कादम्बिनी क्लब, हैदराबाद द्वारा रविवार, दिनांक 20 मार्च, 2016 को आयोजित मासिक गोष्ठी में
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्, नई दिल्ली की द्वैमासिक पत्रिका ‘गगनांचल’
के सितम्बर-अक्तूबर, 2014 अंक (वर्ष 37, अंक-5) पर समीक्षात्मक
टिप्पणी
‘गगनांचल’ भारत सरकार
द्वारा वित्त पोषित एक स्वायत्तशासी संस्था भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्, नई दिल्ली द्वारा
प्रकाशित साहित्य, कला एवं संस्कृति की द्वैमासिक पत्रिका है । सितम्बर-अक्तूबर, 2014 का यह समीक्ष्य
अंक प्रेमचंद विशेषांक है जिसमें कथाकार एवं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद
(31 जुलाई 1880 - 08 अक्तूबर 1936) के व्यक्तित्व
एवं कृतित्व के विभिन्न आयामों पर कुल चौदह आलेख हैं तथा उनकी एक कहानी भी है ।
साथ में, कुछ अन्य साहित्यिक रचनायें भी हैं ।
पहला आलेख ‘सामाजिक सरोकारों
के अग्रणी लेखक’ प्रो. पुष्पपाल सिंह का है जिसमें प्रेमचंद
के उपन्यासों एवं उनकी कहानियों में उठाये गये तत्कालीन समाज के सरोकारों को बखूबी
विश्लेषित किया गया है ।
प्रेमचंद का जीवन-काल जुलाई 1880 से अक्तूबर 1936 का था और यूँ तो
उन्होंने तेरह साल की उम्र से ही लिखना शुरू किया था लेकिन उनका वास्तविक रचना-काल 1900 से 1936 माना जाता है ।
इस काल-खंड में भारत के
अस्सी प्रतिशत लोग गाँवों में रहते थे । प्रेमचंद स्वयं वाराणसी के निकट लमही
गांव के रहने वाले थे । इस कृषक प्रधान
समाज और ग्राम्य परिवेश में प्रेमचंद इतने गहरे उतरे थे, उनके दुःख-दर्द में उनकी
इतनी गहरी सहभागिता थी कि वे इसकी सांस-सांस से परिचित थे ।
प्रेमचंद ने जर्जर अवस्था में जीते फटेहाल अपने
समकालीन किसान को जिस रूप में चित्रित किया है, अपनी रचनाओं में
जिया है, वह उस काल के किसान की सामाजिक तथा धार्मिक स्थितियों का
अधिकाधिक डाक्यूमेंटेशन है । किसान के माध्यम से ही वे भारत की पूरी सामाजिक
संरचना में प्रवेश कर इस महादेश का समाज-शास्त्र अपनी रचनाओं में
प्रस्तुत करते हैं किन्तु कहीं भी वे इस वैचारिकता को साहित्य में उठाते या आरोपित
नहीं करते हैं । किस्सागोई के अपने सहज गुण से वे पाठक के साथ-साथ हो चलते हैं
। इस प्रकार उनके यहाँ वैचारिकता और कथा-रस का एक विरल मंजुल सहकार
सदैव उपस्थित रहता है । उनकी रचना किसी वर्ग विशेष की न रहकर मेरी, तेरी, उसकी, सबकी बन जाती है
।
उनके उपन्यासों एवं कहानियों
का किसान किसानी के पेशे से आजिज आ गया वह किसान है जिसके लिये खेती एक अभिशाप हो
गई है जिसे न छोड़ते बनता है, न करते । किसान को बारंबार यह
भान होता है कि उसकी दशा मजदूर से भी बदतर है लेकिन वह किसानी इसलिए कर रहा है कि
किसानी में ‘पत’, ‘मरजाद’ (मर्यादा) है जो मजदूरी
में नहीं । ‘गोदान’ का होरी कुल
मरजाद, पुरखों की
पुश्तैनी जमीन को बचाने के लिए बेटी पर रूपये लेकर जिस पाप की गठरी को अपने सिर पर
लेता है, वह उसका भार नहीं उठा पाता है । आत्मग्लानि की इस दाहक
स्थिति में ही होरी जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुँच जाता है जहाँ वह मजदूरी करने को
विवश हो जाता है । इसी मजदूरी की कमाई के बीस आने उसका गोदान बनते हैं । वह जिस कारूणिक और त्रासद रूप से इस संसार से
विदा लेता है, लगता है उसका मरण सामान्य मरण नहीं है, एक पूरी किसान
वृत्ति की त्रासद मृत्यु है । ‘रंगभूमि’ का सूरदास भी अपनी जमीन की रक्षा में प्राणोत्सर्ग कर देता
है । किसानों की इस व्यथा को प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों और ‘सवा सेर गेहूँ’, ‘मुक्तिधन’, ‘बैर का अंत’, ‘अलग्योझा’, ‘सदगति’, ‘सभ्यता का रहस्य’ आदि कहानियों
में बखूबी चित्रित किया है । लगभग अस्सी वर्षों के बाद भी ये सारी स्थितियाँ
हिन्दुस्तान में आज भी प्रकारान्तर से छोटे किसानों के इर्द-गिर्द पसरी हुई
हैं । इन्हीं कारणों की गिरफ्त में पड़ा आज भी किसान आत्महत्या करने को अभिशप्त है
। आज भी वह अपनी जमीन की रक्षा के लिए सरकार के भूमि अधिग्रहण प्रयासों के खिलाफ
आन्दोलन कर रहा है । प्रेमचंद की दूरदर्शी दृष्टि औद्योगीकरण और खुले बाजार के
भयावह परिणामों को इतने समय पूर्व प्रकल्पित कर लेती है, ऐसी दृष्टि
क्रांतदर्शी साहित्कार के पास ही होती है
।
प्रेमचंद जिस देश-काल में रह रहे
थे, वह अत्यंत उथल-पुथल भरा समय था
। उस समय देश की आजादी के लिये चल रहा संघर्ष चरम पर था । उनके जैसा सचेत कलाकार
अपने समय के इस भारी उथल-पुथल से भला असंपृक्त कैसे रह सकता था । अपनी रचनाओं में
प्रेमचंद ने इस समय को पूर्ण जीवंतता से जिया है । उनकी ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘जुलूस’, ‘आहुति’, ‘दो बैलों की कथा’ आदि अनेक
कहानियों तथा ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’, ‘प्रेमाश्रम’ जैसे उपन्यासों
तथा कुछ अंशों में ‘गोदान’ में भी स्वतंत्रता आन्दोलन की धमक देखी-सुनी जा सकती है
। इस आन्दोलन में प्रेमचंद की स्वराज्य की अवधारणा को रूपायित करते हुए उनकी कहानी
‘आहुति’ में रूपमणि कहती
है, “....जिन बुराइयों को
दूर करने के लिए हम प्राणों को हथेली पर लिए हुए हैं, उन्हीं बुराइयों
को क्या प्रजा इसीलिए सिर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नहीं स्वदेशी हैं ? कम-से-कम मेरे लिए तो
स्वराज्य का यह अर्थ नहीं है कि जॉन की जगह गोविंद बैठ जाएं । मैं समाज की ऐसी
व्यवस्था देखना चाहती हूँ, जहाँ कम-से-कम विषमता को
आश्रय न मिल सके ।” रूपमणि आगे कहती हैं, “जाति हित के लिए
प्राण देने वालों को बेवकूफ बनना मुझसे सहा नहीं जाता ।” स्पष्ट है कि प्रेमचंद
न केवल अपे वर्तमान का चित्रण करते थे वरन् आगत की भी उन्हें सुध थी, वे आने वाले
भविष्य की कल्पना सहज ही करते थे और आज हम उसी भय और आशंका को भोग रहे हैं जिसे उस
क्रांतदर्शी साहित्यकार ने लक्षित किया था ।
अपनी कथा-यात्रा के अंतिम
दौर में प्रेमचंद की कहानी कला की तीन बड़ी उपलब्धियाँ हैं – व्यंग्य की तेज
धार की जबर्दस्त मार, अकूत गरीबी का भयावह चित्रण करने की अद्भुत क्षमता और वर्ग
संघर्ष की भावना का तीका अहसास । ‘हंस’ पत्रिका के अक्टूबर 1931 अंक में प्रकाशित
‘दो बैलों की कथा’ में ये तीनों
गुण कमोवेश मात्रा में मौजूद हैं जो गहरे सामाजिक-राजनीतिक
सरोकारों से लैस है ।
आज समाज और साहित्य के
सरोकारों में दो प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं - स्त्री प्रश्न और
दलित प्रश्न । बीसवीं शती के प्रारम्भिक वर्षों में ही प्रेमचंद ‘निर्मला’, ‘सेवा सदन’, ‘गबन’, ‘रंगभूमि’, ‘गोदान’ आदि उपन्यासों
तथा ‘बड़े घर की बेटी’, ‘शांति’, ‘कुसुम’, ‘सुहाग का शव’, ‘नैराश्य लीला’ आदि अनेक
कहानियों में भारतीय समाज में स्त्री की दशा को पुनरर्परिभाषित करने का प्रयत्न
करते हैं । ‘कुसुम’ कहानी में वे
नारी की युग-युग से प्रताड़ित स्थिति का ज़िक्र करते हुए कहते हैं, “.....उसके आत्म-सम्मान के भावों
को मिटाने के लिए यह उपदेश दिया जाता था कि पुरूष ही उसका देवता है, सोहाग स्त्री की
सबसे बड़ी विभूति है । आज कई हजार वर्ष बीत जाने पर भी पुरूष के मनोभावों में कोई
परिवर्तन नहीं हुआ । पुरानी सभी प्रथाएं कुछ विकृत और सुसंस्कृत रूप में मौजूद हैं
।”
प्रेमचंद का समय वर्ण-व्यवस्था की
कट्टरता में बुरी तरह जकड़ा हुआ था । काशी जैसी पुरातनपंथी नगरी में बैठकर
ब्राह्मण मातादीन को जो चुनौती वे सिलिया चमारिन से दिलवाते हैं, वह उस समय की
सामाजिक परिस्थितियों में संभव ही नहीं थी । ‘रंगभूमि’ के सूरदास की अवधारणा भी इसी दिशा में कम
क्रांतिकारी पग नहीं है । दलितों के पक्ष की यह लड़ाई वे विभिन्न रूपों में ‘मंदिर’, ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘सदगति’, ‘कफ़न’ आदि कहानियों
में लड़ते हैं । उनकी रचनाओं में दलितों द्वारा प्रतिरोध का स्वर दबा-दबा नहीं है
अपितु विद्रोहात्मक और चुनौती भरा है ।
अगला आलेख ‘प्रेमचंद का बहुआयामी
व्यक्तित्व’ श्री रति लाल शाहीन का है
जिसमें उनके व्यक्तित्व एवं उनकी रचनाओं के विभिन्न पक्षों को उजागर किया गया है ।
यद्यपि प्रेमचंद का व्यक्तिगत जीवन काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा
किन्तु इसकी लेशमात्र भी आँच उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता एवं तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं
राजनीतिक विसंगतियों के ख़िलाफ आवाज उठाते रहने की अपनी प्रतिबद्धता पर नहीं पड़ने
दी । श्री शाहीन के अनुसार प्रेमचंद एक दूरदर्शी साहित्यकार थे जिनकी रचनाओं में
परिलक्षित भारत का ग्राम्य परिवेश एक सौ साल बाद आज भी लगभग वैसा ही है । उनकी
कहानियों में आज भी ताजगी है । उनके पास विशाल अनुभूति और असीम अनुभव था । वे वक्त
की धड़कन को किसी निष्णात् वैद्य की तरह पहचानते थे । प्रेमचंद हिन्दी कहानी को
छायावाद से मुक्त करवाकर मानवतावादी और यथार्थवादी धरातल पर ले आये । उन्होंने
अपने पात्रों के माध्यम से जीवन के सत्य को निचोड़ा है ।
तीसरा आलेख ‘प्रेमचंद और
प्रसाद- एक सिक्के के दो पहलू’ है जिसके लेखक
डा. सुशील कुमार
पांडेय ‘साहित्येंदु’ ने प्रेमचंद और
जयशंकर प्रसाद के बीच व्यक्तिगत जीवन की असमानताओं एवं साहित्यगत वैचारिक
भिन्नताओं के बावजूद दोनों के बीच आत्मीयता तथा एक-दूसरे के प्रति
सम्मान के कई प्रसंगों की चर्चा की है और यह माना है कि वास्तव में प्रेमचंद और
प्रसाद एक दूसरे के पूरक हैं, एक सिक्के के दो पहलू हैं ।
प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद के
रहन-सहन और तौर-तरीके में ज़मीन-आसमान का फ़र्क
था । प्रेमचंद जी वेश-भूषा, आकृति-प्रकृति, बातचीत सब में आम
आदमी से तनिक भी अलग नहीं पड़ते थे जब कि प्रसाद जी के तेजोमय मुखमंडल पर उनके
ऐश्वर्यपूर्ण जीवन की छाप थी । उनके अंग-अंग में विशिष्टता झलकती थी ।
प्रेमचंद प्रगतिशील साहित्य
के तो जयशंकर प्रसाद छायावाद की नींव के पत्थर थे । यदि प्रेमचंद वर्तमान समाज की
त्रासदियों को दूर कर (विशेषकर सामाजिक असमानता) भारत को आगे
बढ़ाना चाहते थे तो प्रसाद प्राचीन भारत के ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक वैभव, विरासत का स्मरण
कर उससे प्रेरणा ग्रहण कर देश को फिर से विश्व गुरू तथा स्वर्ण पक्षी बनाने के
पक्ष में थे । यद्यपि दोनों साहित्यकार लेखन परंपरा के दो ध्रुव थे किन्तु राहें
जुदा होने पर भी उनकी मंज़िल एक ही थी – भारत का सर्वांगीण विकास तथा
मानवता के उच्च मानदंड की स्थापना । आत्मीयता की यही पावन धारा दोनों को जोड़े
रखती थी । दरअसल, दोनों एक दूसरे के पूरक थे । प्रेमचंद जी का साहित्य
मुख्यतः दुःख के आधार पर स्थित है । उनका मूलमंत्र था - दुःख का बोध करा
देना ही शक्ति का स्रोत बहा देना है । उन्होंने आनंद के विधानात्मक पक्ष की ओर
अधिक ध्यान नहीं दिया । इसके विपरीत, प्रसाद जी संस्कृति और
स्वस्थ्य नारी और पुरूष की शक्ति रहस्य ही प्रस्तुत करते रहे । उनके अनुसार, शक्ति का परिचय
करा देना ही दुःख का उच्छेद कर डालना है ।
यदि दोनों साधारण मित्र होते
तो वैचारिक मतभेदों के कारण एक दूसरे से रूठ जाते, बोल-चाल बंद कर देते
पर महान विचारकों की मित्रता भी विलक्षण होती है । गहरे साहित्यिक मतभेदों के
बावजूद दोनों महारथियों में कभी किसी प्रकार का मनोमालिन्य अथवा वैमनस्य नहीं हुआ
वरन् दोनों के बीच एक अंतरंग आत्मीयता का भाव, एक दूसरे के
प्रति आदर का भाव अंत समय तक बना रहा । दोनों ही बनारस के विक्टोरिया पार्क में
सुबह मिलते और साथ टहलते थे । एक दिन
पार्क में प्रसाद जी के अभिवादन पर प्रेमचंद जी ने खिलखिलाते शब्द उछाले, “अभिवादन का काम
मेरे हाथ में रहे तो ज़्यादा अच्छा लगेगा ....बेहतर तो यही होगा कि
यथार्थवाद ही दूर से छायावाद को नमस्कार करे ।” एक बार प्रेमचंद जी ने अपनी ‘हंस’ पत्रिका में प्रसाद
जी के ऐतिहासिक नाटकों पर संपादकीय मत प्रकट करते हुए लिखा था कि प्रसाद जी
प्राचीन इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ा करते हैं । किंतु जिस समय
यह पत्रिका प्रकाशित हुई उस समय भी प्रेमचंद जी सदा की भाँति प्रसाद जी के साथ
बैठकर निर्विकार चित्त से साहित्यिक सलाह-मशविरा करते रहे । प्रेमचंद
जी के अन्तिम समय में एक सच्चे मित्र का फर्ज़ निभाते हुए प्रसाद जी प्रेमचंद जी
की महायात्रा में न केवल सम्मिलित हुए वरन् बनारस के मणिकर्णिका घाट पर शवदाह की
स्वयं शास्त्र-सम्मत विधि-प्रबंध की निगरानी और उसका निर्देशन भी किया । मित्रता
का यह एक दैविक संयोग ही था कि प्रेमचंद जी की मृत्यु (08 अक्टूबर, 1936) के बाद जयशंकर
प्रसाद जी ने अपनी मृत्यु को पास बुलाने में देर नहीं की और मात्र तीन महीने (14 जनवरी, 1937) के बाद ही वे
दोनों पुनः साथ हो गये ।
चौथे आलेख ‘स्त्री विमर्श और
प्रेमचंद’ की लेखिका डा. आरती स्मित ने
वर्षों से हो रहे स्त्री विमर्श अर्थात् स्त्रियों की स्थितियों पर चिंतन-मनन पर प्रेमचंद
की रचनाओं के माध्यम से उनके विचारों को रूपायित करते हुए माना है कि इस संदर्भ
में प्रेमचंद का नाम वैसे ही उभरकर आता है जैसे गहन कालिमा के बीच प्रकाश-स्फुटन ।
प्रेमचंद का लेखन काल (1900-1936) एक ओर भारतीय
समाज में दलित एवं स्त्री वर्ग के लिए दोहरी गुलामी का समय था, स्त्रियाँ एक साथ
उपनिवेशवाद और सामंतवाद की चक्की में पीस रही थीं तो दूसरी ओर यह राष्ट्रीय जागरण
का भी काल था । सामाजिक जागृति का शंखनाद हो चुका था । विवेकानंद, राजा राम मोहन
राय, दयानंद सरस्वती, महादेव गोविंद
रानाडे, ईश्वरचंद्र
विद्यासागर, ज्योतिबा फूले, महर्षि घोंडो केशव कर्वे आदि
समाज सुधारकों ने स्त्री चेतना को झकझोरते
हुए, उन्हें शिक्षित
करने हेतु तमाम बाधाएं झेलते हुए बाल-विवाह, दहेज प्रथा, सती प्रथा तथा
कन्या वध उन्मूलन के साथ-साथ विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार दिलाने का सार्थक
प्रयास किया । इसी कड़ी में, प्रेमचंद की रचनाओं में भी इन
सुधारों की पुरजोर वकालत की गई । उन्होंने न केवल लेखनी से इन कुरीतियों का विरोध
किया बल्कि अपने जीवन में भी इसे चरितार्थ किया । पहली पत्नी द्वारा पारिवारिक
कारणों से स्थायी तौर पर घर छोड़कर मायका चले जाने के बाद उन्होंने एक विधवा, शिवरानी देवी, से पुनर्विवाह
किया । साथ ही, किसी प्रकार की शर्त्त न होने के बावजूद भी वे अपनी पहली
पत्नी को नियमित रूप से प्रतिमाह भरण-पोषण खर्च भेजते रहे । स्त्रियों की दशा सुधारने के
इन प्रयासों के परिणामस्वरूप महिलाओं में जागृति आई, वे अपने अधिकारों
के प्रति सचेत होने लगीं और कालांतर में महिलाओं ने सामाजिक व राष्ट्रीय आंदोलनों
में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई ।
फरवरी 1931 को लिखे अपने एक
लेख ‘नारी जाति के
अधिकार’ में प्रेमचंद ने
लिखा, “ पुरूषों ने नारी
जाति के स्वत्वों का अपहरण करना शुरू किया, लेकिन राष्ट्रीयता और
सुबुद्धि की जो लहर इस समय आई हुई है, वह इन तमाम भेदों को मिटा
देगी और एक बार फिर हमारी माताएं उसी ऊँचे पद पर आरूढ़ होंगी जो उनका हक़ है ।” दहेज के एक
प्रसंग में उन्होंने लिखा है, “ हमें तो इसका एक ही इलाज नज़र आता है और वह यह कि लड़कियों
को अच्छी शिक्षा दी जाये और उन्हें संसार में अपना रास्ता आप बनाने के लिए छोड़
दिया जाना चाहिए, उसी तरह जैसे हम अपने लड़कों को छोड़ देते हैं । उनको
विवाहित देखने का मोह हमें छोड़ देना चाहिए और जैसे युवकों के विषयमें उनके
पथभ्रष्ट हो जाने की परवाह नहीं करते, उसी प्रकार हमें लड़कियों पर
भी विश्वास करना चाहिए । ” प्रेमचंद विषम परिस्थितियों में ही तलाक का पक्ष लेते हैं
किंतु अपने विस्तृत कथा साहित्य में वे यही चाहते हैं कि स्त्री-पुरूष इस प्रकार
एक-दूसरे के विश्वास
को बचाते हुए जीवनयापन करें कि ‘तलाक’ की स्थिति ना आए । इससे संतति अधिक प्रभावित होती है । वे
इस बात से दुःखी रहते थे कि स्त्रियों से ही सारी अपेक्षाएं क्यों की जाती हैं, पुरूष पूर्णतः
स्वतंत्र है ..क्यों ? पुरूष हो जाने से सभी बातें क्षम्य और स्त्री हो जाने से
अक्षम्य हो जाती हैं । प्रेमचंद विवाह के आदर्श, स्थिर और पवित्र
रूप को ही स्वीकृति देते हैं । अनमेल विवाह पर आधारित उपन्यास ‘निर्मला’ में उन्होंने
इसकी खामियाँ बताई हैं, “जब युवक वृद्धा
के साथ प्रसन्न नहीं रह सकता, तो युवती क्यों वृद्ध के साथ
प्रसन्न रहने लगी ? कली प्रभात समीर के स्पर्श से खिलती है ।” प्रेमचंद ने
निश्छल दैवीय अथवा शाश्वत तथा आत्मिक प्रेम को सदैव स्वीकारा । उनकी दृष्टि में
प्रेम आदि भी सहृदयता है, अंत भी सहृदयता है । लेकिन यौन शुचिता को दांव पर लगाकर
प्रेम के आग्रह को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया, दैहिक उच्छृंखलता
उन्हें सदैव अमान्य रहा ।
डा. श्रीनिवास त्यागी
का अगला आलेख ‘प्रेमचंद की
कहानी कला’ प्रेमचंद के कथा
साहित्य की पड़ताल करते हुए आधुनिक हिन्दी साहित्य में उनके योगदान एवं उनके स्थान
को विश्लेषित करता है ।
प्रेमचंद ने सन् 1907 से 1936 ई. तक लगभग 300 कहानियाँ लिखी
हैं जो मानसरोवर के आठ खंडों में संकलित हैं । इन 300 कहानियों में से
लगभग 50 कहानियाँ ऐसी हैं
जो हिन्दी में अपना अमर स्थान बना चुकी हैं । प्रेमचंद के जीवन काल में कुल नौ
कहानी संग्रह प्रकाशित हुए – सप्तसरोज, नवनिधि, प्रेम-पूर्णिमा, प्रेम-पचीसी, प्रेम-प्रतिमा, प्रेम-द्वादशी, समरयात्रा, मानसरोवर भाग-1, भाग-2 और कफ़न (उर्दू में) । आरंभिक कहानियों
में कला की दृष्टि से वह सफाई, खराद और काट-छांट नहीं है जो
परवर्ती कहानियों में है । आरंभिक कहानियाँ अधिकतर लम्बी, वर्णनात्मक, घटना बहुल, भावना प्रधान और
आदर्शवादी हैं जब कि बाद की कहानियाँ अधिक गठी हुई, संक्षिप्त हो गई
हैं जिनमें कथानक गौण हो गये हैं और पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं के उभार को
प्रधानता मिली है, चित्रण अधिक मनोवैज्ञानिक, तथ्यपूर्ण और
अकृत्रिम होने लगे हैं, चित्रित परिस्थितियों और व्यक्त भावों के बीच अधिक गहरा
सामंजस्य स्थापित हो गया है । उनकी काफी कहानियों ऐसी हैं जिनमें ग्रामीण ठेठपन है, ग्रामीण कथाओं का
रस है और ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण है । उनकी कहानियों की भाषा में उर्दू की
रवानी, व्यावहारिक जीवन
का प्रवाह, ग्राम्य जीवन की अभिव्यंजना तथा स्वयं उनके व्यक्तित्व की
सरलता के दर्शन एक साथ होते हैं । उनकी कुछ कहानियों में आत्मकथात्मक शैली का भी अच्छा
प्रयोग हुआ है ।
प्रेमचंद गाँधीवादी दर्शन से
अधिक प्रभावित लगते हैं और ‘समरयात्रा’ की कहानियाँ तो प्रायः गाँधीवादी आन्दोलनों का जीता-जागता इतिहास बन
गई हैं । उनकी कहानियों में सांप्रदायिक मनोवृत्ति का स्पर्श भी नहीं है ।
उन्होंने मुसलमान पात्रों का भी उतनी ही सहृदयता से चित्रण किया है, जितनी सहानुभूति
से हिंदू पात्रों का । चाहे वह ‘मुक्तिधन’ कहानी का रहमान हो या ‘ईदगाह’ का हामिद या उसकी बूढ़ी दादी अमीना हो । उनका
दृष्टिकोण मानवतावादी है, वे पाप से घृणा करते हैं, पापी से नहीं ।
वे देवत्व में भरोसा करते हुए ‘पंच-परमेश्वर’ और ‘बड़े घर की बेटी’ जैसी कहानियाँ लिखते हैं । उनकी कहानियों का शिल्प
विधान भले ही पाश्चात्य आधार पर हुआ हो, पर इनका निर्माण भारतीय
आदर्शों से हुआ है । हिन्दी के अन्य किसी भी कहानीकार ने मानव जीवन के इतने
विस्तृत और व्यापक फलक को अपनी कहानियों में नहीं समेटा और उकेरा है, जितना कि
प्रेमचंद ने । उनकी कहानियों का सबसे प्रबल आकर्षण अनुभूति की तीव्रता है । उनमें
वर्णन की अद्भुत क्षमता थी । वे मनुष्य की आकृति-प्रकृति, मनोभावों के उतार-चढ़ाव, घटनाओं की
पृष्ठभूमि और उनका प्रभावपूर्ण ब्यौरा, प्रकृतिक सौन्दर्य की रमणीयता, ग्राम्य जीवन की
सरलता आदि का ऐसा चित्र खींचते हैं जो
सजीव होते हैं, मानो घटना आँखों
के सामने हो रही हो और प्रेमचंद उसे नोट करते जाते हों ।
कुछ आलोचक मानते हैं कि
प्रेमचंद की कई कहानियाँ जैसे ‘मूठ’, ‘नागपूजा’ और ‘भूत’ आदि उनके
उपन्यास ‘कायाकल्प’ की ही भाँति
पारलौकिकता में उनके विश्वास का संकेत छोड़ती दिखाई देती हैं । किन्तु स्वयं
प्रेमचंद इन सब पर कितना विश्वास करते थे, इस बारे में कुछ भी निश्चित
तौर पर कहना अनुमान लगाने जैसा होगा । संभव है, ये सब लोकजीवन
में प्रचलित अंधविश्वासों का चित्रण मात्र हो । सच तो यह है कि देश के दो दशकों - सन् 1916 से 1936 तक - के सामाजिक-राजनीतिक
प्रसंगों और घटनाक्रमों, जनसंघर्ष और सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा के प्रामाणिक और
विश्वसनीय अंकन की दृष्टि से प्रेमचंद से बेहतर कोई दूसरा माध्यम नहीं है । यह
अकारण नहीं है कि सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा रखने वाले हर पीढ़ी के लेखक उनसे
जुड़कर गहरा सुख और गौरव अनुभव करते रहे हैं क्योंकि देशी-विदेशी सामाजिक
और राजनीतिक ताकतों के ख़िलाफ अकेले प्रेमचंद ने इन सबसे जितना साहित्यिक संघर्ष
किया है, उतना अधिकांश कहानीकारों ने मिलकर भी नहीं किया होगा ।
वास्तव में, प्रेमचंद हिन्दी के एक युगप्रवर्तक कहानीकार हैं और वे
हिन्दुस्तान के उन थोड़े से साहित्यकारों में हैं जो हिन्दू और मुसलमान दोनों पर
समान अधिकार से लिख सकते हैं । वे सच्चे अर्थों में भारतीय आवाम की साहित्यिक
आवाज़ हैं ।
एक अन्य आलेख ‘प्रेमचंद और
रवीन्द्रनाथ ठाकुर’ में शांतिनिकेतन हिन्दी प्रचार सभा के सचिव डा. रामचंद्र राय ने
प्रेमचंद और रवीन्द्रनाथ टैगोर के बीच के अन्तर्संबंधों को रेखांकित किया है ।
रवीन्द्रनाथ (1861-1941) से प्रेमचंद (1880-1936) आयु में बहुत
छोटे थे तथापि वे उनके प्रति बहुत ही आदर का भाव रखते थे । जब सन् 1936 में प्रेमचंद के
देहावसान का दुखद समाचार उन्हें मिला तब उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी से कहा, “एक रत्न मिला था
तुमको, तुमने खो दिया ।” साथ ही, प्रेमचंद के शोक
संतप्त परिवार को अपने शोक संदेश में कहा, “प्रेमचंद जी की साहित्यिक प्रतिष्ठा और उनका मूल्य
प्रान्तीय सीमाओं से परे था और उनकी कमी हम सबके लिए एक क्षति है ।”
प्रेमचंद और रवीन्द्रनाथ
दोनों एक-दूसरे की रचना प्रक्रियाओं से भलीभाँति परिचित थे ।
प्रेमचंद ने रवीन्द्रनाथ की रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद पढ़कर उनके तीन उपन्यास – ‘बहुठकुरानीर हाट’, ‘नौकाडुबि’ और ‘योगायोग’ का क्रमशः ‘दुल्हन’, ‘तूफान’ और ‘कशमश’ नामों से अनुवाद
तथा उनकी दस प्रेमपरक कहानियों का अनुवाद ‘ख़ामोश मुहब्बत’ और ‘दिगर अफसाने - 2’ शीर्षकों से किया जो नेशनल लिटरेचर कंपनी, लाहौर से
प्रकाशित हुई थीं । प्रेमचंद ने प्रेमपरक कहानियों का ही अनुवाद इसलिए किया कि वे
प्रेम और परमात्मा में कोई अंदर नहीं समझते थे । उन्होंने कहा है, “मनुष्य में
तत्त्व वस्तु प्रेम है । प्रेम ही उन्हें जिलाता है । मनुष्य का जीवन आधार
परमात्मा है । प्रेम और परमात्मा में कोई भेद नहीं है ।”
रवीन्द्रनाथ को प्रेमचंद से मिलने की बहुत
इच्छा थी लेकिन पंडित बनारसी प्रसाद चतुर्वेदी और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के
कई प्रयासों और शांतिनिकेतन से कई बार निमंत्रण भेजने के बावजूद भी दोनों अंत तक
मिल नहीं पाये । संभवतः दोनों के आपस में नहीं मिलने का कारण प्रेमचंद का
रवीन्द्रनाथ को रईस समझना (दोनों के रहन-सहन एवं जीवन स्तर में काफी
अन्तर था) और भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में रवीन्द्रनाथ का प्रेमचंद
की भाँति तत्कालीन राजनीति में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेना था । प्रेमचंद
शान्तिनिकेतन को स्वर्ग समझते थे । एक बार जब जैनेन्द्र जी ने प्रेमचंद को
शान्तिनिकेतन चलने का आग्रह किया तो उन्होंने जैनेन्द्र जी को कहा, “मैं तो वहाँ उस
स्वर्ग की सैर करूँ, यहाँ घर पर लोग तकलीफ के दिन काटें, क्या यह मेरे लिए
ठीक है ? और जैनेन्द्र, महाकवि
रवीन्द्रनाथ तो अपनी रचनाओं द्वारा यहाँ भी हमें प्राप्त हैं । क्या वहाँ मैं
उन्हें अधिक पाउंगा ?”
अगले आलेख ‘संभावनाओं और
अपेक्षाओं से भरा है उपन्यास कर्मभूमि’ में डा. मंजु तंवर ने प्रेमचंद के
उपन्यास ‘कर्मभूमि’ के कथानक का
विश्लेषण के माध्यम से तत्कालीन राष्ट्रव्यापी सामाजिक-राजनीतिक
परिस्थितियों में प्रेमचंद के साहित्यिक योगदान, उनके जीवन मूल्य, उनके भाषा-शिल्प आदि की
सम्यक् समीक्षा की है ।
‘कर्मभूमि’ स्वाधीनता आन्दोलन में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के
दौरान सन् 1932 में प्रकाशित
हुआ था । लेकिन इसमें नमक कानून तोड़ने
के आंदोलन को आधार नहीं बनाया गया क्योंकि प्रेमचंद इससे भी आगे बढ़कर संपूर्ण
मानव की जिजीविषा और परिवर्तन के दौर में उसकी अस्मिता और अस्तित्व को अपने कथा-पटल पर उतार रहे
थे । इसलिए ‘कर्मभूमि’ में सबसे ज्यादा
जोर लगान कम करने, जमीन की समस्या, शिक्षा, खेतिहर मजदूरों
की समस्या के साथ उन गरीबों और अछूतों की समस्या है, जो जातिगत कम
बल्कि समाज के वर्ग-विभाजन की उपज ज्यादा थे जिसे तत्कालीन समूचा समाज जूझ रहा
था । लेकिन प्रेमचंद इस वर्ग-विभाजित अछूत समस्या को तथाकथित संभ्रांत व शिक्षित
कहे जाने वाले वर्ग के नेतृत्व में ही सुलझाने की बात कर रहे हैं । उपन्यास का
नायक अमरकांत एक खाते-पीते उच्च, शिक्षित व संभ्रांत परिवार का
इकलौता वारिस है लेकिन स्वतंत्रता आन्दोलन से प्रभावित होकर अपनी सारी धन-दौलत व ऐशो-आराम, घर-बार छोड़कर
हिन्दुस्तान में फैली आर्थिक व मानसिक ग़रीबी के उन्मूलन के लिए प्रो. शांति कुमार के
साथ संघर्ष का नेतृत्व करता है । अंत में उनके घर वाले भी इस आन्दोलन में शामिल हो
जाते हैं और अमरकांत अपने घर वापस लौट आते हैं । इसलिए कुछ आलोचकों ने प्रेमचंद को
‘आदर्शोन्मुखी
यथार्थवादी’ भी कहा है । यहाँ आदर्श यथार्थ का विलोम नहीं वरन्
आदर्श का मूलाधार ही यथार्थ है ।
दरअसल, प्रेमचंद का काल
एक संक्रमण काल था । हिन्दू-मुसलमान, औरत-मर्द, बूढ़े-जवान, अमीर-ग़रीब सभी
अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति पाने के लिए छटपटा रहे थे । राष्ट्रीय और सामाजिक
उथल-पुथल चल रहा था ।
यह संक्रांति काल था दो प्रकार की संस्कृतियों का, दो प्रकार के
मूल्यों का । साथ ही साथ संघर्षकाल था साम्राज्यवाद से राष्ट्रवाद का, सामंती सभ्यता से
महाजनी सभ्यता का, सामंती और महाजनी दोनों सभ्यताओं से शोषित किसानों और
मजदूरों की शक्तियों का । प्रेमचंद इस संक्रमण को भली-भाँति पहचान रहे
थे । वे निश्चय ही विचारों और संस्कारों से मूल भारतीय आदर्शों के पोषक थे परन्तु
एक यथार्थवादी कलाकार की हैसियत से समाज में व्याप्त पुराने-नये मूल्यों के
संघर्षों, पुराने जर्जर मूल्यों के विघटन और नये भौतिवादी मूल्यों की
उत्तरोत्तर प्रतिष्ठा को आँख से ओझल नहीं कर सकते थे । ‘कर्मभूमि’ में वह जिन
पात्रों को को लेकर कथा गढ़ते हैं, वे उनके जीवन के हर पहलू, हर द्वन्द्व को
उकेरने का प्रयास करते हैं, हर पुरानी व सड़ी-गली प्रथाओं को
तोड़कर जीवन में गति व लय की बात करते हैं, जीवन को ग्राह्य बनाने की बात
करते हैं । वही ‘कर्मभूमि’ की जीवनी शक्ति है, जो उसे यथार्थ के विविध
धरातलों से गुजरते हुए आधुनिक बनाती है ।
प्रेमचंद के यथार्थ चित्रण के
गहराते संदर्भों के गर्भ में उनकी पारिवारिक ज़िन्दगी पर पकड़ और शायद उनका निजी
जीवन भी है । उनकी निजी ज़िन्दगी की तरह ही नायक अमरकांत की मां बचपन में ही
बिछुड़ जाती है और उसकी दुनिया सूनी हो जाती है । उपर से दूसरी मां का साया, दोहरा गम, अमरकांत उससे भी
नहीं बच पाया ।
प्रेमचंद एक मिली-जुली भाषा-शैली ईज़ाद करने
की कठिनाइयों से बख़ूबी वाकिफ़ थे । इसलिए उन्होंने हिन्दी और उर्दू दोनों में कुछ
हेर-फेर के साथ लिखने
की नीति अपनाई और बोलचाल की कौमी ज़बान ‘हिन्दुस्तानी’ का जबर्दस्त समर्थन किया । ‘कर्मभूमि’ की संपूर्ण
भाषिक संरचना इसका जीता-जागता उदाहरण है । जहाँ भाषा हिन्दुस्तानी ज़रूर है, लेकिन पात्र, परिवेश और
संदर्भों के हिसाब से यत्र-तत्र विभिन्न रूपों और आयामों में सहज ही अपना आकार ग्रहण करते हुए आगे बढ़ती
रहती है । इसलिए कथ्य के साथ ही भाषिक
संरचना की दृष्टि से भी ‘कर्मभूमि’ बेजोड़ है ।
आठवें आलेख ‘अनुवाद साहित्य
के क्षेत्र में प्रेमचंद का योगदान’ में डा. हरीश कुमार सेठी ने प्रेमचंद
का एक अनुवादक के रूप में साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान की विस्तृत चर्चा की
है ।
प्रेमचंद की युगीन संचेतना, जीवन-दर्शन, जीवन मूल्य, आदर्शवाद, यथार्थवादी
दृष्टि, लोक तत्त्व, समीक्षादर्श, ग्राम जीवन, मनोविज्ञान, नारी विषयक
दृष्टिकोण, मध्यम वर्ग आदि अनेकानेक पक्षों के आलोक में उनकी साहित्यिक
उपलब्धियों का हिन्दी आलोचना संसार में आकलन करते हुए काफी कुछ लिखा जा चुका है ।
इन विभिन्न पक्षों-संदर्भों के बीच प्रेमचंद के स्पेक्ट्रम का और अधिक सूक्ष्म
आयाम से विवेचन की जरूरत है ताकि उनके साहित्य की अन्य प्रकाशमय किरणों को उभारा
जा सके । ऐसा ही एक पक्ष है - अनुवाद, जिसके संदर्भ में
समीक्षक विद्वानों ने बहुत कम विचार किया है ।
अनुवाद के संदर्भ में
प्रेमचंद का साहित्यिक व्यक्तित्व तीन आयाम लिए हुए नज़र आता है –
1.
साहित्यकार-अनुवादक प्रेमचंद : अर्थात् साहित्यकार प्रेमचंद जो अपनी रचनाओं के स्वयं अनुवादक भी हैं
|
2.
अनुवादक प्रेमचंद : अर्थात् अन्य साहित्यकारों आदि की रचनाओं का अनुवाद करने वाले प्रेमचंद
|
3.
अनुवादक-चिंतक प्रेमचंद : अर्थात् लेखन के जरिये अनुवाद विषयक चिंतन करने वाले प्रेमचंद
|
1. साहित्यकार-अनुवादक प्रमेचंद
प्रेमचंद उर्दू से हिन्दी लेखन की ओर उन्मुख हुए थे, इस कारण उन्होंने
अपनी रचनाओं के उर्दू से हिन्दी और हिन्दी से उर्दू में अनुवाद किये । उन्होंने
अपने उर्दू के उपन्यासों ‘हमख़ुर्मा-ओ-हमसबाब’, ‘जलवा-ए-ईसार’, ‘बाज़ार-ए-हुस्न’, ‘गोशा-ए-आफ़ियत’, ‘चौगाने-हस्ती’ आदि का क्रमशः ‘प्रेमा’, ‘वरदान’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’ शीर्षकों से
हिन्दी में अनुवाद किया । इसी तरह से हिन्दी में लिखे ‘कायाकल्प’, ‘निर्मला’, ‘ग़बन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ का उर्दू अनुवाद
क्रमशः ‘पर्दा-ए-मजाज़’, ‘निरमला’, ‘ग़बन’, ‘मैदान-ए-अमल’ और ‘गऊदान’ शीर्षकों से
किया । प्रेमचंद के हिन्दी और उर्दू कथा
साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चलता है कि दोनों भाषाओं में कथानक समान
होने का बावजूद अंतर भी नज़र आता है । उर्दू की तुलना में हिन्दी कहानी में अधिक
विस्तार है, लेकिन उर्दू मूल में कुछ ऐसे अंश हैं जो हिन्दी में नहीं
हैं । परन्तु, वे अपनी रचनाओं का एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद मात्र
नहीं करते थे - उसका अनुसृजन/ पुनःसृजन करके उसे मौलिक-सा बना देते थे ।
दरअसल, वे सृजनात्मक
अनुवादक थे ।
कतिपय आलोचकों ने प्रेमचंद पर यह आक्षेप लगाया है कि
वे अपनी रचनाओं का अनुवाद दूसरे से करवाकर उसे अपना नाम दे देते थे, विशेषकर कहानियों
के मामले में । कुछ ने यह आरोप लगाया है कि अपनी रचनाओं में उन्होंने अंग्रेजी
उपन्यासकारों की सामान्य मनोवृत्तियों को तो ग्रहण किया ही, कुछेक विशिष्ट
उपन्यासों से प्रभावित भी हुए । वास्तव में, किसी भी साहित्यकार द्वारा
किसी भी मनोवृत्ति को ग्रहण करने या रचना से प्रभावित होने तथा सामान्य मानवीय
तत्वों से मर्माहत होने के कारण विषय-वस्तु आदि के स्तर पर उसकी रचना में दूसरे का प्रभाव
नज़र आ सकता है । संभव है, कहानियों आदि की विषय-वस्तु और थीम एक-दूसरे साहित्कार
की कहानियों आदि से मेल खा जाएं । लेकिन, इसके बावजूद, यह कहा जा सकता
है कि प्रत्येक साहित्यकार की अपनी निजी विशिष्टता होती है जो उसे दूसरे
साहित्कारों से अलग और विशिष्ट दर्जा प्रदान करती है ।
2. अनुवादक प्रेमचंद
प्रेमचंद रवीन्द्रनाथ टैगोर, बंकिमचंद्र
चटर्जी, लियो तॉलस्ताय, रतननाथ सरशार, रोमा रोलां, महात्मा गांधी, मैक्सिम गोर्की, कार्ल मार्क्स
आदि से प्रभावित थे । इसके अलावा, वे रूसी क्रांति और आर्य समाज
के साथ-साथ निष्काम
कर्मयोग आदि भारतीय नैतिक सिद्धान्तों से भी प्रभावित थे । किन्तु, इन सबके बावजूद
वे निरन्तर प्रगतिशील रहे और उन्होंने अपना मौलिक मार्ग चुना । पुस्तकें पढ़ने के
शौकीन प्रेमचंद ने अन्य साहित्यिक व्यक्तियों की रचनाओं का भी हिन्दी और उर्दू में
अनुवाद किया ।
उनके द्वारा किये
गये अनुवाद कार्य :
क्रम संख्या
|
मूल ग्रंथ
|
मूल भाषा
|
रचनाकार
|
अनुदित शीर्षक
|
अन्य भाषाओं से हिन्दी में
|
||||
1.
|
थायस (उपन्यास)
|
फ्रांसीसी
|
अनातोले फ्रांस
|
अहंकार (1923)
|
2.
|
सायलस मैरीनर (उपन्यास)
|
अंग्रेजी
|
जॉर्ज इलियट
|
सुखदास (1923)
|
3.
|
फिशान-ए-आज़ाद (उपन्यास)
|
उर्दू
|
रतननाथ सरशार
|
आज़ाद कथा
|
4.
|
जस्टिस (उपन्यास)
|
अंग्रेजी
|
गॉल्सवर्दी
|
न्याय
|
5.
|
सिल्वर बॉक्स (उपन्यास)
|
अंग्रेजी
|
गॉल्सवर्दी
|
चांदी की डिबिया
|
6.
|
स्ट्राइक (उपन्यास)
|
अंग्रेजी
|
गॉल्सवर्दी
|
हड़ताल
|
7.
|
लेटर्स फ्रॉम ए फादर टू
हिज़ डॉटर (उपन्यास)
|
अंग्रेजी
|
जवाहर लाल नेहरू
|
पिता का पत्र पुत्री के नाम
|
8.
|
बैक टू मैथ्यूसेला (उपन्यास)
|
अंग्रेजी
|
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ
|
सृष्टि का आरंभ
|
9.
|
घोस्ट ऑफ कैंटरविल्स (उपन्यास)
|
अंग्रेजी
|
ऑस्कर वाइल्ड
|
|
10.
|
कुछ कहानियां
|
रूसी
|
तालस्तॉय
|
प्रेम-प्रभाकर (1923)
|
11.
|
कुछ कहानियां
|
बंगला
|
रवीन्द्रनाथ टैगोर
|
रूठी रानी (उर्दू में भी) 1907
|
अन्य भाषाओं से उर्दू में
|
||||
12.
|
साइटलैस (उपन्यास)
|
अंग्रेजी
|
मैटरलिंक
|
शबेतार
|
13.
|
एक पुस्तक
|
अंग्रेजी
|
स्वामी विवेकानंद
|
रहनुमायने हिंद
|
14.
|
स्टोरी ऑफ रिचर्ड डबलडिक
|
अंग्रेजी
|
चार्ल्स डिकेंस
|
अश्के नदामत
|
15.
|
कहानियां
|
आबेहयात, सिगे लली
|
3. अनुवादक-चिंतक प्रेमचंद
प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं के स्वयं अनुवाद तथा अन्य
साहित्यिक-सांस्कृतिक व्यक्तियों की रचनाओं के अनुवाद के अलावा अनुवाद
के संबंध में अपने कतिपय विचार भी व्यक्त किये हैं । अनुवाद के संदर्भ में उनका
दृष्टिकोण व्यावहारिक था । प्रेमचंद को यह स्पष्ट आभास था कि अनुवाद विभिन्न देशों, समुदायों, संस्कृतियों और
साहित्यों के बीच सेतु का काम करता है । भारत जैसे बहुभाषी देश के संदर्भ में तो
उन्होंने अनुवाद की महत्ता का स्पष्ट बोध तो था किंतु उन्होंने मौलिक सृजन की
तुलना में इसे अत्यधिक महत्व नहीं दिया । प्रेमचंद विभिन्न भाषाओं के शब्दों के
अनुवाद में उनके लिए एक ही शब्द के मानकीकरण यानि पारिभाषिक शब्दावली के पक्षधर थे
। वे विदेशी भाषाओं के ग्रंथों या उन भाषाओं की कहानियों के अनुनाद में विदेशी
तत्वों को अनुवाद में भी बनाये रखने के पक्ष में थे ताकि अनुदित पाठ के स्रोत पाठ का
सांस्कृतिक वैशिष्ट्य बना रहे ।
अगला आलेख ‘प्रेमचंद और चार्ल्स डिकेंस - यथार्थवाद के
महापंडित ’ में डा. वेद मित्र शुक्ल
ने 19 वीं शताब्दी के
अंग्रेजी साहित्यकार डिकेंस और 20 वीं शताब्दी के आरम्भ के
भारतीय साहित्यकार प्रेमचंद की रचनाओं में दो भिन्न देशों की अलग-अलग सामाजिक
परिस्थितियों का यथार्थवादी चित्रण को विश्लेषित किया है ।
विश्व साहित्य
में अपने समय के समाज और मुख्य रूप से उनसे जुड़ी समस्याओं को जैसा देखा वैसा ही
रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत करने वाले यथार्थवादी रचनाकारों की परम्परा में
अंग्रेजी साहित्य में चार्ल्स डिकेंस (1812-1870) और भारतीय साहित्य में
प्रेमचंद (1880-1936) निर्विवाद रूप से उच्चकोटि के उपन्यासकार माने जाते
हैं । जब इंग्लैंड लगभग हर क्षेत्र में समृद्धि और सम्पन्नता के शीर्ष पर माना जा
रहा था, उस समय डिकेंस ने
अपने औपन्यासिक चरित्रों के माध्यम से वहां के नागर जीवन और विशेष रूप से लंदन के
परिवेश में व्याप्त सामाजिक समस्याओं और कुरीतियों का यथार्थवादी चित्रण अपने
साहित्य के माध्यम से किया । प्रेमचंद ने भी राजा-रानी, परियों व देवी-देवताओं से जुड़े
विषयवस्तुओं से परे होकर साहित्य को सीधे भारतीय समाज से जोड़ा । अपनी रचनाओं में
तत्कालीन समाज के ठेकेदारों की परवाह न करते हुए भारत की सामाजिक दशा और समस्याओं
का बड़ा ही सटीक यथार्थ प्रस्तुत किया । दोनों ही अपने जीवन से जुड़े और भोगे गये
सामाजिक संघर्ष, आर्थिक विपन्नता, विभिन्न स्तरों पर असमानता, शोषण आदि
समस्याओं और उनके प्रति अपने यथार्थवादी समझ को लेकर जहां एक ओर अपनी कृतियों में
विषय और दृष्टकोण के धरातल पर समान हैं । तो वहीं अपने-अपने औपन्यासिक
संसार के चरित्रों और घटनाओं से जुड़े परिवेश, परिस्थिति आदि के
चित्रण और वर्णन के स्तर पर सर्वथा भिन्न हैं, जिसका कारण उनके
अपने अलग-अलग देशों की सामाजिक संरचानाएं एवं परिवेश ही हैं । डिकेंस
एक स्वतंत्र देश के साहित्यकार थे और प्रेमचंद उस स्वतंत्र देश द्वारा शासित (एक सीमा तक शोषित
भी) परतंत्र देश के
साहित्यकार थे । यदि चार्ल्स डिकेंस के उपन्यासों में यथार्थवादी चेतना तत्कालीन
इंग्लैंड में अति समृद्धि और सम्पन्नता के साथ-साथ औद्योगीकरण
आदि से उत्पन्न आर्थिक असमानता, मानवीय व सामाजिक मूल्यों का
ह्रास, कमजोर वर्ग के
शोषण आदि की विभीषिका के दंश की देन थे, वहीं प्रेमचंद के
साहित्यिक संसार में सामाजिक यथार्थवाद, अंग्रेजों के साम्राज्यवाद और
पूँजीवाद के साथ-साथ भारत के ही एक वर्ग के सामंतवाद के कारण उत्पन्न शोषण
का परिणाम था । पर, दोनों ही अपने-अपने स्थानों से शोषित वर्ग की आवाज़ बन कर उनके
अधिकारों के लिए यथार्थवादी साहित्य के माध्यम से संघर्षशील रहे ।
प्रेमचंद ने उर्दू और हिन्दी साहित्य के साथ-साथ पश्चिमी
साहित्य का भी गहन अध्ययन किया था, जिसमें रूसी, फ्रेंच और
अंग्रेजी साहित्यकारों की कृतियां शामिल थीं । यथार्थवादी साहित्यकारों में
अंग्रेजी साहित्यकार चार्ल्स डिकेंस उन्हें अत्यधिक प्रिय रहे । कतिपय साहित्यकार
प्रेमचंद के साहित्य को डिकेस से अत्यधिक प्रभावित मानते हैं लेकिन अधिकांश आलोचक
भारतीयता से ओतप्रोत आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद के लेखक प्रेमचंद पर डिकेंस का
प्रत्यक्ष प्रभाव तो नहीं मानते हैं, पर, दोनों के विषय और
दृष्टिकोण में समानताओं की चर्चा जरूर करते हैं ।
प्रेमचंद के यथार्थवादी साहित्य के ही विभिन्न
पक्षों को उजागर करता हुआ एक अन्य आलेख ‘प्रेमचंद के साहित्य में
यथार्थ का स्वरूप’ डा. संगीता त्यागी का है ।
प्रेमचंद से पूर्व हिन्दी उपन्यास विलास प्रधान थे
और वे एक सीमित वर्ग के दिल बहलाने के लिए लिखे जाते थे । उनमें जनता के दलित वर्गों के सुख-दुख की कथा नहीं
थी, वास्तविक जीवन के
प्रश्नों की चर्चा नहीं थी, समाज की यथार्थता का परिचय
नहीं था और न ही जीवन की व्याख्या करने तथा उसे और अधिक उपयोगी बनाने का प्रयास था
। प्रेमचंद ने उसे आवश्यक मोड़ देकर जीवन के साथ जोड़ दिया । उन्होंने अपने कथा
साहित्य द्वारा तत्कालीन युग को वाणी दी । उन्होंने वर्ग चेतना के प्रकाश में समाज
के पतन और विकासशील शक्तियों को पहचाना और समाज के स्वस्थ निर्माण के लिए अपने
उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से विकासशील शक्तियों को सक्रिय समर्थन प्रदान
किया । एक जनवादी साहित्यकार की भांति प्रेमचंद ने जनभावना का प्रतिनिधित्व किया
और शोषित व पीड़ित मानवता के दुःख-दर्द को आवाज़ दी । वास्तव में, मानव पीड़ा की
मूल समस्या ही प्रेमचंद के कथा साहित्य में विविध रूप में छाई हुई है । उन्होंने
अभिजातवर्गीय धीरोदात्त नायकों के स्थान पर समाज में पिछड़े हुए उपेक्षित सामान्य
व्यक्ति को अग्र स्थान दिया और अपनी कल्पना द्वारा यथार्थ के आधार पर उनमें
भावुकता के ऐसे रंग भर दिये कि वे पाठकों के मर्म को छू गये । जो साधारण था वही पाठक के लिए असाधारण बन
गया ।
अगले आलेख ‘कथाकार प्रेमचंद का आलोचना
पक्ष’ में डा. रमा ने साहित्य
की एक अन्य विधा आलोचना के क्षेत्र में प्रेमचंद के योगदान को रेखांकित किया है
।
हजारी प्रसाद
द्विवेदी, मुक्तिबोध जैसे कुछ विरल साहित्यकारों को छोड़कर हिन्दी
साहित्य में आलोचक और रचनाकार दोनों गुणों से सम्पन्न साहित्यकार कम ही हुए हैं ।
प्रेमचंद आलोचक के रूप में कभी सक्रिय नहीं रहे लेकिन संपादक के रूप में उनके
व्यक्तित्व का एक नया रूप सामने आता है । उन्होंने घोषित रूप से कभी आलोचना नहीं
की परन्तु समय-समय पर साहित्य, कला, संस्कृति के
विभिन्न पक्षों पर अपनी टिप्पणियां देते रहे, जो हिन्दी
साहित्य की तमाम विधाओं के विषयवस्तु और भाषायी परिदृश्य को समझने में सहायता करती
हैं । प्रेमचंद बार-बार प्रश्न उठाते हैं कि साहित्य अंततः करता क्या है ? वे कहते हैं कि - “साहित्य जीवन की
आलोचना है ।“ अपने ‘साहित्य का
उद्देश्य’ लेख में
प्रेमचंद साहित्यिक रूचि में बदलाव को इंगित करते हुए कहते हैं कि “अब साहित्य केवल
मन बहलाव की चीज नहीं है, मनोरंजन के सिवा उसका और भी कुछ उद्देश्य है । अब वह
स्फूर्ति या प्रेरणा के लिए अदभुत आश्चर्यजनक घटनाएं नहीं ढूँढता और न अनुप्रास का
अन्वेषण करता है, बल्कि उसे उन प्रश्नों से दिलचस्पी है जिनसे समाज या
व्यक्ति गहरे प्रभावित होते हैं ।” प्रेमचंद के अनुसार समाज से साहित्यकार का जुड़ाव
जितना अधिक होगा उतना ही उसका लेखन विश्वसनीय होगा । उन्होंने उपन्यास लिखे ही
नहीं वरन् उपन्यास विषय पर लेख भी लिखे । अपने लेख ‘उपन्यास का विषय’ में वे
उपन्याकार के संदर्भ में कहते हैं, “उपन्यासकार का
प्रधान गुण उसकी सृजन शक्ति है । ...वह कितना ही विद्वान क्यों न
हो, उसके अनुभव का क्षेत्र
कितना ही विस्तृत क्यों न हो, यदि उसमे कल्पना-शक्ति की प्रखरता
का अभाव है तो उसकी रचना में सरसता नहीं आ सकती ।” साहित्य-संस्कृति के
मूल्यांकन में प्रेमचंद ‘उपयोगितावाद’ को विशेष महत्व देते हैं । उनका समय राष्ट्रीय
संघर्ष का समय है । राष्ट्रीय संघर्ष में बार-बार प्रासंगिकता
का प्रश्न महत्वपूर्ण हो उठता है । वे भी इस प्रश्न को बार-बार उठाते हैं ।
वे साहित्य की प्रासंगिकता, जीवन की प्रासंगिकता, समाज की
प्रासंगिकता और समय की प्रासंगिकता आदि मूलभूत प्रश्नों को आधुनिकता के संदर्भ में
सामने रखते हैं ।
‘संवेदनशील मनुष्य को रचता प्रेमचंद का बाल साहित्य’ शीर्षक आलेख में
कविता भाटिया ने बाल साहित्य में प्रेमचंद के योगदान को रूपायित किया है ।
भारतेंदु युग के पश्चात् द्विवेदी युग में बाल
साहित्य की रचना नियमित रूप से आरंभ हो चुकी थी । आज बाल साहित्य में जो कुछ भी
उपलब्ध दिखता है उसकी आधारशिला उसी युग में रखी जा चुकी थी । उसी युग में स्वयं
प्रेमचंद ने बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर बाल कहानियों की रचना की । उन्होंने
सन् 1930 के ‘हंस’ के संपादकीय ‘बच्चों को
स्वाधीन बनाओ’ शीर्षक के
अन्तर्गत लिखा था - “बालक को प्रधानतः
ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वह जीवन में अपनी रक्षा आप कर सके । बालकों में इतना
विवेक होना चाहिए कि वे हर एक काम के गुण-दोष को भीतर से देखें ...।” स्वयं की इसी
कसौटी पर प्रेमचंद की कहानियां बच्चों को मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ सामाजिक आचार-विचार, न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित का संदेश
देती हैं ।
प्रेमचंद द्वारा रचित आरंभिक कृतियों में ‘महात्मा शेखशादी’ तथा ‘रामचर्चा’ की गणना की जाती
है । ‘रामचर्चा’ नामक पुस्तक में
उन्होंने भगवान श्रीराम की कथा को सीधे-साधे शब्दों में लिखकर उनके
जीवन और आदर्श से बालकों का परिचय करवाया है । ‘जंगल की कहानियां’ संकलन में
बच्चों के लिए बारह कहानियां हैं । वीर दुर्गादास के जीवन और आदर्शों के वर्णन
द्वारा बालकों में देशप्रेम की भावना जागृत करने के उद्देश्य से प्रेमचंद ने ‘दुर्गादास’ नामक ऐतिहासिक
उपन्यास लिखा । ‘कलम, तलवार और त्याग’ - दो भागों में
प्रकाशित इस रचना में उन्होंने राणा प्रताप, रणजीत सिंह, अकबर महान, विवेकानंद, गोपालकृष्ण गोखले, सर सैयद अहमद खां
आदि देश के विभिन्न महापुरूषों के प्रेरणादायक और उद्बोधक शब्दचित्र अंकित किये
हैं । ‘कुत्ते की कहानी’ बाल/ किशोर उपन्यास
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया अपने कथ्य व शिल्प में अनुठा उपन्यास है जिसे
प्रेमचंद ने अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले ही लिखा था । दो अलग-अलग तरह के बाल
मनोविज्ञान को प्रस्तुत करती ‘बड़े भाईसाहब’ कहानी शिक्षण व्यवस्था पर व्यंग्य कर तोता रटंत
प्रणाली और परीक्षा पद्धति पर प्रश्न चिन्ह उठाती है । ‘ईदगाह’ के चिरस्मरणीय
पात्र हामिद के चरित्र को पढ़कर यह सवाल उठता है कि इतनी छोटी उम्र का बच्चा यकायक
अपनी उम्र से अधिक बड़ा रोकर अपनी दादी के प्रति आख़िर इतना संवेदनशील कैसे हो गया
? ‘कजाकी’ कहानी एक डाकिए
और बालक के निश्छल प्रेम की कहानी है जिसमें भावुक बच्चे का अहं और मासूम सोच
संवेदनशीलता और बाल मनोविज्ञान की एक नई परिभाषा गढ़ती है ।
अगला आलेख ‘प्रेमचंद और फकीर
मोहन सेनापति के कथा साहित्य में व्यक्त कृषक जीवन’ डा. एनी राय का है
जिसमें प्रेमचंद और ओड़िया साहित्यकार फकीर मोहन सेनापति (14 जनवरी, 1843 - 14 जून, 1918) के कृषकों से
जुड़े साहित्य का तुलनात्मक मूल्यांकन किया गया है । फकीर ने चार उपन्यासों - ‘छः माण आठ गुंठ’, ‘लछमा’, ‘प्रायश्चित’ और ‘मॉमु’ - के अतिरिक्त ‘रेवती’, ‘डाक-मुन्सी’, ‘सभ्य ज़मींदार’ आदि करीब बीस
कहानियां लिखी हैं ।
प्रेमचंद और फकीर मोहन अलग-अलग समय में
लेकिन एक ही युग में पैदा हुए । अपने युग का राजनीतिक, सामाजिक तथा
आर्थिक प्रभाव दोनों रचनाकारों पर समान रूप से पड़ा है । दोनों ने उन परिस्थितियों
का यथार्थ वर्णन अपने साहित्य में किया है, जिनमें भारतीय कृषक संघर्ष
करता हुआ, टूटता हुआ, परिस्थितियों से समझौता करता
हुआ और अंत में दम तोड़ने को मजबूर होता है । प्रेमचंद के उपन्यासों में, खासकर ‘गोदान’ (1936) में, पराधीन भारत में
कृषकों की जिन समस्याओं और मुद्दों का चित्रण किया गया है, उन्हीं समस्याओं
को फकीर मोहन ने अपने उपन्यास ‘छः माण आठ गुंठ’ में उठाया है जो साहित्यिक पत्रिका में 1899 में और
पुस्तकाकार रूप में 1902 में प्रकाशित हुआ । दोनों में अंतर यह है कि
प्रेमचंद ने जहाँ अपने कथा साहित्य में पीड़ित जनता की वेदना को अधिक गहराई और
विस्तृत रूप में व्यक्त किया है वहीं फकीर मोहन की रचनाओं में गहराई होने पर भी
विस्तृत विवरण नहीं है । इसका कारण यह है कि दोनों रचनाकारों के भौगोलिक तथा
सामाजिक परिवेश में काफी अंतर है । औपनिवेशिक शासन काल में प्रेमचंद के अवध में और
मोहन सेनापति के औड़िशा में कृषक दो भिन्न भूमि व्यवस्थाओं में जीवन व्यतीत कर रहे
थे । पर प्रादेशिक भिन्नता के बावजूद दोनों के कथा साहित्य में किसानों की सामाजिक
और आर्थिक समस्याएं समान हैं, दोनों ने किसानों के शोषण
करने वाले ज़मींदारों तथा साहूकारों के अलावा सरकारी कर्मचारियों जैसे पुलिस, वकील, पटवारी, कारिंदा आदि का
यथार्थ चित्रण किया है ।
प्रेमचंद से जुड़े आलेखों की कड़ी का अंतिम आलेख ‘प्रेमचंद का कथा
साहित्य में सांप्रदायिक सौहार्द्र’ में डा. श्रुति रंजना मिश्रा ने
स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान हिन्दू तथा मुस्लिम सम्प्रदायों के बीच आपसी
सौहार्द्र और सामाजिक समरसता बनाये रखने में प्रेमचंद के योगदान की चर्चा की है ।
दरअसल, प्रेमचंद साहित्यकार होते हुए
भी स्वतंत्रता आन्दोलन से प्रभावित थे । वह गांधी जी के विचारों से प्रभावित ‘स्वराज’ की स्थापना के
लिए प्रयत्नशील थे । वह जानते थे कि लम्बे समय तक शासन करने के अपने उद्देश्य की
पूर्ति के लिए अंग्रेज यहां के समाज में व्याप्त हिन्दू-मुस्लिम
सौहार्द्र को नष्ट करने में लगे थे । भारतीय जनता में फूट डालने के लिए उन्होंने
धर्म को हथियार के रूप में प्रयुक्त कर दोनों धर्मावलम्बियों के बीच आपसी घृणा का
भाव जागृत किया । फलस्वरूप, दोनों वर्ग एक-दूसरे की अस्मिता
समाप्त करने के लिए कटिबद्ध हो गये । किंतु दोनों ही सम्प्रदायों में कुछ लोग ऐसे
भी थे जो वेद मंत्रों और कुरान की आयतों से समान रूप से प्रेम करते थे । प्रेमचंद
इसी सौहार्द्र को जीवित रखने में एक प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में सामने आये ।
उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से हिंदू-मुस्लिम एकता की
मशाल को जलाए रखने का लगातार प्रयत्न किया । अपने कथा साहित्य में हिंदू-मुस्लिम संबंधों
को नवीन स्तर पर व्याख्यायित किया ।
प्रेमचंद की कृतियों में हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के पूरक
हैं, दोनों के आपसी
संबंध मधुर हैं । सामाजिक समरसता को उद्घाटित करती उनकी कहानी ‘पंच परमेश्वर’ में जुम्मन शेख
और अलगू चौधरी की मित्रता के माध्यम से दिखाया गया है कि सबसे बड़ धर्म न्याय है ।
‘बौड़म’ कहानी में मुख्य
पात्र बौड़म सभी धर्म के लोगों को समान दृष्टि से देखता है । वह गोहत्या का विरोधी
है । कसाइयों से गायों को खरीदकर हिंदुओं को देकर मानो वह अपने धर्म के लोगों के
इस जघन्य कृत्य का प्रायश्चित करना चाहता है । ‘डिक्री के रूपये’ कहानी में नईम
और कैलाश की मित्रता को प्रस्तुत किया गया है । दो प्रमुख पात्रों लाला दाऊदयाल और
रहमान पर आधारित कहानी ‘मुक्तिधन’ भी सांप्रदायिक सौहार्द्र का संदेश देती है । ‘मंदिर और मस्जिद’ कहानी सभी
धर्मों का आदर करने की वकालत करती है । ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘कायाकल्प’, ‘कर्मभूमि’ और ‘रंगभूमि’ में भी हिंदू-मुस्लिम एकता के
उदाहरण मिलते हैं । वास्तव में प्रेमचंद हिंदी के एक ऐसे प्रगतिशील कथाकार हैं
जिन्होंने अपने समय में व्याप्त सांप्रदायिक शक्तियों के प्रतिगामी आचरण को न केवल
पहचाना था बल्कि इस बुराई को अपनी लेखनी के माध्यम से दूर करने का अनवरत प्रयास भी
किया । उन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से हिंदू-मुस्लिम संबंधों
को विश्लेषित कर एक नया आयाम प्रदान किया ।
गगनांचल के इस अंक में प्रेमचंद की एक कहानी ‘लाग-डांट’ भी है । इसमें
कहानी की शुरूआत एक गांव के दो परिवारों के बीच ज़मीन को लेकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी के झगड़े
और मुकदमेबाजी की चर्चा और उससे दोनों परिवारों को होने वाले नुकसानों से होती है
। बाद में, एक परिवार का मुखिया देश में चल रहे स्वराज्य आन्दोलन में
सक्रिय होकर जनता को उसके प्रति जागरूक करने लगता है और उसकी प्रतिष्ठा गांव वालों
के बीच काफी बढ़ जाती है । उसका विरोधी गांव वालों को उसके विरूद्ध भड़काता है
लेकिन जनता देश की आज़ादी के लिए स्वराज्य का परचम थामे रहती है । बाद में, वह विरोधी भी
स्वराज्य के पक्ष में आ जाता है और तीन पुश्तों की अदावत एक क्षण में शांत हो जाती
है ।
अन्य लेखों में ‘पंडित उदय शंकर का नृत्य संसार’, ‘कोरियाई साहित्य
में मां’, ‘प्राचीन मंदिरों
की स्थापत्य-विरासत एवं संरक्षण’, ‘जबान पर चाहिए
लगाम’ (भाषा-शास्त्र पर
आधारित शोध-परक लेख) शामिल हैं । सुरेश सक्सेना का आलेख ‘दिनकर का गद्यकार
रूप’ दिनकर जी के
गद्य साहित्य के विभिन्न आयामों से रू-ब-रू कराता है । इनके अलावा
गगनांचल के इस अंक में ‘तुम्हीं ने तो कहा था’ और ‘असली दहेज’ शीर्षक दो कहानियां तथा ‘भावर्षि प्रेमचंद
तुम्हें प्रणाम’, ‘धुनकर’, ‘अशांत’ और ‘मां लक्ष्मी घर आ
रही, खोलो बंद किवाड़’ शीर्षक चार कविताएं हैं ।
वास्तव में, यदि किसी को
प्रेमचंद की लगभग तीन सौ कहानियों और बीस के आसपास उपन्यासों को पढ़ने, समझने और उनके
माध्यम से प्रेमचंद के सम्पूर्ण साहित्य के विभिन्न पक्षों से परिचित होने का अवसर
नहीं मिल पाया है तो निश्चित रूप से उन्हें गगनांचल के इस अंक को पढ़ना चाहिए और
हिन्दी साहित्य के एक मार्गदर्शक के रूप में इस अंक को सहेज कर रखना चाहिए ।
हैदराबाद
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