कादम्बिनी क्लब, हैदराबाद

दक्षिण भारत के हिन्दीतर क्षेत्र में विगत २ दशक से हिन्दी साहित्य के संरक्षण व संवर्धन में जुटी संस्था. विगत २२ वर्षों से निरन्तर मासिक गोष्ठियों का आयोजन. ३०० से अधिक मासिक गोष्ठियाँ संपन्न एवं क्रम निरन्तर जारी...
जय हिन्दी ! जय हिन्दुस्तान !!

Wednesday, 21 December 2016

कादम्बिनी क्लब की संगोष्ठी एवं पुस्तक लोकार्पण आयोजित


कादम्बिनी क्लब हैदराबाद के तत्वावधान में रविवार दि० 18 दिसम्बर मध्यान्ह 12 बजे से राजा कृष्ण देव राय सभागार में क्लब की 293वी मासिक गोष्ठी के अंतर्गत स्व० अदम गोंडवी (सुप्रसिद्ध कवि-गज़लकार) की पुण्यतिथि पर चर्चा सत्र एवं साहित्यकार सुनंदा जमदग्नी कृत उपन्यास ‘स्वयंसिद्धा’ का लोकार्पण समारोह डा० सी० वसंता की अध्यक्षता में संपन्न हुआ.


प्रेस विज्ञप्ति में डा० अहिल्या मिश्र (क्लब अध्यक्षा एवं संयोजिका)  एवं मीना मुथा (कार्यकारी संयोजिका) ने बताया कि इस अवसर पर रमेश अग्रवाल (समाजसेवी) मुख्य अतिथि, सुरेश जैन (साहित्यकार कवि) सम्माननीय अतिथि, डा० रमा द्विवेदी (पुस्तक परिचय प्रस्तोता), लेखिका सुनंदा जमदग्नी, डा० अहिल्या मिश्र मंचासीन हुए. शुभ्रा महन्तो द्वारा सुमधुर स्वर में सरस्वती वंदना से सत्र का आरम्भ हुआ. मंचासीन महानुभावों के करकमलों से दीप प्रज्वलन किया गया. डा० मिश्र ने स्वागत भाषण में कहा कि संस्था की नियमित गोष्ठी में सदस्यों की नियमित उपस्थिति ही हमारी प्रेरणा है. नवांकुरों के लिए मंच प्रदान करना एवं साहित्यकारों से नई पीढ़ी को परिचित कराने के लिए संस्था संकल्पित है.


संगोष्ठी संयोजक अवधेश कुमार सिन्हा ने अदम गोंडवी एवं उनके साहित्य पर अपनी बात रखते हुए कहा कि अदम गोंडवी का मूल नाम रामनाथ सिंह था, वे उ० प्र० के गोंडा जिले के आटा गाँव के निवासी थे. अदम का जन्म 22 अक्तूबर 1947 को ठाकुर किसान परिवार में हुआ तथा 18 दिसम्बर 2011 को उनकी जीवनयात्रा में पूर्ण विराम आ गया. स्कूली शिक्षा अधिक न होते हुआ भी जीवन के अनुभवों को सीधे सच्चे शब्दों में व्यक्त करने की अद्भुत योग्यता वो रखते थे. उनके कथन में विद्रोह, आक्रामकता और व्यंग प्रमुख रहा. “जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में, गाँव तक वो रौशनी आएगी कितने साल में”, “मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे, हम अपने इस कालखंड का, एक नया इतिहास लिखेंगे”. इन जैसी कई अनेक रचनाओं में उन्होंने वंचित और शोषित ग्रामीणों की पीड़ा को आवाज़ दी.


मंत्री प्रवीण प्रणव ने अदमजी के सन्दर्भ में कहा कि उन्हें छन्द या बहर की जानकारी नहीं थी, पुस्तकालय से मांग कर उन्होंने पुस्तकें पढ़ी और आस पास के परिवेश ने उन्हें लिखना सिखाया. आरंभ में कुछ कविताएँ लिखने के बाद उन्होंने ग़ज़ल को अपनी लेखन शैली के लिए चुना. “चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें, चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को” ऐसी रचना गरीबों के प्रति उनके दर्द को प्रदर्शित करती है. उनकी रचनाओं में असहमति का स्वर सबसे प्रमुख है. जहाँ कहीं भी उन्हें वंचितों के खिलाफ कुछ लगा उन्होंने आवाज़ उठाई. उनके ही शब्दों में “’इसी असहमति को स्वर देने के लिए तो मैं मंच पर आया, अन्यथा स्वान्तः सुखाय ही क्यों न रह जाता ?


डा० अहिल्या मिश्र में अपने वक्तव्य में कहा कि स्पष्टवादिता के लिए जाने जाते अदम ने हमेशा ज़मीनी हालातों का चित्रण अपनी ग़ज़लों में किया जो आम आदमी के दिल को छू जाता है. सर्वधर्म समभाव में विश्वास रखते हुए वे कहते हैं “हिन्दू या मुस्लिम के एहसासात को मत छेड़िए,  अपनी कुर्सी के लिए ज़ज्बात को मत छेड़िए.” आज यह चर्चा सत्र सार्थक श्रद्धांजलि है अदम गोंडवी को कादम्बिनी क्लब हैदराबाद की ओर से.

तत्पश्चात मंचासीन अतिथियों का संयोजिका सुनंदा जमदग्नी व परिवार की ओर से सम्मान किया गया. इसी कड़ी में क्लब की ओर से तथा सी० वसंता की ओर से सुनन्दाजी का सम्मान किया गया. व्यवस्था में सरिता सुराणा, मंगला अभ्यंकर ने सहयोग दिया. सुनंदा जमदग्नी कृत उपन्यास ‘स्वयंसिद्धा’ का परिचय देते हुए डा० रमा द्विवेदी ने कहा कि इस किताब को लघु उपन्यास कह सकते हैं. बाल विवाह एवं बाल विधवा इस ज्वलंत प्रश्न के इर्द गिर्द कहानी का ताना बाना बुना गया है. लड़की के विधवा होते ही उसका मुंडन कर दिया जाता है, सफ़ेद साड़ी उसकी ज़िंदगी बन जाती है, खाना भी एक वक्त का दिया जाता है और वह भी रूखा सूखा. लेखिका ने हिन्दू, मुस्लिम, इसाई धर्म का पारिवारिक परिवेश चित्रित किया है जो दर्शाता है कि मनुष्य की संवेदना है तो वह किसी की भी मदद कर सकता है. कहानी चलचित्र की भांति है. स्त्री का जीवन अपने घर में भी सुरक्षित नहीं है, ऐसे हालात में बाल विधवा का मुंडन कर उसे विद्रूप दशा में रहने के लिए बाध्य कर दिया जाता है. समाज को ऐसी सोच से मुक्ति पानी होगी यह संकल्प नायिका मालती लेती है. लेखिका ने स्त्री प्रश्नों पर चिंतन किया है, उन्हें साधुवाद. डा० अहिल्या मिश्र ने कहा कि यह त्रासदी सदैव नारी के साथ बनी रही. जो स्त्री मातृत्व का भार वहन कर पूरे परिवार की गृह स्वामिनी बनती है उसके वैधव्य के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहराया जाता है. पुरुष प्रधान समाज, नियमों की आड़ में स्त्री की प्रगति और उत्थान को सहजता से स्वीकार नहीं करता. नारी आज भी प्रताड़ित हो रही है. सुनन्दाजी इसी तरह नारी समस्याओं पर चिंतन मंथन कर लेखन को आगे बढाएं यही शुभकामना है. सुरेश जैन, रमेश अग्रवाल ने भी उन्हें बधाई दी. रमेश अग्रवाल व मंचासीन अतिथियों के करकमलों से ‘स्वयंसिद्धा’ का लोकार्पण हुआ. डा० सी० वसंता ने पुस्तक समीक्षा में कहा कि ‘स्वयंसिद्धा’ में क्रांतिपथ पर चलने वाले पात्रों का सृजन हुआ है. स्त्री केवल लता बन कर न रहे, वह पेड़ बने, कुप्रथाओं का समूल नष्ट करे, यही इस उपन्यास का सन्देश है. लेखिका सुनंदा जमदग्नी ने अपने विचार रखते हुए कहा कि वाचनालय चलाते समय कई महिला पाठकों ने अपनी समस्याएँ मुझसे साझा की. भारतीय संस्कृति में नारी को सर्वोच्च स्थान दिया गया है पर हकीकत में नारी की दशा-दिशा कुछ और ही है. उसी पीड़ा को ‘स्वयंसिद्धा’ में आपके समक्ष रखा है. प्रथम सत्र का आभार सचिव देवाप्रसाद मायला ने व्यक्त किया एवं संचालन मीना मुथा ने किया.


दूसरे सत्र में भंवरलाल उपाध्याय के संचालन में कविगोष्ठी संपन्न हुई. लक्ष्मीकांत जोशी, के. एस. जैन, आर. जी. बरडिया, नीरज कुमार मंचासीन हुए. नोटबंदी, भ्रष्टाचार, नारी समस्याओं आदि विषयों पर शशि राय, सुषमा पाण्डेय, दर्शन सिंह, डा० सीता मिश्र, डा० रमा द्विवेदी, मंगला अभ्यंकर, सरिता सुराणा, जी. परमेश्वर, सुरेश जैन, सत्यनारायण काकड़ा, उमा सोनी, सूरजप्रसाद सोनी, शिवकुमार तिवारी कोहिर, प्रवीण प्रणव, मल्लिकार्जुन, सुनीता लुल्ला, सी. जयश्री, सुषमा वैद्य, जुगल बंग जुगल, के. एस. जैन आदि ने काव्य पाठ किया. नीरज कुमार ने दोनों सत्रों की सफलता पर हर्ष व्यक्त किया. मधुकर, भूपेन्द्र मिश्र, संतोष जमदग्नी, आनंद डी., डा० कुलकर्णी आदि की उपस्थिति रही. कार्यक्रम संयोजिका सुनंदा जमदग्नी ने सभी की उपस्थिति के प्रति आभार जताया. डा० मिश्र ने कहा कि अगले माह साहित्यकारों की श्रेणी में महाश्वेता जी पर चर्चा सत्र रहेगा. मीना मुथा के धन्यवाद ज्ञापन से गोष्ठी का समापन हुआ.                                          

Friday, 23 September 2016

पत्रों के आईने में दिनकर - प्रवीण प्रणव

23 सितंबर 1908 को बिहार के मुंगेर ज़िले के सिमरिया गाँव में जन्मे रामधारी सिंह ‘दिनकर’ उस दौर के कवि हैं जब हिन्दी काव्य जगत् से छायावाद का युग समाप्त हो रहा था। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।
पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये। १९३४ से १९४७ तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया। १९५० से १९५२ तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने।

स्वतंत्रता से पहले  दिनकर सरकारी मुलाज़िम थे. पर उनकी रचनाओं में राष्ट्र भक्ति कूट कूट कर भरी थी. उन दिनों रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। चार वर्ष में बाईस बार उनका तबादला किया गया।
उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी  के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार  प्रदान किया गया।

द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि दिनकरजी गैर-हिंदीभाषियों के बीच हिन्दी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे और अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे।

हरिवंश राय बच्चन ने कहा कि दिनकरजी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिये अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये।

रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा कि दिनकरजी ने देश में क्रान्तिकारी आन्दोलन को स्वर दिया।

नामवर सिंह ने कहा कि दिनकरजी अपने युग के सचमुच सूर्य थे।

प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने कहा कि दिनकरजी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया।

मिट्टी की ओर’, ‘अर्ध्दनारीश्वर’, ‘रेती के फूल’, ‘वेणुवन’, ‘साहित्यमुखी’, ‘काव्य की भूमिका’, ‘प्रसाद, पंत और मैथिलीशरण गुप्त’ तथा ‘संस्कृति के चार अध्याय’ आपके गद्य ग्रंथ हैं।

रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘रसवंती’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘रश्मिरथी’, ‘परशुराम की प्रतिज्ञा’, ‘हारे को हरिनाम’ और ‘उर्वशी’ दिनकर जी के काव्य संकलन हैं।


4 अप्रेल सन् 1974 को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ये नश्वर देह छोड़कर चले गए।अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे।

पत्रों के आईने में दिनकर

पुस्तक या लेख ये सोच कर ही लिखे जाते हैं कि ये लोगों तक पहुंचेंगे और लोग उस पर अपनी प्रतिक्रियाएं देंगे. अतः लेखक इन्हें लिखते समय सावधान रहता है. कोशिश होती है कि अपने मन के भाव खासकर वैसे भाव, जो जनप्रिय न हों, न लिखे जाएँ. डायरी में भी संतुलित बातें ही लिखी जाती हैं क्यूंकि कहीं न कहीं जेहन में ये बात रहती है कि कोई इन्हें पढ़ेगा और फिर क्या सोचेगा. पत्रों के बारे में ऐसी कोई समस्या नहीं है. पत्रों की अमूनन कोई प्रति बना कर नहीं रखी जाती, अगर सरकारी पत्राचार न हों तो. तो दिनकर को परखने के लिए उनके पत्रों से बेहतर विकल्प और क्या होगा.
दिनकरजी के द्वारा लिखे गए पत्रों तो कई श्रेणियों में बांटा जा सकता है. पत्र जहां उन्होंने अपने परिवार और व्यक्तिगत जीवन की बात की, या पत्र जो उन्होंने अपने मित्रों तो लिखे, या पत्र जिसमे उनके यात्रा विवरण हैं पर यहाँ हम उन कुछ चुनिन्दा पत्रों की बात करेंगे जो उन्होंने साहित्य से सम्बंधित बातों पर लिखा.

डा० शिवमंगल सिंह सुमन को लिखा गया पत्र – 27-10-53
हिंदी कविता की प्रगति अवरुद्ध है. हर 12 साल के बाद नए क्षितिज का निर्माण होना चाहिए, आशा के विरुद्ध दिशा से किसी कवि को उतरना चाहिए. मैं चाहता हूं कि तुम अपने आप से एक प्रश्न करो कि तुमने अपने हिस्से के नए क्षितिज का निर्माण कर लिया या वह काम अभी बाकी है. मेरे ख्याल से तुम्हारा क्षितिज अभी तक पूर्ण रूप से उभर कर सामने नहीं आया है.
और कवि की संकीर्णता की वृद्धि कवि सम्मेलनों में होती है, यह तुम जान लो. हम सभी लोगों को भागना चाहिए इन सम्मेलनों से. मैं तो कोशिश करके हार गया मगर कवि सम्मेलनों से छुटकारा नहीं मिलता. बेबसी है. फिर भी जिस सत्य को अनुभव करता हूं वह तुम्हे बता रहा हूं. मैं तुम्हारा गुरु नहीं, अग्रज नहीं, एक पीठ का भाई हूं, इसलिए हर बात कह सकता हूं और तुम्हें भी यही अधिकार देता हूं.
बक गया हूं जुनूं में क्या क्या कुछ, कुछ न समझे खुदा करे कोई  
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उन्होंने कई रचनाओं पर अपनी बेबाक राय रखी और बेहतरी के सुझाव भी दिए. 
श्री लक्ष्मीकांत शर्मा  ‘मुकुर’ को पत्र – 11-11-41

प्रिय  मुकुर
तुमने जो कविताएं मुझे दिखलाई थी उनमे छंदो भंग और यतिभंग  के दोष हैं.  यह दोष ऐसे होते हैं जिन्हें  रचयिता को स्वमेव  दूर करना चाहिए. तुम जिस छन्द  में कविता लिखना चाहते हो उसी छंद की कोई कविता कई बार पढ़ो और उसकी लय अपने कंठ में उतार लो. इसके बाद गा गा कर कविता लिखो और अपनी हर पंक्ति को कंठाग्र छंद की लय से मिलाते चलो. जहां छंद की लय का साम्य न  होगा वहां यतिभंग होगा. छंद का अभ्यस्त कर्ण कह देगा कि अमुक स्थल पर यति भंग है.

खूब पढ़ो. कवि के लिए कोई भी विषय वर्जनीय नहीं है. वह यदि गणितज्ञ हो तो सोने में सुगंध होगी.

जहां रचनाएं उन्हें पसंद आईं, वहां जी भर के तारीफ़ भी की 

श्री रामसिंहासन सहाय ‘मधुर’ तो पत्र – 10-9-48

मैं तो आपकी हाल की कविताओं पर दंग हूं. सच पूछिए तो यह कविताएं मेरी अपनी मनोदशा को ही व्यंजित करती हैं और जी चाहता है कि काश इनमें से कई के नीचे रचयिता की जगह मेरा नाम होता. इन्हें कई मित्रों को सुना चुका हूं. कल शाम को पूरी कॉपी जयप्रकाश जी के यहां ले गया था और उन्हें तथा अन्य मित्रों को कोई 15 कविताएं सुनाई. सभी लोग बड़े ही चमत्कृत हुए.

डा० कृष्णबिहारी सहल को पत्र – 22-1-70

‘अहं और आत्मबोध’ की कवितायेँ एक बार में पढ़ गया. कविता वह, जिसे ख़त्म करके जी करे कि फिर पढूं और कहानी वह, जिसे ख़त्म करके जिज्ञासा हो कि आगे क्या हुआ. आपकी कवितायेँ पढ़ कर जी चाहता है उन्हें फिर से पढूं. यह आपकी सफलता है.


दिनकर अपनी आलोचनाओं से कभी विचलित नहीं हुए, उन्होंने इसे सराहा ही और ये उनके विभिन्न पत्रों से साबित होता है.

आचार्य कपिल को पत्र - 31-8 -51

अभी-अभी हुंकार आया है. उसमें प्रभात जी ने बड़ी उल-जुलूल बातें लिखी हैं. अब आपके शत्रु और भी बढ़ेंगे.  निराला जी ने कहा है

यह हिंदी का स्नेहोपहार 

तो ये सारे उपहार लेने पड़ेंगे. बंधुओं की दलील है ग्रुप में रहो नहीं तो चैन से लिखने नहीं देंगे. दुर्भाग्यवश 2, 3 आदमी भी ऐसे नहीं हैं जिन्हें मैं  अपनी गुट का कह सकूं. अगर मेरी कोई गुट है तो उसका एकमात्र सदस्य मैं ही हूँ.

आचार्य कपिल को पत्र - 29 – 1 – 51

कामेश्वर फूले फले और बढ़ें यह मेरी कामना पहले भी थी और अब भी है .उन्हें मैं यह भी छूट देता हूं कि वह दिनकर काव्य के विरोधी के रूप में अपना विकास करें और उन्हें बुरा ना लगे तो मेरे साथ एक थाली में बैठकर भोजन भी करें, मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी. किंतु उन्हें और प्रत्येक लेखक को चाहिए कि वस्तुस्थिति को देख कर बोले और लिखें, जिससे किसी की पद मर्यादा को अनुचित जर्ब नहीं पहुंचे. पटना में एक साहित्यिक षड्यंत्र चल रहा है जिसका केंद्र यह कल्पित बात है कि दिनकर बिहार के सभी साहित्यकों का बाधक है और कुछ लोगों के खिलाफ तो उसकी फौज खड़ी रहती है. जब उमा मुझ पर आक्रमण करें, बेनीपुरी मुझ पर चोट करें, प्रदीप मेरे विरुद्ध लेख छापे और कामेश्वर मेरे विरुद्ध लिखे तब लोग न जाने किसे मेरी फौज का आदमी समझते हैं. मुझे लगता है रामेश्वर जी इस भ्रम में है कि दिनकर का विरोध करने से निष्पक्ष आलोचक के रूप में वे पूजे जायेंगे. इसे तो मैं घोर भ्रम समझता हूं और जिस निर्णय पर मैं 15 वर्षों के बाद पहुंचा हूं उस पर वह भी कभी ना कभी आएंगे. कुरुक्षेत्र के विरुद्ध चाहे तो वो एक लेखमाला आरम्भ कर दें, जिसके लिए स्थान में ‘राष्ट्रवाणी’ में ही दिलवा दूंगा. मगर ईश्वर के नाम पर वे भाषा में शिष्टता लाएं और कोई ऐसा काम ना करें जिससे उन्हें बाद को चलकर लज्जित होना पड़े.

मैंने उन्हें आत्मीय समझा है इसीलिए ये बातें लिख रहा हूँ. प्रेमी भी परस्पर एक दूसरे की आलोचना कर सकते हैं किन्तु ऐसी भाषा में नहीं जिससे जग हंसाई हो. मैंने जीवन भर में किसी आलोचक के लिए कोई पत्र नहीं लिखा था, यह पहला पत्र है. साहित्य में विचार स्वातंत्र्य रहना चाहिए मगर गाली-गलौज या मुंह चिढ़ाना विचार स्वातंत्र्य नहीं है.

श्री बनारसीदास चतुर्वेदी को पत्र – 6-1-36
अपने मित्रों में मैं जरा इमोशनल कहलाता हूं इसीलिए लोग मुझे ऐसी बात कहने या ऐसी चीज दिखाने से डरते हैं जिससे मुझे दुख होने की संभावना हो. अभी हाल ही में मैं शिवपूजन जी से मिला था. तब तक साप्ताहिक विश्वमित्र में निर्झरिणी की निंदा छप चुकी थी. शिवपूजन जी ने मुझे वह लेख देखने नहीं दिया. कहने लगे जब लोग तुम्हारी निंदा खुलकर करने लगे तब तुम समझो कि तुम्हारी लेखनी सफल हुई. इसे तो मैं अपना सौभाग्य ही समझता हूं कि भाव, कुभाव, अनख, आलसहूँ ‘रेणुका’ का नाम दस भले लोगों के मुंह पर आ जाता है.

आप विश्वास रखें आप पूज्यों की कृपा से मुझ में इतनी ताकत जरूर है कि अखबारों में रोज निकलने वाली पंक्तियां मुझे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती. कोई प्रशंसा ऐसी नहीं जो मुझे याद रहे, कोई निंदा ऐसी नहीं जो मुझे उभार दे.  नास्ति का परिणाम नास्ति है. कुछ नहीं से कुछ की उत्पत्ति नहीं हो सकती.

मैं रेणुका के दोषों को भली भांति जानता हूं. उसमें कलाविदों को पद पद पर अनुभवहीनता, इमैच्युरीटी  और कहीं-कहीं भाषा संबंधी कमजोरियां मिलेंगी. कीट्स के शब्दों में It is a foolish attempt, rather than a deed accomplished.

मैं जो कुछ चाहता हूं जो कुछ सोचता हूं उसे ठीक मनचाहे रूप में अब तक उभार नहीं सका हूं. इस चेष्टा का एक अस्पष्ट रुप मेरी आंखों के सामने बराबर टंगा रहता है. इधर मुझे ऐसा जान पड़ता है की शुद्ध भाषा लिखने की ट्रेनिंग मुझे और लेनी चाहिए. भरसक कोशिश कर रहा हूं. कविताएं शिवपूजन जी से दिखाकर छपाया करूंगा. आप इस विचार को कैसा समझते हैं ? मेरे विचार से शिवपूजन जी की जैसी चार्टर्ड हिंदी लिखने वाला विरला ही होगा.

लेखक के रूप में दिनकरजी सदा पाठकों की तरफ से सोचते रहे. उनके कुछ पत्र इशारा करते हैं की किस तरह उन्होंने छोटी छोटी बातों का ख्याल रखा.

आचार्य शिवपूजन सहाय को पत्र – 15-8-38

छपाई के विषय में आप और महारथी जी हैं ही, मुझे कुछ करना नहीं रह जाता.  तो भी आवरण पर का चित्र कुछ स्थूल है. उजले या हल्के रंग के आवरण पर रेखाचित्र रहता तो अधिक सुंदर होता. क्या इसका आकार छोटा नहीं किया जा सकता? दाम दो रुपए रख रहे हैं तो पृष्ठ संख्या कम से कम 150 होनी चाहिए और कागज भी ऐसा होना चाहिए कि ₹2 के लायक हो. आकार भी भारी भरकम हो. छपाई को घनी रखना अच्छा नहीं लगता उसे अधिक पतली कर दीजिएगा 

आचार्य कपिल को उनकी पत्रिका ‘प्राची’ के सम्बन्ध में पत्र – 24-4-51

आवरण पर से आप मिट्टी के छोटे माधव को हटा ही दें. भीतर संकलन और संपादन में जो गांभीर्य है उसके अनुरूप ऊपर का आवरण सादा ही रहना चाहिए अथवा हल्की रेखाओं में कोई छोटा स्केच रहे तो ठीक है. आपका उद्देश्य कदाचित यह है कि शिक्षण संस्थाओं में जो प्रश्न और समस्याएं हैं डटकर उन्हीं पर प्रकाश डाला जाए. यह एक उपयोगी काम है मगर स्टैंडर्ड को जरा ऊपर ले जाइए तथा इस प्रकार की समस्याओं पर भी लेख लिखवाईए जैसे
१.     छायावाद का जन्म कब हुआ तथा उसके आदि कवि कौन है?
२.      नई कविता हिंदी की परंपरा में आई है अथवा आकस्मिक रुप से?
३.      हिंदी गद्य के क्षेत्र में उस नेतृत्व को प्रधानता मिलनी चाहिए जो बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुंद गुप्त तथा गुलेरी जी के द्वारा दिया गया अथवा उसे जो रामचंद्र शुक्ल एवं प्रसाद की देन है.
४.      यह बात कहां तक ठीक है कि उर्दू में से फारसी और अरबी शब्दों को हटा कर हिंदी बना दी गई है?
५.      रसवादी आलोचना पद्धति में क्या संशोधन किया जाए की वह आधुनिक साहित्य की व्याख्या में सफल हो?
६.      रीतिकालीन साहित्य का मूल्यांकन, नई समीक्षा की कसौटी पर
७.     भाषा सम्बन्धी दुष्प्रयोगों पर रोक लगाने के लिए आंदोलन       

साहित्य जगत में इतना बड़ा नाम होने के बाद भी, दिनकरजी स्वभाव से सरल रहे.

संपादक – धर्मयुग 1972 

सेक्सपियर ने तीन तरह के बड़ों का उल्लेख किया है. एक वह जो बड़ा पैदा होता है, दूसरा वह जो बड़प्पन हासिल करता है और तीसरा वह जिसपर बड़प्पन  थोप दिया जाता है. एक चौथा व्यक्ति भी हो सकता है जो बड़े वंश का होने के कारण  या साधन संपन्न होने के कारण बड़प्पन को दबोच लेता है.  अपने जानते मैं इनमें से किसी भी कोटि में नहीं आता हूं असल में मैं महान-टहान  हूं ही नहीं. मैं तो मामूली गृहस्त हूं जो नौकरियां करके अपना और अपने परिवार का पेट पालता रहा है और वंश में जन्मी कन्याओं का विवाह रचवाता  रहा है. कुरुक्षेत्र और उर्वशी की रचना मेरी असली उपलब्धि नहीं है. मेरी वास्तविक उपलब्धि यह है कि परिवार के शकट को हाँफ- हाँफ कर खींचते हुए मैंने 9 लड़कियों के ब्याह रचवाएं हैं, अगर यह मेरी महत्ता है तो मैं उसे स्वीकार करता हूं.

श्री राजेन्द्र प्रसाद सिंह को पत्र – 10-2-70

1964 में जब मुझे सब रजिस्ट्रार का ऑफर आया, बेनीपुरी ने सलाह दी कि कुबूल मत करो. सरकारी नौकरी में जाकर अपने कवि की हत्या ही करोगे. यह बहुत ही नेक सलाह थी. लेकिन मैं उस पर चल नहीं सका.  सारी जिंदगी परिवार की गरीबी से जूझने में बीत गई. जिस समय लोग ताश और बैडमिंटन खेलते हैं, उस समय को भी मैंने साहित्य में लगाया. बस इतना ही काम  मुझसे हो सका और कृति मुझे क्षमता से अधिक मिल गई. कारण शायद यह था कि मैंने अपने आप को अमरता के अयोग्य पाकर उन कामों को खूब मनोयोग से किया जिनकी मुझ में योग्यता थी. अमर बनने का मंसूबा पालता तो वह काम भी नहीं हो पाता जिसे ईश्वर ने मुझसे करवा लिया है. जिस युग में पैदा हुआ उसकी योग्यता और सम्मान को समझने में मैंने गलती नहीं की है, इसका मुझे विश्वास है. मुश्किल यह है कि निराला के आए बिना साहित्य की परिधि विस्तृत नहीं हो पाती, किंतु हर आदमी निराला बनने की कोशिश में फस जाए तो साहित्य ठिठक जाएगा. बस इतना ही आत्मज्ञान हम सबको हासिल करना है

डा० विवेकीराय को पत्र – 1 – 1 -  58 

शासन की छाया मेरे लिए नहीं है. हां मेरे आलोचकों को यह बुरा अवश्य लगा कि मैं संसद का सदस्य क्यों हो गया. मैं स्कूल का शिक्षक था, सब रजिस्ट्रार था, युद्ध के समय प्रचार अफसर था, कांग्रेसी सरकार का प्रचार अफसर था और सबके बाद में प्रोफेसर. क्या यह सभी पद रचनात्मक प्रतिभा के उपयुक्त हैं?  और तो और आपने प्रोफेसरी करते हुए कितने कवियों को अच्छी कविताएं लिखते देखा है? मगर जब मैं इन पदों पर था लोग समझते थे मैं ठीक जगह पर हूं. केवल उन्हें लगता है कि मैं खतरों के बीच हूं. ठीक जगह कवि को कहां मिलती है? कविता का मेल किसी भी पद से नहीं बैठता और साहस तथा शक्ति हो तो सभी पदों से बैठता है. कम से कम मेरा तो यही अनुभव है, नौकरी (और उसके साथ लक्ष्य मूल पेंशन) का मोह मैंने 1952 में छोड़ी, तब से मेरी पुस्तकें कौन कौन सी निकली हैं -  नील कुसुम, संस्कृति के चार अध्याय, नीम के पत्ते, दिल्ली, रेती के फूल, चक्रवाल, उजली आग, .... 5 साल में 14 पुस्तकें क्या कम होती हैं? मगर अब हिंदी में पढ़ता कौन है?

बिहार में जाति प्रथा और उसके दुष्प्रभाव से भी वे चिंतित रहे 

श्री रामसागर चौधरी को  पत्र – 4-3-61

अपनी जाति का आदमी अच्छा और दूसरी जाति का बुरा होता है यह सिद्धांत मानकर चलने वाला आदमी, छोटे मिजाज का आदमी होता है. आप लोग, यानी सभी जातियों के नौजवान, इस छोटे पन से बचिए.  प्रजातंत्र का नियम है कि जो नेता चुना जाता है सभी वर्गों के लोग उससे न्याय की आशा करते हैं. कुख्यात प्रांत बिहार को सुधारने का सबसे अच्छा रास्ता यह है कि लोग जातियों को भूलकर गुणवान के आदर में एक हों.  याद रखिए कि एक या दो जातियों के समर्थन से राज नहीं चलता. वह बहुतों के समर्थन से चलता है. यदि जातिवाद से हम ऊपर नहीं उठे, तो बिहार का सार्वजनिक जीवन गल जाएगा.

वीर रस का कवि होते हुए भी गांधीजी के प्रति उनका बहुत आदर रहा. भारत पाकिस्तान के बंटवारे से उन्हें दंश पहुंचा था. पाकिस्तान से बांग्लादेश के अलग हो जाने के बाद उन्होंने आचार्य कपिल को पत्र लिखा था

आचार्य कपिल को पत्र - 21-12-71

स्थान का अखाड़ा छोटा, काल का अखाड़ा बड़ा होता है. बड़े अखाड़े के पहलवान, छोटे अखाड़े में लड़े तो उनके हारने का डर रहता है. गांधीजी जिन्ना से स्थान के अखाड़े में लड़े थे इसलिए वे हार गए. नगर बांग्लादेश का अखाड़ा काल का अखाड़ा है. मुक्ति वाहिनी काल के उदर से जन्मी हुई फौज है. इस अखाड़े में जीत गांधी की हुई है, जिन्ना हार गए हैं. आपको मेरा एक पद याद है?
 स्थान में संघर्ष हो तो क्षुद्रता भी जीतती है
पर संयम के युद्ध में वह हार जाती है
जीत ले दिक् में जिन्ना
, पर अंत में बापू, तुम्हारी
जीत होगी काल के चौड़े अखाड़े में

संतोष की बात है कि मैंने जीते जी अपनी भविष्यवाणी को सच होते देख लिया.

हिंदी को कठिन संस्कृत के शब्दों से बाहर निकाल कर उसे जन मानस में व्यापक स्वीकार्यता दिलाने पर उनका सदैव प्रयास रहा. धर्मयुग के संपादक तो लिखे उनके पत्र में ये विषय समाहित है.

संपादक – धर्मयुग 1972 
मुख्य विषय यह है कि हिंदी को संस्कृत निष्ठ होना चाहिए या नहीं. पूज्य पंडित मदन मोहन मालवीय के चरणों तक पहुंचने का सुयोग मुझे नहीं मिला था, किंतु पूजनीय टंडन जी की संगति मुझे थोड़ी मिली थी. टंडन जी आसान हिंदी के पक्ष पाती थे मैं भी आसान हिंदी चाहता हूं और मानता हूं यह आदर्श हिंदी अमृतलाल नागर लिख रहे हैं, कमलेश्वर लिख रहे हैं, हरिशंकर परसाई लिख रहे हैं और सबसे बढ़कर अमृतराय लिख रहे हैं. किंतु हुआ क्या? संसदीय कार्यों के लिए जब-जब हिंदी शब्दों की जरूरत पड़ी, स्पीकर महोदय ने विद्वानों की एक बड़ी समिति का निर्माण किया और टंडन जी को उसका अध्यक्ष बना दिया. इस समिति में भारत के सभी भाषाओं के विद्वान रखे गए थे और समिति की कोशिश यह थी कि शब्द जहां तक संभव हो आसान रखे जाएं. किंतु हिंदी के प्रतिनिधियों की समिति में चली नहीं. अहिंदी भाषी विद्वान कदम कदम पर अड़ते रहे कि शब्द संस्कृत के ही होने चाहिए नहीं तो उन्हें सार्वदेशिक स्वीकृति नहीं मिलेगी और अंततः समिति ने जो शब्दकोश तैयार किया उसमे बहुलता संस्कृत शब्दों की ही रही.
इतने दिनों का मेरा अनुभव यह बतलाता है कि या तो हिंदी राजभाषा के रुप में सफल ही नहीं होगी या होगी तो संस्कृतनिष्ठ  होकर ही होगी

दिनकरजी, अपनी प्रशंसा से सदैव बचते रहे पर एक पत्र में उन्होंने अपनी ख़ुशी जाहिर की है. पर यहाँ भी उनकी ख़ुशी एक कवि के रूप में उनको मिले सम्मान से है न की व्यक्तिगत प्रशंसा से.

ब्रज किशोर नारायण को पत्र पोलैंड से – 29-11-55

रात जब मैं कविता पढ़ने को उठा तो मुझ पर नशा छा गया. न जाने संस्कृत निष्ठ हिंदी का प्रभाव था या उस छंद का चमत्कार या मेरे स्वर में सरस्वती प्रविष्ट हो गई थी. जब तक मैं कविता पढ़ता रहा लोग आनंद से झूमते रहे और ज्यों ही  पढ़ना खत्म किया कि तालियों की भयानक गड़गड़ाहट शुरू हो गई जो देर तक चलती रही. 
जो कुछ देख रहा हूं उससे विचारों की नींव पर बुरा असर पड़ रहा है. शक्ति के बिना अनुशासन नहीं, अनुशासन के बिना काम नहीं और काम के बिना प्रगति नहीं. यहां के कवि और कलाकार देश के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं. वहां भारत में हम मिनिस्टर से भी सस्ते और आलू गोभी से भी हीन माने जाते हैं .
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उनके लिखे हजार से भी ऊपर पत्र, आज की पीढ़ी के लिए उतने ही अमूल्य धरोहर हैं जितने की उनके द्वारा लिखे गए साहित्य.   










प्रवीण प्रणव


Thursday, 22 September 2016

राष्ट्रकवि दिनकर जी को समर्पित कादम्बिनी क्लब की गोष्ठी संपन्न



कादम्बिनी क्लब हैदराबाद के तत्वावधान में रविवार दिनांक 18 सितंबर को हिंदी प्रचार सभा परिसर में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को समर्पित गोष्ठी का सफल आयोजन किया गया. क्लब अध्यक्षा डॉ० अहिल्या मिश्र एवं कार्यकारी संयोजिका मीना मूथा ने संयुक्त प्रेस विज्ञप्ति में बताया कि डॉक्टर ऋषभदेव शर्मा (पूर्व अध्यक्ष उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारतीय हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद) ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की. मुख्य अतिथि डॉ० विद्या बिंदु सिन्हा (वरिष्ठ साहित्यकार, पूर्व उप निदेशक, हिंदी संस्थान, लखनऊ), विशेष अतिथि किरण सिंह,  डॉ० अहिल्या मिश्र (क्लब अध्यक्षा व प्रधान संयोजक) मंचासीन हुए. शुभ्रा महंतो ने निराला रचित सरस्वती वंदना प्रस्तुत की. डॉ० मिश्र ने स्वागत भाषण व अतिथि परिचय में कहा कि संस्था अपनी रजत जयंती की ओर अग्रसर हो रही है. हिंदी का प्रचार-प्रसार-सेवा व् नई पीढ़ी को मार्गदर्शन देते हुए क्लब अपनी गतिविधियों में निरंतरता बनाए हुए है. डॉ० विद्या बिंदु जैसी विदुषी का आज हमारे मंच पर होना हमारे लिए गौरव की बात है. डॉ० शर्मा ने सदैव संस्था के लिए समय व बहुमूल्य मार्गदर्शन देकर हमारा मनोबल बढ़ाया है. किरण सिंह की उपस्थिति भी हमारे लिए प्रेरक रही है.

संगोष्ठी के प्रथम सत्र का संचालन करते हुए मंत्री, प्रवीण प्रणव ने कहा की क्लब के कार्यक्रमों की रूपरेखा में कुछ परिवर्तन किए गए हैं और इसे सराहा भी गया है. इसी चरण में आज का प्रयास है राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की रचनाओं पर साहित्यिक परिचर्चा. संगोष्ठी संयोजक अवधेश कुमार सिन्हा ने दिनकर जी की “उर्वशी” पर बात रखते हुए कहा कि 1961 में प्रकाशित यह काव्य नाटक है. केवल कथानक को प्रस्तुत करना ही मेरा ध्येय नहीं है बल्कि दार्शनिक स्वरूप की व्याख्या और लौकिक अलौकिक प्रेम संबंधों पर गहनता से हम बात करेंगे. मनुष्य चाहता है कि काम भी मिले, अर्थ भी मिले और मोक्ष भी मिले. और इन दोनों के बीच वह झूलता रहता है. उर्वशी और पुरुरवा की कहानी को संक्षिप्त में बताते हुए सिन्हा ने उसे एक उत्कृष्ट रचना कहा. सुनीता लुल्ला ने कहा कि दिनकर जी ने पुरुष होकर भी स्त्री के अधिकारों के लिए आवाज उठाई. “आदमी और चांद” कविता का पाठ सुनीताजी  ने किया. 11 वर्षीय अक्षिति (पल) मिश्र ने दिनकर जी के रश्मिरथी संग्रह से तृतीय सर्ग का कंठस्थ पाठ किया, जिसे सभागार ने तालियों की गूंज से सराहा और इस प्रतिभा को सभी ने आशीष दिया. सरिता सुराणा ने दिनकर जी की ओज कविता “झन झन झन झन झनन झनन” का पाठ किया. ज्योति नारायण ने कहा कि दिनकर जी ने दीर्घ कविताएं भी लिखी, उनकी “बालिका से वधू” कविता चर्चित रही है. राष्ट्रकवि वह नहीं होता जो राष्ट्र पर कविताएं लिखता है बल्कि वह होता है जो देश के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है.

प्रवीण प्रणव ने कहा कि किसी साहित्यकार के मूल्यांकन के लिए उसके द्वारा लिखे गए पत्र एक सशक्त माध्यम हैं. पुस्तक या डायरी लिखते समय लेखक के मन में यह विचार होता है कि उसका मूल्यांकन इन रचनाओं या डायरी को पढ़कर किया जाएगा. पत्र यह सोचकर नहीं लिखे जाते. दिनकर जी ने 1000 से भी ऊपर पत्र लिखे हैं जिन्हें पढ़कर उनके विविध आयामों का परिचय मिलता है. डॉ० अहिल्या मित्र ने दिनकर जी के “संस्कृति के चार अध्याय” पर अपनी बात रखी. उन्होंने बताया कि इस राष्ट्रकवि का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार प्रांत के मुंगेर जिले के सिमरिया गांव में हुआ. उनका रचनाकाल 1927 से 1974 तक रहा. दिनकर जी के साहित्यावलोचन  का फलक विस्तृत रहा है. विद्यापति के बाद 600 वर्षों के कालखंड के बाद दिनकर जी जैसा साहित्यकार भारत वर्ष को मिला. रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘रसवंती’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘रश्मिरथी’, ‘परशुराम की प्रतिज्ञा’, ‘हारे को हरिनाम’ और ‘उर्वशी’ दिनकर जी के काव्य संकलन हैं. विभिन्न आलोचकों के कोटेशंस भी उल्लेखित किए गए. डॉ०  विद्या बिंदु ने कहा कि आज के बच्चे बिल्कुल ही साहित्य संस्कृति से जुड़ नहीं पा रहे हैं ऐसे में अक्षिति की प्रस्तुति सराहनीय है. “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” हुंकार की इस रचना को विद्या जी ने प्रस्तुत किया. उन्होंने कहा कि सभी वक्ताओं का दिनकर जी के साहित्य पर प्रयास सराहनीय रहा है. साहित्यकारों के पत्रों को सहेज कर रखने का कार्य भी अब चल रहा है. डॉ० ऋषभदेव शर्मा ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि दिनकर जी प्रेम पर लिखने के सबसे बड़े अधिकारी हैं. वह काव्य अनुवादक भी रहे हैं. जितनी विस्तृत पीठिका कामायनी के पीछे है वही स्थिति उर्वशी में भी है. दिनकर जी ने आजादी से पहले भी लिखा और आजादी के बाद भी लिखा. “आंसू से भीगे आंचल पर सब कुछ रखना होगा”, “पानी पर चलो पानी का दाग न लगे” ऐसी पंक्तियों का उल्लेख करते हुए डा० शर्मा ने कहा कि दिनकर जी और हरिवंश राय बच्चन की लोकप्रियता का कारण यह रहा है कि लंबे समय तक हिंदी मंच और मन पर इन रचनाकारों ने राज किया. संगोष्ठी सत्र का संचालन प्रवीण प्रणव ने किया.

इस अवसर पर डॉ० विद्या जी का क्लब की ओर से सम्मान किया गया. उन्हें “पुष्पक” प्रति भेंट की गई. डॉ०  मिश्र को उनके जन्मदिन की बधाई दी गई. डॉ० रमा ने क्लब सदस्यों को जन्मदिन की शुभकामनाएं दी.



दूसरे सत्र में कवि गोष्ठी संपन्न हुई. डॉ० शर्मा, डॉ० विद्या, डॉ० अहिल्या मिश्र मंचासीन हुए. भंवरलाल उपाध्याय के सफल संचालन में भावना मयूर पुरोहित, संपत मुरारका, डॉ० रमा द्विवेदी, डॉ० विद्या, कुंज बिहारी गुप्ता, अवधेश सिन्हा,  सत्यनारायण काकड़ा, शिव प्रसाद तिवारी, जुगल बंग जुगल, देवा प्रसाद मायला, सुनीता लुल्ला, रेणु अग्रवाल, शशि राय, मल्लिकार्जुन, सुख मोहन अग्रवाल, उमेश चंद्र श्रीवास्तव, सरिता गर्ग, सरिता सुराणा, ज्योति नारायण, सुषमा वैद्य, उमा सूरज प्रसाद सविता सोनी, प्रवीण प्रणव, सौम्या नमिता दुबे, मिलन श्रीवास्तव, डॉ० अर्चना झा, डॉ० अहिल्या मिश्र, मीना मूथा ने काव्य पाठ किया. डा० शर्मा ने अध्यक्षीय काव्य पाठ किया. कार्यक्रम का संचालन आभार मीना मूथा ने किया. इस अवसर पर श्री प्रभाकर श्रोत्रीय (ज्ञानपीठ के निदेशक) को सभा में श्रद्धांजलि दी गई. डॉ० आशा मिश्र, डॉ० मदन पोकरणा,  अवनीश दुबे, अमिताभ सिंह, एल० रंजना, निर्मल वैद्य, सुनील देव सिंह,  मधुकर भूपेंद्र मिश्र की उपस्थिति रही.




Friday, 26 August 2016

तुलसीदास की विनय-पत्रिका - विभिन्न आयाम


         

गोस्वामी तुलसीदास की सभी रचनाओं में यूँ तो रामचरितमानससर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ है जिसने शेष कृतियों को इक्लिप्स-सा कर दिया है और सामान्य-जन के बीच उनके नाम का पर्याय बन गया है, लेकिन रामचरितमानस के बाद लोकप्रियता की अगली पायदान पर विनय-पत्रिकाको ही स्थान दिया जाता है



विनय-पत्रिका तुलसीदास के 279 स्तोत्र गीतों का संग्रह है जो हिन्दुस्तानी संगीत के 23 रागों में निबद्ध हैं इन गीतों में गणेश, सूर्य, शिव, पार्वती, गंगा, यमुना, काशी, चित्रकूट, हनुमान, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता और विष्णु के एक विग्रह विन्दु माधव के गुणगान के साथ राम की स्तुतियाँ हैं अपने पदों एवं स्तोत्रों में इन सभी का गुणगान करके तुलसीदास जी ने उनसे याचना की है कि वे प्रभु श्री राम की उन पर कृपा करवाने में उनकी सहायता करें, उनकी ओर से सिफारिश करें संभवतः तुलसीदास का इन देवी-देवताओं में विश्वास रखने का कारण राम भक्ति की प्राप्ति में उनकी उपयोगिता रही हो विनय-पत्रिका में लोक-मंगल चाहने वाले गोस्वामी जी ने भक्त की दीनता और प्रभु का महत्त्व, जीव की अक्षमता, आत्मग्लानि, मनोराज्य के साथ-साथ अत्याचार-पीड़ित युग-जीवन का बार-बार उल्लेख किया है भक्तिपूर्ण आत्मनिवेदन के अतिरिक्त विनय-पत्रिका में ज्ञान, वैराग्य, अद्वैतवाद, विशिष्ट अद्वैतवाद तथा शुद्ध अद्वैतवाद आदि का भी निरूपण मिलता है कवि ने इन दार्शनिक तथ्यों को काव्य की भाषा में ग्रहण किया है



रचनाकाल 

तुलसीदास के द्वारा रचना तिथि का का निर्देश होने से अन्य ग्रंथों की भाँति विनय-पत्रिका का रचनाकाल भी संदिग्ध है कुछ विद्वान इसे संवत् 1636 से 1668 के बीच अलग-अलग समय पर रचित स्फुट रचनाओं का संकलित किया हुआ संग्रह-ग्रंथ मानते हैं तो कई इसमें मंगलाचरण तथा विष्णु, शिव, देवी, सूर्य, गणेश आदि पंच देवों की प्रार्थना का प्रारंभ में ही आयोजन के आधार पर इसे योजनाबद्ध तरीके से रचित एक सम्यक ग्रंथ मानते हैं जो संवत् 1666 में पूर्ण की गई तथापि, विनय-पत्रिका की निम्न पंक्तियों से इतना तो स्पष्ट है कि इसके कई पद और स्तोत्र तुलसीदास के 126 वर्षों के जीवन-काल (मृत्यु- संवत् 1680) के अंतिम चरण में लिखे गये होंगे

                    तुम्ह तजि हौं कासों कहौं और को हितु मेरे ?

                    दीनबन्धु ! सेवक-सखा, आरत अनाथ पर सहज छोह केहि केरे ।।1।।

                    बहुत पतित भवनिधि तरे बिनु तरि, बिनु बेरे

                    कृपा-कोप-सति भायहू, धोखेहु-तिरछेहू, राम तिहारेहि हेरे ।।2।।

                    जो चितवनि सौधी लगै, चितइये सवेरे

                    तुलसिदास अपनाइये, कीजै ढील, अब जीवन अवधि अति नेरे ।।3।।

                                                                                           (विनय-पत्रिका 273) 



भाषा और शिल्प  

विनय-पत्रिका की भाषा ब्रज की है, पर तुलसीदास की मातृभाषा अवधी की भी छाप इसमें जगह-जगह मौजूद है भाषा, शैली और व्यंजना के दृष्टिकोण से विनय-पत्रिका के दो भाग किये जा सकते हैं - पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध पूर्वार्द्ध के 64 पदों तक यह स्तोत्र काव्य है जिसमें देवताओं के ऐश्वर्यपूर्ण गुण और रूप का वर्णन है इनमें भावपक्ष की कमी के कारण प्रगीतात्मक तत्त्वों का सर्वथा अभाव दीखता है इन रचनाओं में ब्रज, अवधी या हिन्दीपन से दूर संस्कृत पदावली के प्रयोग का प्रयत्न किया गया है परिणामस्वरूप, ये तो संस्कृत ही हो पाईं और ब्रज, अवधी या हिन्दी,



वरन् सबका मिलाजुला रूप हैं इसके कारण स्तुति के नाम पर इन पदों के प्रति शुद्ध भावना का संयोजन भले ही मान लिया जाय किन्तु रागात्मक प्रवृत्तियों को रमाने के लिए इनमें स्थान का अभाव दीखता है उदाहरण के लिए हनुमान जी की एक स्तुति इस प्रकार है -

                    जयति मर्कटाधीस, मृगराज-विक्रम,

                                      महादेव, मुद-मंगलालय कपाली

                    मोह-मद-कोह-कामादि-खल-संकुला,

                                      घोर संसार-निसि किरनमाली ।। 1।।

                    जयति लसदञ्जनाsदितिज, कपि-केसरी-

                                       कश्यप-प्रभाव, जगदार्तिहर्त्ता

                    लोक-लोकप-कोक कोकनद- सोकहर,

                                       हंस हनुमान कल्यान कर्त्ता ।। 2 ।।           

(विनय-पत्रिका 26)



शिव की स्तुति का एक रूप इसी से मिलता-जुलता है -  

                    संकरं सम्प्रदं सञ्जनानन्ददं, सैल-कन्या-वरं परम रम्यं

                    काम-मद-मोचनं तामरस-लोचनं, वामदेवं भजे भाव गम्यं ।। 1 ।।

                    कम्यु-कुन्देन्दु-कर्पूर गौरं शिवं, सुन्दरं सच्चिदानन्द कन्दं

                    सिद्ध-सनकादि योगीन्द्र-वृन्दारका, विष्णु-विधि-वन्द्य चरनारविंदं ।। 2 ।।   

(विनय-पत्रिका 12)



इन पदावलियों की रचना-प्रक्रिया में कवि उपमा और उत्प्रेक्षा के जाल में फंसता हुआ-सा लगता है, यहाँ तक कि एक स्थान पर अपने इष्टदेव राम की उपमा राहु से दे दी है

                    देहि अवलंब करकमल, कमलारमन,

                                          दमन-दुख, समन-संतापभारी

                    अज्ञान-राकेस-ग्रासन विधुंतुद गर्व-

                                          काम-करिमत्त-हरि, दूषनारी ।।1 ।।         

(विनय-पत्रिका 58)



विनय-पत्रिका के उत्तरार्द्ध में यानि 65 वें पद से आगे राम नाम की महिमा प्रारंभ होती है और फिर तुलसीदास भक्ति के आवेश में भाव विह्वल होते जाते हैं अपने हृदय की बात कहने के लिए कवि सहसा संस्कृत के सौध से उतरकर लोकभाषा की जानी-पहचानी प्राकृतिक परंपरा की भावभूमि पर खड़ा होता है एक उदाहरण है-

                    राम को गुलाम, नाम रामबोलाराख्यो राम,

                                     काम इहै, नाम द्वै हौं कबहूँ कहत हौं

                    रोटी-लूगा नीके राखे, आगे हू की वेद भाखे,

                                     भलो ह्वै है तेरो, ताते आनँद लहत हौं ।। 1 ।।        

(विनय-पत्रिका 76)



विनय-पत्रिका में भावना का परिवेश प्रधान होने के कारण विदेशी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है, जैसे

अरबी  -  लायक, गरीब, गुलाम, कुबूल, मुकाम, मालूम, खलल, मंशा, ख्याल, खास आदि



फारसी -  निशानी, इयार, शरम, दाद, बाजिगर, दरबान, जहान, जोर, बुलन्द, गुल आदि

विशेषता यह है कि तुलसी ने इन शब्दों को हिन्दी की प्रकृति के अनुकूल ढाल लिया है छोटे पदों में भावान्विति अवश्य है जिसके कारण वे प्रगीतात्मक हो गये हैं किन्तु लम्बे पदों में भावना की एकरूपता बिखर गई है फिर भी, तुलसी का आत्मनिवेदन लौकिक भावभूमि पर आधारित है इसलिए उसमें बड़ी हृदयग्राहिकता है



विनय-पत्रिका के आरम्भिक और परवर्त्ती पदों में भाषा का प्रयोग अलग-अलग रूपों में बेशक हुआ हो, पर कुल परिवेश गीतिकाव्य के ही रूप में निर्मित किया गया है इसमें राम कथा का आग्रह बिल्कुल नहीं है और प्रत्येक पद एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं संगीत की योजना भी प्रसंगानुकूल है, साथ ही इसके छंदों में जितना वैचित्र्य है उतना तुलसी के किसी अन्य ग्रंथ में नहीं भावों की सघनता के कारण इसमें छंद भावों का अनुसरण करता है, भाव छंद का नहीं छन्दों के क्षेत्र में तो विनय-पत्रिका में इतने अधिक नवीन रूपों का प्रयोग किया गया है कि छन्दशास्त्र के अनुसार उनका वर्गीकरण भी कठिन लगता है मर्यादा के बन्धन को छोड़कर विनय-पत्रिका की भाषा, छन्द और शैली सभी में पूर्ण स्वच्छन्दता बरती गई है, इसलिए मध्ययुग के गीतिकाव्य के क्षेत्र में वह सर्वथा अनूठी है टेकयुक्त गीत शैली के पदों में राग और ताल के सधाव के कारण मनोहारी संगीत का विधान किया गया है काव्य और संगीत का यह समन्वय विनय-पत्रिका को भावुक भक्तों का कंठहार बना देता है  



भक्ति की चरम स्थिति

भक्ति-रस का पूर्ण परिपाक जैसा विनय-पत्रिका में देखा जा सकता है, वैसा अन्यत्र नहीं भक्ति में प्रेम के अतिरिक्त आलंबन के महत्त्व और अपने दैन्य का अनुभव परमावश्यक है तुलसी के हृदय से इन दोनों अनुभवों के ऐसे मिर्मल शब्द-स्रोत निकले हैं, जिसमें अवगाहन करने से मन की मैल कटती है और अत्यंत पवित्र प्रफुल्लता आती है



विनय-पत्रिका में शरणागत भक्त का उच्चतम आदर्श निहित है जो इसके पृष्ठों पर मूर्त्तिमान हो उठा है इस भक्ति के आदर्श का मूल स्वर है

या जग में जहँ लगि या तनु की प्रीति प्रतीति सगाई

ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिट इक ठाई ।। 4 ।।     (विनय-पत्रिका 103)



तुलसीदास सर्वात्मभाव से अपने आराध्य और स्वामी के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं अपने पदों में प्रारम्भ से ही वे आराध्य की महानता और अपनी लघुता का आधार लेकर चलते हैं

                    राम सों बड़ो है कौन, मो सों कौन छोटो

                              राम सों खरो है कौन, मो सों कौन खोटो ।। 2 ।।        

(विनय-पत्रिका 72)



इसी के बल पर कवि अपनी मोहग्रस्त आत्मा को जगाना चाहता है और राम की ओर उन्मुख होने की साधना में तन्मय हो जाता है विनय-पत्रिका में इस दैन्य वर्णन के अन्तर्गत ही अनेकों आत्मकथात्मक प्रसंग आये हैं

                    राम को गुलाम, नाम रामबोलाराख्यो राम,

                                    काम इहै, नाम द्वै हों कबहूँ कहत हों

                    लोग कहैं पोचू, सो सोच संकोच मेरे

                                    ब्याह बरेखी, जाति-पाँति चहत हौ

                    तुलसी अकाज-काज राम ही के रीझे-खीझे,

                                   प्रीति की प्रतीति मन मुदित रहत हौं ।। 4 ।।     

 (विनय-पत्रिका 76 )



अथवा

                    दियो सुकुल जनम, सरीर सुंदर, हेतु जो फल चारिको 

                    जो  पाई  पंडित  परम पद, पावत     पुरारि-मुरारि को ।।       

(विनय-पत्रिका 135)





कवि राम के व्यक्तित्व में ऐश्वर्य, सर्वशक्तिमत्ता, शरणागतवत्सलता तथा शील का समावेश करके अपने दैन्य का क्रमशः विकास प्रस्तुत करता जाता है

                    तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हों भिखारी

                    हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी ।। 1 ।।

                    नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोसों ?

                    मो समान आरत नहिं, आरतहर तोसों ।। 2 ।।

                    ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो

                    तात-मात, गुरू-सखा तू सब बिधि हितु मेरो ।। 3 ।।

                    तोहि मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै

                    ज्यों त्यों तुलसी कृपालु ! चरन-सरन पावै ।। 4 ।।          

(विनय-पत्रिका 79)  



इस दीनता की जितनी भी मानसिक दशाएं हो सकती हैं, तुलसी की कल्पना ने सबको घेर लिया है वे पूर्णतया निस्साधन भक्त हैं, इसीलिए तो

                              खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु ,

             रीझिबे लायक तुलसी की निलजई ।। 5 ।।        

(विनय-पत्रिका 252)





तुलसीदास ने इस आत्मनिवेदन में तर्क और भावना का अद्भुत सम्मिश्रण किया है, किन्तु उनका तर्क भी भावात्मक ही है वे पहले तो राम को ऐसे सब काम गिना देते हैं जिनमें उन्होंने बड़े-बड़े पातकियों को तारा है फिर उनके शील स्वभाव की प्रशंसा करते हैं यह भी पर्याप्त होने पर उनके विरद की याद दिलाकर यश में बट्टा लगने का, बदनामी का डर दिखाते हैं ऐसे पदों में कहीं-कहीं निवेदन बड़ा ही स्वाभाविक और मार्मिक हो गया है

                            कहे बिनु रह्यो परत, कहे राम ! रस रहत

                    तुमसे सुसाहिब की ओट जन खोटो-खरो,

                                काल की, करम की कुसाँसति सहत ।। 1 ।।

                    करत विचार सार पैयत कहूँ कछु

                                 सकल बड़ाई सब कहाँ ते लहत ?

                    नाथ की महिमा सुनि, समुझी आपनी ओर,

                                 हेरि हारि कै हहरि हृदय दहत ।। 2 ।।

                    सखा , सुसेवक , सुतिय , प्रभु आप

                                 माय-बाप तुहि साँचो तुलसी कहत



                    मेरी तो थोरी है, सुधरैगी बिगरियौ बलि

                                 राम ! रावरी सौं रही रावरी चहत ।। 3 ।।           

(विनय-पत्रिका 256)



उसकी तो विशेषता यह है कि-

                    जो पै दूसरो कोउ होइ

                    तौ हौं बारहि बार प्रभु कत दुख सुनावौं रोई ।। 1 ।।        

(विनय-पत्रिका 217)



वह कभी निराश हो उठता है, कभी प्रभु के अनुग्रह का साक्षात्कार करने लगता है और कभी यह कह उठता है कि -

                तुम अपनायो तब जानिहौं, जब मन फिरि परिहै

                    जेहि सुभाव विषयनि लग्यो तेहिं सहज  
               नाथ सों नेह छाँड़ि छल करिहै ।। 1 ।।       

(विनय-पत्रिका 268)



प्रभु से निरन्तर विनय करते-करते वह यह भी अनुभव करता है कि उनका आराध्य मन ही में उसे अपना समझता है अतएव प्रेमजनित धृष्टता तथा उपालम्भ का स्वरूप भी कहीं प्रस्फुटित हो उठा है सान्निध्य की यह भावना भक्त के पूर्ण आत्मविश्वास की द्योतक है



पूरी विनय-पत्रिका में दास्य भाव की भक्ति का प्रसार दिखाई पड़ता है एक दो स्थानों पर कहीं-कहीं उपमा के माधुर्य भाव की मनहर व्यंजना प्राप्त हो जाती है



दैन्य के साथ जहाँ कहीं आत्मकथा का अंश मिल गया वहाँ आत्मनिवेदन अधिक तीव्र और मार्मिक बन गया है-

                    द्वार द्वार दीनता कही, काढ़ि रद, परि पाहूँ

                    हैं दयालु दुनी दस दिसा, दुख-दोष-दलन-छम,

                                         कियो सँभाषन काहूँ  ।। 1 ।।            

                    तनु जन्यो कुटिल कीट ज्यों, तज्यों मातु पिता हूँ

                    काहे को रोष, दोष काहि धौं, मेरे ही अभाग

                                         मोसों सकुचत छुइ सब छाहूँ  ।। 2 ।।         

(विनय-पत्रिका 275)



अन्त में, हनुमान जी की सिफारिश और भरत की इच्छा से लक्ष्मण तुलसी की अरजी पेश कर देते हैं कि-

                    कलिकालहु नाथ ! नाम सों परतीति-

                      प्रीति एक किंकर की निबही है  ।। 1 ।।         

(विनय-पत्रिका 279)



फिर क्या है, सारी सभा समर्थन में चिल्ला उठती है और

                    बिहँसि राम कह्यो सत्य है, सुधि मैं हूँ लही है    (विनय-पत्रिका 279)

कहकर प्रभु श्री राम तुलसी की पत्रिका पर सही कर देते हैं दास के रूप में राम के ऐश्वर्य की जो कल्पना तुलसी ने की है उसकी परिणति इसी पद में जाकर होती है अपने और राम के बीच के इसी अन्तर को पाटने के लिए तुलसी ने आजीवन साधना की है यही उनका मर्यादावाद है और इसी मर्यादावाद के सूत्र में विनय-पत्रिका के पदों का लालित्य बँधा हुआ है यद्यपि तुलसी के पदों में उनकी चरम आसक्ति और पूर्ण तन्मयता के दर्शन होते हैं किन्तु दास्यभाव का यह स्वरूप उनकी आँखों से कभी ओझल नहीं हो पाता इसलिए पूर्ण आत्मोसर्ग करके भी तुलसी मर्यादा के बंधन में बँधे हैं



वास्तव में, विनय-पत्रिका तुलसीदास की भक्तिभावना की चरम परिणति है अतएव भक्तजन इसे तुलसी के भक्तिसिद्धांत का ब्रह्मसूत्रमानते हैं



दार्शनिक आयाम

विनय-पत्रिका में गोस्वामी जी की दार्शनिक प्रौढ़ता का निदर्शन भी मिलता है, किन्तु यह भक्तिदर्शन का अंग होकर ही प्रायः अभिव्यक्त हुआ है उदाहरण के लिए -

                    केसव ! कहि जाइ का कहिये

                    देखत तब रचना विचित्र हरि ! समुझि मनहिं मन रहिये ।। 1 ।।

                    सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे

                    धोये मिटै मरे भीति दुख, पाइय इहि तनु हेरे ।। 2 ।।

                    कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै

                    तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ।। 4 ।।          

(विनय-पत्रिका 111)



इसमें मायावाद आदि सभी दार्शनिक मतों को अपूर्ण कहकर केवल उनके द्वारा आत्मानुभूति असम्भव कही गई है ऐसा प्रतीत होता है कि गोस्वामी जी किसी भी मत को बिल्कुल असत्य नहीं मानते हैं लेकिन उन्हें पूर्ण सत्य भी नहीं मानते   हैं उनके अनुसार, किसी एक को पूर्ण सत्य मानकर दूसरे मतों की उपेक्षा करने से सच्ची तत्वदृष्टि नहीं प्राप्त हो सकती वास्तव में, इन भ्रमों से वही छुटकारा पा सकता है, वही  वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है जो सब कुछ श्री हरि की लीला ही मानता है



तुलसीदास ने यथावसर भिन्न-भिन्न मतों से वैराग्य की पुष्ट के लिए सहारा लिया है जैसे, निम्न पद में स्कार्यवाद और अद्वैतवाद का मिश्रण-सा दिखाई पड़ता है

                    जौ निज मन परिहो बिकारा

                    तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख, संसय, सोक अपारा  ।। 1 ।।

                    बिटप मध्य पुतरिका, सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये

                    मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये ।। 4 ।।           (विनय-पत्रिका 124)

         

इसी प्रकार संसार की असारता के सम्बन्ध में वे कहते हैं

                    मैं तोहिं अब जान्यो संसार

                    बाँधि सकहि मोहि हरिके बल, प्रगट कपट-आगार ।। 1 ।।

                    देखत ही कमनीय, कछु नाहिंन पुनि किए बिचार     

ज्यों कदलीतरू-मध्य निहारत, कबहुँ निकसत सार ।। 2 ।।       (विनय-पत्रिका 188)





कुल मिलाकर, मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के अन्तिम दौर के कवि गोस्वामी तुलसीदास की विनय-पत्रिका भक्तिरस और ज्ञान के नाना रसों से भरी हुई है और हिन्दी के भक्ति साहित्य का एक अनमोल रत्न है



अवधेश कुमार सिन्हा

हैदराबाद