यन्दत एव रक्तनद्यापि देहे
मम मांसमस्ति।
उस उदार महामान्य के आगे कर्ण का यह
वाक्य क्या चीज था -
कियदिदमधिकं में यदद्विजावार्थयित्रे,
कवचमरमणीयं कुण्डले चार्पयामि ।
अकरुणमवकृत्य द्राक्कृपाणेन तिर्यग्,
वहलरुधिरधारं मौलिमावेदयामि॥
सारा अरण्य स्वर्गीय प्रकाश और सुगंध से
खिल रहा है। अनागतवाद का मधुर स्वर कानों को पवित्र कर रही है। उसी वृक्ष के सहारे
एक दिव्य विमान खड़ा है और परात्पर भगवान नारायण स्वयं रीछ को अपने चरणकमल में ले
जाने को आए हैं। भगवान मृत्युंजय भी अपनी चंद्रकलाओं से उस शरीर को आप्यायित कर
रहे हैं। देवाङ्नाएँ उसकी सेवा करने को और इंद्रादिक उसकी चरणधूलि लेने को दौड़े आ
रहे हैं। जिस समय उस बर्छी का प्रवेश उस धर्मप्राण कलेवर में हुआ, भगवान
नारायण आनंद से नाचते और क्लेष से तड़पते, लक्ष्मी को ढकेल, गरुड़
को छोड़ और शेषनाग को पेल, 'नमे भक्तः प्रणश्यति' को
सिद्ध करते हुए दौड़ आए और रीछ को गले लगा कर आनंदाश्रु गद्गद कंठ से बोले -'प्रयाग
में बहुत बड़े-बड़े इंद्र, वरुण, प्रजापति और भरद्वाज के यज्ञ हुए हैं, परतु
सबसे अधिक महिमापूर्ण यज्ञ यह हुआ है जिसकी पूर्णाहुति अभी हुई है। प्रिय ऋक्ष!
मेरे साथ चलो, और हे नराधम! तू अपने नीच कर्मों...।' ऋक्ष
ने भगवान के चरण पकड़ कर कहा - 'नाथ! यदि मेरा चावल भर भी पुण्य है तो
इस पुरुष-रत्न को बैकुंठ ले जाइए। इसके कर्म का फल भोगने को मैं घोरातिघोर नरक
में जाने को तैयार हूँ।' भगवान विस्मित हो कर बोले - 'यह
क्या? लोक-संग्रह को उत्पन्न करते हो?' ऋक्ष हाथ जोड़ कर बोला -
पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणामथापि
वा ।
कार्यं करुणमार्येण न कश्चिदपराध्यति ॥
भक्त का आग्रह माना गया। भगवान, व्याध
और ऋक्ष एक ही विमान में बैकुंठ गए।
भारतवासियो! यह तुम्हारे ही 'महाभारत' की कथा
है। परंतु अब पुराणों की भक्ति कहने ही की रह गई। पुराणों को सिवाय 'वीक्ष्य
रंतुं मनश्चक्रे' के और
किस वासना से पढ़ता है?
No comments:
Post a Comment